विष्णु देव साय का कितना नियंत्रण


  • दिवाकर मुक्तिबोध

पिछले वर्ष 13 दिसंबर 2023 को छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री बने विष्णुदेव देव साय क्या इस पद पर अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा कर पाएंगे ? यद्यपि यह सवाल फिलहाल अप्रासंगिक व अपरिपक्व है फिर भी है इन सात-आठ महीनों में ही उनकी व भाजपा सरकार की जो छवि बनी है वह आशानुकूल तथा उत्साहवर्धक नहीं है. इससे यह संकेत भी मिलता है कि यदि साय ने स्वयं को नहीं बदला और सरकार के तमाम सूत्र अपने हाथ में नहीं लिए तो देर-सबेर कमान उनके हाथ से छूट सकती है. यह धारणा इसलिए बन रही है क्योंकि सरकार के भीतर व बाहर जो नये शक्ति केंद्र बन गए हैं , उससे यह सोच पाना मुश्किल है कि वास्तव में सरकार कौन चला रहा है? मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय या कोई और? कहा जाता है कि साय दरअसल दबाव में है. एक तरफ तो सरकार के नये नवेले व पूर्व नौकरशाह रहे अति महत्वाकांक्षी वित्तमंत्री ओपी चौधरी हैं तो दूसरी ओर संगठन मंत्री पवन साय का प्रभामंडल हैं जिनसे पार पाना साय जैसे सीधे-सरल मुख्यमंत्री के बस में नहीं है बशर्ते वे रमन सिंह जैसी कूटनीतिक दृढ़ता न दिखाए. स्वभाव से सौम्य व मिलनसार डाक्टर रमन सिंह ने अपनी इसी छवि के दम पर पंद्रह वर्षों तक छत्तीसगढ में शासन किया. उन्हें बतौर पूर्व मुख्यमंत्री इसीलिए भी याद किया जाता है क्योंकि उन्होंने साबित किया कि राजनीति में सज्जनता, सरलता , सहजता व सीधेपन को व्यक्तित्व की कमजोरी न समझा जाए. उन्होंने अपने कार्यकाल में शासन की कमान यद्यपि ढीली छोड़ी थी पर मौके-मौके पर वे उसे अच्छी तरह कस देते थे. इसलिए तमाम आरोपों के बावजूद सरकार निर्बाध चलती रही और उनकी छवि पर भी आंच नहीं आई. विष्णुदेव साय यदि पूरी पारी खेलना चाहते हैं तो उन्हें भी कुछ ऐसा ही करना होगा. दम दिखाना होगा.

दरअसल साय सरकार को नौसिखियों की सरकार कहा जा सकता है. अधिकतर मंत्री पहली बार सरकार में पहुंचे हैं इनमें दोनों डिप्टी सीएम भी शामिल हैं. सरकार को विधान सभा में विपक्ष का बेहतर तरीके से सामना करने के लिए बृजमोहन अग्रवाल सबसे सक्षम मंत्री थे पर वे अब सांसद हैं.

लिहाज़ा मोर्चा संभालने का दायित्व प्रमुख रूप से वित्त मंत्री ओ पी चौधरी, दोनों डिप्टी सीएम विजय शर्मा, अरूण साव तथा अन्य एक दो पर है. विधान सभा के पहले ही सत्र में कांग्रेस ने अपने तेवर दिखा दिए थे. जाहिर है कांग्रेस आगे भी सरकार को विधान सभा के भीतर व बाहर घेरने के लिए कोई मौका छोड़ना नहीं चाहेगी. ऐसे में साय सरकार व संगठन को अधिक तैयारी की जरूरत है.
साय के नेतृत्व में भाजपा सरकार की पहली ही परीक्षा बलौदा बाजार की घटना थी जिसे रोक पाने में वह असफल रही. प्रशासनिक लापरवाही , कमजोर सूचना तंत्र व परिस्थितियों को भांपने में असफलता की वजह से साम्प्रदायिकता का जो उग्र रूप सामने आया उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. आपा खो चुकी भारी भीड़ ने जमकर तोड़फोड़ की, दर्जनों वाहनों को आग के हवाले किया तथा कलेक्टोरेट भवन को भी नहीं बख्शा. छत्तीसगढ़ के इतिहास की यह पहली घटना है जब सरकारी इमारत में आगजनी की गई. यद्यपि एक समुदाय विशेष के उग्र प्रदर्शन के बावजूद यह संतोष की बात रही कि इसमें हिंसा नहीं हुई, किसी की जान नहीं गई तथा केवल माल को क्षति पहुंची लेकिन यह घटना सरकार के लिए एक सबक के तौर पर है.

