उत्तर-कोरोना समय में संस्कृति
संस्कृति अपने व्यापकतम अर्थ में वैचारिक और व्यवहारिक स्तर पर अनेकानेक गतिविधियों को समेटती है यथा साहित्य, ललित कलाएं, खेलकूद, लोकाचार, धार्मिक अनुष्ठान, मड़ई-मेले इत्यादि। इनके बहुमुखी प्रकट रूपों के निर्धारण में प्राकृतिक परिवेश, इतिहास, भूगोल के अलावा आर्थिक कारणों की अहम भूमिका होती है। समाजशास्त्र एवं नृतत्वशास्त्र जैसे अनुशासनों में इनका अध्ययन होता है और इनसे अक्सर राजनीति की बुनियाद तैयार होती है। संस्कृति का उदात्त पक्ष किसी सुन्दर उपवन की तरह होता है जिसमें भांति-भांति के रंगों और खुशबुओं वाले फूल अपनी छटा बिखेरते हैं और बागीचे के भीतर आने वाले ही नहीं, दूर-पास से गुजरने वालों को भी आह्लादित करते हैं। इसके विपरीत जब संस्कृति संकुचित धारणाओं से प्रभावित होती है तब किसी खंडहर का नक्शा जैसा बन जाता है। मैं बागीचे के बरक्स रेगिस्तान की उपमा भी नहीं दूंगा जिसका अपना एक सौंदर्य होता है।
इस बात को स्पष्ट करने के लिए एक-दो उदाहरण लिए जा सकते हैं। मसलन, कमल का फूल जो जापान और वियतनाम से लेकर ईरान और मिस्र तक समूचे पूर्वी गोलार्द्ध में एक समान रूप से पवित्रता, प्रेम और सौंदर्य के प्रतीक के रूप में मान्य है। एक क्षण सोचकर देखिये कि दिल्ली के बहाई मंदिर की वास्तुशास्त्रीय संरचना में कमल के फूल का समावेश क्यों किया गया है? यह लोटस टेम्पल आज हमारी निर्मित विरासत का एक अनूठा दृष्टान्त बनकर सामने आया है अनेक पर्यायवाची नामों वाला यह सुन्दर पुष्प जब राजनीतिक प्रतीक की तरह इस्तेमाल किया जाता है तो वह अपनी सार्वदेशिक मान्यता को मानो खो देता है। दूसरा उदाहरण इस कोरोना समय का ही है। पूर्वी एशिया में म्यांमार से लेकर जापान तक की संस्कृति में सिर झुकाकर नमस्कार करने का चलन है। हम जैसे-जैसे पूरब की ओर बढ़ते हैं, वैसे-वैसे सिर झुकाना भी बढ़ता जाता है। आपने देखा होगा कि इन देशों की एयरलाइंस मैं व्योमबालाएं हाथ जोड़कर ही यात्रियों का अभिवादन करती हैं। यह बिलकुल संभव है कि नमस्ते की शुरुआत भारत से ही हुई हो और यहीं से इसका प्रसार हुआ हो। विभिन्न समाजों में इस तरह का आदान-प्रदान स्वाभाविक है और मैं नहीं मानता कि इसे लेकर गर्वोन्मत्त होने की कोई आवश्यकता है।
इस पृष्ठभूमि में दुनिया के हर समाज को विचार करना चाहिए कि उत्तर कोरोना समय में अपनी सांस्कृतिक अस्मिता का हम कौन सा रूप गढ़ेंगे। क्या हम महासागर जैसी उदात्तता की ओर बढ़ेंगे या फिर अपना कुआं खोदकर उसमें मेंढक की तरह रहना चाहेंगे। मैं यहां विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की उस कविता का स्मरण करना चाहूंगा जिसमें उन्होंने भारत को महामानव सागर की उपमा दी थी, जिसमें सब दिशाओं से अपने-अपने सांस्कृतिक उपादान लेकर लोग आए और जिन्होंने मिल-जुलकर भारत की सामासिक संस्कृति को स्थापित किया। वैसे कथित स्वर्णिम अतीत में जाएं तो हमें दो सटीक उदाहरण मिलते हैं। एक जगह कहा गया है- आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:। दूसरे का उल्लेख बार-बार होता है- वसुधैव कुटुंबकम। कितना अच्छा हो कि संसद के प्रवेशद्वार पर अंकित पूरे श्लोक को हम याद रखें-
अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।
वरिष्ठ पत्रकार नयन चंदा ने मानव सभ्यता के विकास पर सरल भाषा में गंभीर विवेचना अपनी पुस्तक ‘बाउंड टुगेदर’ में की है। उनकी स्थापना है कि वैश्वीकरण पांच चरणों में हुआ है। सबसे पहले लगभग पचास-साठ हजार साल पहले इथिओपिया से निकलकर आदिमानव भोजन और बेहतर अवसर की तलाश में पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं में बढ़ा। दूसरे चरण में व्यापार करने के लिए लोगों ने दूर देशों की यात्राओं पर जाना शुरू किया। तीसरे चरण में धर्मप्रचार के लिए संतों, परिव्राजकों और उपदेशकों की यात्राएं शुरू हुईं। चौथे चरण का प्रमुख कारक था- राज्य विस्तार की आकांक्षा। पांचवा चरण वह है जिसे हम आज के वैश्वीकरण के नाम से जानते हैं। सवाल उठता है कि उत्तर कोरोना समय में क्या वैश्वीकरण का वर्तमान रूप कायम रह पाएगा या कोई छठा चरण विश्वपटल पर दस्तक देगा। इसका उत्तर ढूंढते हुए मैं एक और पुस्तक तक जाता हूं, जिसे भविष्यवादी विचारक ग्रेग लिंडसे और जॉन कसारडा ने लिखा है, शीर्षक है- ‘एरिट्रोपोलिस : द वे वी लिव नेक्स्ट’। इस पुस्तक में जिस अवधारणा की पैरवी की गई है, उसका संक्षिप्त रूप दिल्ली और हैदराबाद की ऐरोसिटी में देखा जा सकता है।विमान यात्री सुबह के विमान से उतरकर ऐरोसिटी का रुख करते हैं, वहीं किसी होटल में उनकी व्यापारिक या सामाजिक बैठकें हो जाती हैं और शाम के विमान से वे वापस लौट जाते हैं, जैसे कि वे किसी एक द्वीप के निवासी हों। वाल्टर किल्न के उपन्यास ‘अप इन द एयर’ का नायक एक ऐसा बिजनेस एक्जीक्यूटिव है जिसका पूरा समय हवाई-अड्डों, हवाईजहाजों और होटलों में ही बीतता है। इसी नाम से बनी फिल्म में जॉर्ज क्लूनी ने नायक के किरदार को बखूबी निभाया है। एरिट्रोपोलिस में लेखकद्वय ने यह भी प्रतिपादित किया है कि पुराने समय में सभ्यता का विकास नदियों के किनारे हुआ, फिर रेललाइनों के किनारे, फिर हवाईअड्डों के निकट।
अब जबकि लोग सामान्यत: किसी भी साधन से यात्रा करने में घबराएंगे, आवागमन में कमी आएगी, तब क्या होगा? टोक्यो ओलम्पिक खेल 2020 स्थगित कर दिए गए हैं, स्टेडियम खाली रहेंगे, खेलों के नियम बदलने की कवायद शुरू हो गई है। संगीत के कंसर्टों में भी श्रोताओं की उपस्थिति प्रभावित होगी। सेंट पीटर्सबर्ग का हरमिटेज, पेरिस का लूव्र, लन्दन का ब्रिटिश म्यूजियम, इन सब में रखे प्रादर्शों को देखने कौन आएगा, मोनालिसा की रहस्यमयी मुस्कान क्या दर्शकों के अभाव में एक उदास और फीकी हंसी में बदल जाएगी? वाशिंगटन में लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस की रखी करोड़ों पुस्तकों को पाठकों का इंतजार रहेगा। संस्कृति के बहुविध आयामों से जुड़ी ये कुछ शंकाएं हैं जिनका समाधान कब कैसे होगा, आज तो पता नहीं है।
