सिलगेर की मौतों का आदिवासी भविष्य?
कनक तिवारी
सिलगेर बस्तर में पहला और आखिरी सरकारी गोलीबार नहीं है। नक्सली और सरकारी गोलियों से आदिवासी वर्षों से भूंजे जा रहे हैं। क्रूर सच यह है अब आदिवासियों के जीवित रहने तक पर खतरे मंडरा रहे हैं। आदिवास का अस्तित्व ही इतने खतरे में है कि इक्कीसवीं सदी में आदिवासी, और आदिवास चित्रों, कैलेन्डरों, किताबों में छपेंगे। जो बाहर से आकर नागर सभ्यता के मालिक हो गए हैं, वे मूल निवासियों पर हुकूमत कर रहे हैं। सामन्तों और बादशाहों और उनसे ज़्यादा आज़ादी के बाद सरकारों ने आदिवासी जीवन और संस्कृति को लगभग तबाह कर दिया है। बीसवीं सदी के आखिरी दशक से काॅरपोरेटी लूट के गिद्धों ने आदिवासी ही नहीं लोकतंत्र और संविधान को अपने ज़हरीले जबड़े में दबोच लिया है। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों पर उनकी पकड़ ऐसी है कि मुगालता नहीं रहे कि अम्बानी, अडानी, टाटा, एस्सार, अनिल अग्रवाल जैसों के खिलाफ सरकारें विधायन भी कर सकती हैं।
शिक्षित युवा आदिवासी जानें कि संविधान में ही आदिवासी अधिकारों को लेकर कितना धोखा हुआ है। अपने निजी तल्ख अनुभवों के कारण बाबा साहब ने दलितों के उत्थान को लेकर लगातार जेहाद बोला। गांधी के भरोसेमन्द होने से गैर आदिवासी ठक्कर बापा को संविधान सभा ने आदिवासी अधिकारों को तय करने की उपसमिति का अध्यक्ष बनाया। ठक्कर बापा ने उद्दाम, बेलौस और प्रखर आदिवासी सदस्य जयपाल सिंह मुंडा के मौलिक और कारगर सुझावों का लगातार विरोध करते उन्हें अधिकारों की गुमनामी में धकेल दिया। फिर तो सरकारों ने आदिवासी अधिकारों की अमानत में खयानत की। कुदरती दौलत और वन संपत्ति आदिवासियों से जबरिया छीन ली। अय्याश शहरी धनाड्य लुटेरे और पर्यटक मौज मस्ती और लूट लपेट करते, आदिवासियों को उनके हुक्म बजा लाने की ताकीदें करते हैं। अपनी जूठन को आदिवासी की भूख बनाते हैं। प्रमुख खनिज, गौण खनिज, वन उत्पाद, पानी, धरती, पेड़ पौधे, पशु पक्षी तो दूर आदिवासी अस्मत, अस्मिता और पुश्तैनी अधिकार तक गिरवी रख लिए गए हैं। संविधान सभा में के. टी. शाह ने कहा था काॅरपोरेटी तो एक दिन सबका खून चूस लेंगे। सावधान हो जाओ!
आदिवासी अधिकारों को तय किए बिना उन्हें राज्यपाल की एकल हुक्मशाही के तहत बरायनाम सुपुर्द भर किया गया। राज्यपाल पर नकेल डालते उनकी नियुक्ति प्रधानमंत्री की कलम पर निर्भर कर दी। गवर्नर को राज्य मंत्रिपरिषद की बात मानना लाजिमी होगा। राज्यपाल पद के लिहाज से खुद त्रिशंकु हो तो आदिवासियों की रक्षा क्या खाक करेगा? संविधान ने आदिम जाति मंत्रणा परिषद को लाॅलीपाॅप का चटोरापन बनाया। वह झुनझुना बजता है तो आदिवासी को मृगतृष्णा की तरह की उम्मीदें झिलमिलाती हैं। कुछ तेज तर्रार आदिवासी नेताओं ने संसद में चहलकदमी की। फिर जैसे गैरइरादतन हत्या का अपराध होता है ऐसे ही आदिवासियों के नाम पर गैर इरादतन विधायन का संसदीय कौशल देखा गया।
सरकारें श्वेत पत्र जारी नहीं कर सकतीं कि बस्तर में नक्सली कब, क्यों, किसकी हुकूमत में कैसे आ गए? पंद्रह साल भाजपा सरकार ने इतने अपराधिक ठनगन किए कि पार्टी प्रदेश में नैतिक रूप से अधमरी हो गई है। कांग्रेसी महेन्द्र कर्मा की भाजपाई गलबहियों के कारण औरस सन्तान सलवा जुडूम का जन्म हुआ। विशेष पुलिस भर्ती अभियान में सोलह वर्ष के बच्चों के हाथों नक्सलियों से लड़ने बंदूकें थमा दीं। भला हो सुप्रीम कोर्ट जज सुदर्शन रेड्डी का जिन्होंने नंदिनी सुंदर वगैरह की याचिका पर ऐतिहासिक फैसले में आादिवासी अत्याचारों का खुलासा करते सरकारी गड़बडतंत्र की धज्जियां उड़ा दीं। नक्सली उन्मूलन के नाम पर छत्तीसगढ़ में जनविरोधी हिटलरी कानून बना। ज्यादातर डाॅक्टरों, दर्जियों और मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को पकड़ा। आदिवासियों के लिए हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की इंसाफ की चाल से कहानियों वाला कछुआ भी शरमा रहा है। कई मुकदमे वहां गोदामों, तहखानों में पड़े हैं। बेहतर है उन्हें जला दिया जाए।