इधर कांग्रेस की स्थिति उस शेर की तरह है जो घायल होने के बाद अधिक खतरनाक हो जाता है. पिछला चुनाव हारने और बघेल सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के बावजूद उसका मनोबल गिरा नहीं है तथा विपक्ष की भूमिका में वह अच्छा खासा दम दिखा रही है.उसकी आक्रामकता विधान सभा सत्र के दौरान नज़र आई. प्रदेश में कानून-व्यवस्था की लचर स्थिति तथा बढ़ते अपराध के मुद्दे पर कांग्रेस ने जोरदार प्रदर्शन किया तथा विधान सभा को घेरने की कोशिश की. वह हर मुद्दे को लपकने तथा सरकार को असहज स्थिति में लाने की कोशिश कर रही है. भाजपा सरकार भले ही दावा करे कि कांग्रेस हवा में लाठियां चला रही है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि उसे आगामी कुछ महीनों में दो और चुनौतियों का सामना करना है. पहली चुनौती है रायपुर दक्षिण विधान सभा की सीट पर अपना कब्जा बरकरार रखना और दूसरी नगर निकाय व पंचायत चुनाव में कांग्रेस के वर्चस्व को खत्म करना. अभी सभी 14 नगर निगमों में कांग्रेस के मेयर है तथा कुल 43 नगर पालिकाओं में से 32 में अध्यक्ष कांग्रेस के हैं. 112 नगर पंचायतों में भी 74 पंचायतें कांग्रेस के पास है. यद्यपि नगर निकायों के चुनाव में सत्ताधारी दल को बहुमत मिलना असामान्य घटना नहीं है तो फिर भी यह देखना दिलचस्प रहेगा कि विधान सभा चुनाव के दौरान भाजपा द्वारा किए गए वायदे जिसमें महिलाओं के लिए लाभकारी महतारी वंदन योजना प्रमुख है , का कितना असर रहेगा. यह एकमात्र योजना थी जिसने कांग्रेस के दोबारा सत्ता में लोटने की संभावना खत्म कर दी थी. कांग्रेस को भी इन चुनावों में साबित करना होगा कि वह अब सरकार में नहीं है लेकिन उसने जनता का विश्वास नहीं खोया है. पंचायत चुनाव में पता चल जाएगा वास्तव में वह कहां खड़ी है.

नगर निकायों के चुनावों के साथ ही रायपुर दक्षिण वह विधान सभा क्षेत्र है जहां इन दोनों दलों में जो रस्साकशी होगी , वह देखने लायक रहेगी. 2023 के विधान सभा चुनाव में यह सीट बृजमोहन अग्रवाल ने रिकॉर्ड मतों से जीती थी. अविभाजित मध्यप्रदेश में 1990 से व 2008 में परिसीमन के बाद से लगातार यह सीट उनके पास रही है.
लोकसभा चुनाव में उनके सांसद बनने के बाद उनकी विधान सभा सीट खाली हुई जहां अब उपचुनाव होना है. चूंकि भाजपा की यह परंपरागत सीट है इसलिए इस पर वर्चस्व बनाए रखने का दायित्व सरकार व संगठन पर है.साय सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि वोटों का अंतर भले ही कम हो जाए पर सीट हाथ से नहीं जानी चाहिए. इसलिए अपने दो मंत्रियों को यहां तैनात किया गया है. चुनाव की तारीख का अभी एलान नहीं हुआ है किंतु तैयारियां जोरों पर चल रही है.

उपचुनाव में इस सीट पर नया इतिहास रचने का कांग्रेस को नायाब मौका मिला है. उसकी खुशकिस्मती है कि इस बार मैदान में बृजमोहन नहीं रहेंगे. बृजमोहन ने 2018 के चुनाव में कांग्रेस के कन्हैया अग्रवाल को महज 17 हजार 496 वोटों से हराया था पर 2023 का चुनाव उन्होंने महंत रामसुंदर दास को 67 हजार से अधिक वोटों से हराकर जीता था. अब आमने-सामने न बृजमोहन होंगे न रामसुंदर दास. नये- पुराने चेहरों पर जोर आजमाइश होगी. कांग्रेस यदि यह किला फतह कर लेती है तो न केवल विधान सभा में राजधानी से उसका प्रतिनिधित्व हो जाएगा वरन उसका मनोबल भी उछाल मारने लगेगा पर यह इस सच्चाई निर्भर है कि कांग्रेस किसे टिकट देगी तथा चुनाव के दौरान आपसी तनातनी को परे रखकर कितनी एकजुटता दिखाएगी.

क्या यह उपचुनाव मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय का भविष्य तय करेगा? जवाब होगा-नहीं. चूंकि अगला विधान सभा चुनाव अभी काफी दूर है अतः निकाय चुनाव हो या विधान सभा उपचुनाव, सरकार के स्तर पर किसी प्रकार के फेरबदल की कतई संभावना नहीं है अलबत्ता ट्रैक रिकॉर्ड जरूर प्रभावित होगा. लिहाज़ा इस उपचुनाव को जीतना व्यक्तिगत तौर पर भी मुख्यमंत्री के लिए आवश्यक है. इस उपचुनाव में यह भी महत्वपूर्ण है कि सांसद बृजमोहन अग्रवाल कितनी सक्रियता दिखाएंगे, दिल से या दिखावे के तौर पर? संदेह इसलिए है क्योंकि राज्य की राजनीति से बाहर किया जाना उन्हें मंजूर नहीं था. इस स्थिति में इस उपचुनाव में उनकी भूमिका,चाहे वह किसी भी रूप में हो, महत्वपूर्ण रहेगी.

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