मेरा ध्यान विशेषकर एक अन्य क्षेत्र की ओर जाता है। मनुष्य की यायावर प्रकृति अनादिकाल से रही है। प्रथम विश्वयुद्ध के पहले तक तो पासपोर्ट का चलन भी नहीं था। मनुष्य पक्षी की तरह उन्मुक्त होकर उड़ तो नहीं सकता था लेकिन देश-देशांतर की यात्रा करना संस्कृति का एक अनिवार्य अंग था। यहां अनेक विश्वप्रसिद्ध सैलानियों के नाम गिनाए जा सकते हैं- फा ह्यान, ह्वेन त्सांग, इब्न बतूता, मार्को पोलो, राहुल सांकृत्यानन इत्यादि। इस सहज प्रवृत्ति को धीरे-धीरे एक उद्योग में तब्दील कर दिया गया, संस्कृति का आयाम वाणिज्यिक उपक्रम बन गया। अब यदि यात्राओं में कमी आती है तो उसका असर एयरलाइंस, ट्रैवल एजेंसी, होटल व्यवसाय, सोविनियर शॉप, गाइड, टैक्सी, इन सब पर भी पड़ेगा, इसका विकल्प क्या होगा? क्या डिस्कवरी चैनल देखकर हमें संतोष मिल पायेगा या हम पर्यटन की पुरानी पद्धति की ओर लौटेंगे? हेलीकॉप्टर से अमरनाथ या उत्तराखंड के चारधाम की यात्रा करने की बजाय श्रद्धालु क्या एक बार फिर पैदल तीर्थयात्रा पर निकलने के लिए तैयार होंगे? अगर ऋषिकेश से बद्रीनाथ तक का पुराना पैदलपथ दुबारा आबाद हो सके तो कितना अच्छा होगा। इस तरह के उपाय विशेषज्ञों को सोचना होंगे जिनसे एक ओर यायावरी प्रवृत्ति भी संतुष्ट हो और पर्यावरण की भी यथासंभव रक्षा हो सके।
एक बार फिर हमें ‘सामाजिक दूरी’ की ओर आना होगा। यह ऐसा भूत है जो हमारे सिर पर सवार है और लंबे समय तक इसके उतरने की संभावना नहीं दिखती है। मैंने अभी पर्यटन उद्योग की बात की लेकिन यह तथ्य है कि सांस्कृतिक आयोजनों का एक बड़ा हिस्सा या तो आर्थिक कारणों से प्रभावित होता है या आर्थिक योजनाओं को प्रभावित करता है। मसलन, भारत में गोबर से बना उपला अमेजॉन द्वारा अमेरिका और अन्य देशों में बेचा जाता है। वहीं हम चीन से होली के रंग, दीवाली की झालर और लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें और मूर्तियां आयात करते हैं। भव्य मंदिरों के निर्माण के लिए इटली का संगमरमर सौ-दो सौ सालों से आता रहा है।
विदेशों से कई वनस्पतियां आईं और हमने उन्हें पूरी तरह अपना लिया जैसे आलू, बैंगन, टमाटर, मिर्ची, अमरुद, चीकू, लीची इत्यादि। हाल-हाल में अभिजात वर्ग में विदेशों से आयातित दुर्लभ फलों के उपभोग का चलन हो गया है। इन सारे तथ्यों को देखते हुए क्या यह संभव है कि दुनिया का हर समाज अपनी-अपनी सांस्कृतिक चारदीवारी में कैद हो जाये? जैसे कि ईसाईयों के मोरमोन सम्प्रदाय का बाहरी दुनिया से संपर्क नहीं के बराबर है। इजराइल में भी कट्टर धार्मिक विश्वासी दो हजार साल पुरानी दुनिया में जीते हैं और किसी भी परिवर्तन को स्वीकार नहीं करते हैं। चुनौती यही है कि क्या हम इन्हें अपना आदर्श मानें या फिर ऐसे उपायों की खोज करें जिससे विश्व समाज में परस्पर आदान-प्रदान चलता रहे और हर जगह की संस्कृति प्राचीन और नवीन का सम्मिश्रण कर अपने-आप को पहले से अधिक समृद्ध बना सके।
देशबंधु में 28 मई 2020 को प्रकाशित