आज की कविता : ख़बरनवीस का ख़त
तुम्हें दरकार है
एक मखमली आलिंगन की
और मेरे बदन में चिपक रहा है लहू
मैं यह लहू
छिपाना चाहता हूं तुमसे
कि दुनिया में आज बहुत खून बहा है
मैं घर आकर
तुम्हें चूमने से पहले ही
नहाना चाहता हूं
…
हम दिन भर चुनते हैं लाशें
पीट-पीटकर मारे गए इंसानों की
भूख से मरे बच्चों की
सियासत में क़त्ल हुए लोगों की
अपनी ज़मीन से प्यार करने वाले आदिवासियों की
हम ख़बरों की तिज़ारत में
इधर उधर भागते कबूतर हैं
लोगों तक पहुंचाते हैं ख़ौफ़नाक सूचनाएं
दिल्ली से हुक्म हुआ है
‘नकारात्मक पेशा’ है हत्याओं की आलोचना
हम सीख रहे हैं हर हाल में सकारात्मक होना
…
हमने कवियों से सीखा सोचना
कलमकारों से सीखा लिखना
सरफरोशों से सीखा बोलना
अब दलालों से सीख रहा हूं
सोचना, लिखना, बोलना
अंग्रेजी में इसे कहते हैं ‘टैक्टिकल’ होना
हमने कलम उठाई थी
हम ख़बरनवीस हुए
फिर सूचनाओं के कसाई हो गए
…
हम ज्ञान रूपी मंदिर के
ऐसे पंडे हैं
जो आंसुओं से करा देते हैं गर्भाधान
और हमें शर्म भी नहीं आती
खुद को वैज्ञानिक कहने में
हमने कण्व ऋषि को मान लिया है
पहला परमाणु वैज्ञानिक
अब चंदा को मामा कहकर
करेंगे शास्त्रार्थ, आइंस्टीन को हरा देंगे
…
घर से निकलता हूं
तुम्हें मुस्कराता देख कर
शाम तक याद नहीं रहती
तुम्हारी मुस्कान
तमाम शक्लें भर जाती हैं
आंखों में
क्षत विक्षत, लथपथ
रोज़ भड़कती है एक सियासी भीड़
लिंचिंग हो जाती है कोमल विचारों की
रूई के फाहे की तरह तुम्हारे आलिंगन
रोज़ बचा ले जाते हैं इन्हें
अगले दिन लिंच होने के लिए
….
कल जब तुम्हें
खिलाया था निवाला अपने हाथ से
अंदर कुछ दरक गया था
वह मां थी
मारना नहीं चाहती थी
अपने बीमार बच्चे को
खिलाना चाहती होगी इसी तरह
अपने हाथ से
वह और सहला नहीं सकी
भूखे बच्चे का पेट
कलेजा फट रहा था
दबा दिया बच्चे का गला
मैं ऐसे देश का ख़बरनवीस हूं
जहां भूखे बच्चों को
अपनी ही मां के हाथों
मरना पड़ता है
अब वह कभी नहीं दिखाएगी उसे
आंगन में लिटाकर चंदा मामा
आज देश चांद पर पहुंच गया है.
कृष्ण कांत