उत्तरप्रदेश, पंजाब, आंध्र, गुजरात, तमिलनाडु वगैरह के गैर आदिवासी ठेकेदार बस्तर की वन संपत्ति के मालिक हैं। आदिवासी सांसदों, विधायकों, मंत्रियों का मलाईदार तबका अपनों के अधिकारों के लिए लड़ने के बदले उच्चवर्णीय सत्ता संगठन का बगलगीर और पिट्ठू हो जाता है। बस्तर राष्ट्रीय लूट और शर्म का बड़ा टापू है। सरकारों में दम नहीं कि काॅरपोरेट डकैती और लूट रोक सकें, बल्कि मुकाबला है कौन पहले शरणागत होगा। छत्तीसगढ़ का लोहा, कोयला, मैंग्नीज, फ्लूरोस्पार, रेत, डोलोमाइट, वन उत्पाद को काॅरपोरेट गोडाॅउन में भेजने सरकारों ने दहेज बना दिया है।
नक्सली न तो अतिथि हैं और न आदिवासियों के मददगार। ईमानदार सरकारें उन्हें खदेड़ सकती हैं लेकिन नक्सली आॅपरेशन के अरबों रुपयों के जमा खर्च का क्या होगा? मंत्री और अफसर अमीर नहीं हों तो लोकतंत्र की लड़ाई कैसे लड़ सकते हैं? जमा खर्च का कोई पब्लिक आॅडिट भी नहीं होता। प्रदेश सरकार के आला अधिकारियों की निगरानी में दूसरे प्रदेशों के केन्द्रीय रक्षित पुलिस बल एवं अन्य संगठनों के सुरक्षा बल बस्तर में अपने दायित्वों के साथ साथ आदिवासी जीवन में तकलीफदेह धींगामस्ती और हिंसा करने के आरोपी होते रहते हैं।
गरीब घरों के नौजवान सिपाहियों को नक्सलियों द्वारा मारे जाने पर लाशें कचरा गाड़ियों में भी भेजी गईं। गरीब बनाम गरीब सिपाही और आदिवासी की काॅरपोरेटी, नक्सली और राजनेता की कुश्तियां कराते हैं। जैसे चोंच में छुरी फंसाकर मुर्गे और तीतर लड़ाए जाते हैं। बेला भाटिया, ज्यां द्रेज, हिमांशु कुमार, सोनी सोरी, सुधा भारद्वाज, संजय पराते, आलोक शुक्ला, मनीष कुंजाम, बृजेन्द्र तिवारी आदि मोर्चे पर डटते हैं। बस्तर पाताललोक है क्या कि नरेन्द्र मोदी, राहुल गांधी, अमित शाह, सीताराम येचुरी, ममता बनर्जी, शरद पवार, तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव, रामचंद्र राव, जगन रेड्डी और राकेश टिकैत जैसे लोगों को सूचना तक नहीं हो। राहुल ने तो आदिवासियों के लड़ाकू प्रतिनिधि की भूमिका का ऐलान भी किया था। केन्द्र सरकार का नया जंगल विधेयक आदिवासियों और पर्यावरण को तबाह करने संसदीय बांबी में फुफकार रहा है। बिल से बाहर आया तो जंगलों का निजीकरण कर काॅरपोरेट को दिया जाएगा। विरोध करने पर वन अधिकारियों को गोली मारने की इजाजत होगी। बस्तर में अंबानी नगर, अदानीपुर, वेदांता संकुल, एस्सारपुरी और टाटा निलयम उग जाएंगे तो आदिवासी कहां रहेंगे?
सरकार हिंसा करे तो सबूत कहां से आए? सजा तो कभी नहीं मिलेगी। मीडिया मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की तस्वीरें और बयान नहीं छापे तो अरबों रुपयों के गरीब मालिक विज्ञापनखोरी के बिना जिएं कैसे? यह हालत है बस्तर के आदिवासियों की। दो वक्त का खाना तक जुटा नहीं सकते। चीटी, चीटा, कीडे़े मकोडे़े, कंद मूल, महुआ भी खाकर जी लेते हैं। गत के कपड़े तक नहीं पहनते। उनके पास भाषा, बोली और शिक्षा नहीं हैं। इंटरनेट, टीवी, डिजिटल, लैपटाॅप, इंस्टाग्राम, फेसबुक, ट्विटर को सदियों में भी नहीं जान पाएंगे। मच्छर, मक्खी, कीट पतंगों की तरह आदिवासियों को ठिकाने लगाया जा रहा है। अंगरेजों से सबसे पहले और ज्यादा आदिवासी लडे़। छत्तीसगढ़ में गुंडा धूर, नारायण सिंह और रामाधीन गोंड़ का इतिहास दमक रहा है। झारखंड में बिरसा मुंडा के साथ पौरुष का इतिहास भरा पड़ा है। वह आदिवासी नहीं संविधान की जान बचाती है। वक्त है आदिवासी युवक अपनी पहचान, अतीत और भविष्य के लिए वैज्ञानिक, प्रगतिशील, आर्थिक और सामाजिक सोच के आधार पर आगे बढ़ें। अर्थ है कि वे बढ़ें।
कनक तिवारी