प्रधानमंत्री मोदी अब देने लगे हैं चमत्कारी बाबाओं जैसे भाषण
वर्तमान में व्याप्त असमानता पिछले 100 वर्षों में सबसे अधिक है, यानी गुलामी के दौर में भी हालात बेहतर थे। हमारे देश में कुल आबादी में से मात्र एक प्रतिशत लोग देश की कुल संपत्ति में से 52 प्रतिशत पर अधिकार जमाये बैठे हैं…
वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
प्रधानमंत्री मोदी जी चमत्कारी बाबा से कम नहीं हैं, उनका विकास विपक्ष को कोसने से और उनके लिए नए शब्द इजाद करने से पैदा होता है। पेशेवर निराशावादी प्रधानमंत्री जी की नज़रों में वो है जो उनके फैसलों पर और नीतियों पर सवाल उठाने की जुर्रत करे।
चुनावों के समय देश में रोजगारों की बौछार हो रही थी और चुनाव के बाद सकारी आंकड़े ही रोजगार की भयावह स्थिति बता रहे हैं, पर यह पेशेवर निराशावादी दृष्टिकोण नहीं है। उनकी पार्टी के तमाम सांसद कभी मारपीट तो कभी अधिकारियों से अभद्र व्यवहार करते हैं, तब वह निराशावाद नहीं होता। इस पेशेवर निराशावादी का सबसे बड़ा पहलू तो यह है कि यदि आज कोई तथाकथित निराशावादी उनकी पार्टी में शामिल हो जाए तो वह आशावादी हो जाएगा।
ऐसे बहुत सारे निराशावादियों को आशावादियों में परिवर्तित करने की कवायद उत्तर-पूर्व से शुरू होकर और कोलकाता के रास्ते कर्नाटक तक पहुँच गयी है। अब तो बस यही देखना है कि देश चलाने वाले और कहाँ तक जा सकते हैं।
मोदी जी सही कहते हैं, प्रश्न पूछने वाले सभी पेशेवर निराशावादी ही हैं। पेशेवर मतलब रोजगार में होना और पेशेवर कहकर कम से कम रोजगार के आंकड़े तो बढ़ाए ही जा सकते हैं। दूसरी तरफ वे कैसे निराशावादी हो सकते हैं, जो गाय के नाम पर किसी की हत्या कर सुरक्षित रहते हैं और जिसकी हत्या होती है उसके घर वाले ही मुजरिम हो जाते हैं।
वे कैसे निराशावादी हो सकते हैं जो सोशल मीडिया पर खुलेआम रेप करने और गर्दन काटने की धमकी लगातार देते हैं, या फिर रेप करने वाले का खुलेआम समर्थन करते हैं। वे कैसे निराशावादी हो सकते हैं, जो खुलेआम किसी को भी इसलिए अधमरा कर सकते हैं कि उसने उनके कहने पर जय श्री राम नहीं कहा।
कितना अजीब है कि प्रधानमंत्री केवल पेशेवर निराशावादी की परिभाषा गढ़ने वाराणसी तक पहुँच गए। वैसे सन्दर्भ भी रोचक है, 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था। अधिकतर अर्थशास्त्री यही कह रहे हैं कि इस बजट में इसका सन्दर्भ जरूर था, पर कोई रोडमैप नहीं था। इस सरकार के तमाम अर्थशास्त्रियों को देश लगातार 5 वर्षों से देखता आ रहा है। रिज़र्व बैंक कोई आंकड़ा देता है, अर्थशास्त्री कोई और आंकड़ा बताते हैं, वित्त मंत्री के अपने आंकड़े होते हैं और प्रधानमंत्री के सबसे जुदा आंकड़े होते हैं। जुदा आंकड़ों से भी बात नहीं बनती तो एक ही दिन में दिए गए दो भाषणों में भी अंतर आ जाता है। सही मायने में यही आशावादी दृष्टिकोण है, लोगों को बेवकूफ बना सकने की आशा और आत्मविश्वास।
वैसे भी 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था से आर्थिक असमानता और गंभीर होगी। अर्थव्यवस्था बड़ी होने का मतलब प्रधानमंत्री जो समझाते हैं कि सबका विकास होगा, गरीब अमीर हो जाएगा, ये सब जुमले हैं। हकीकत में ऐसा कुछ नहीं होता, कम से कम आज के आर्थिक ढाँचे से तो कोई उम्मीद नहीं है। आज जब 2.4 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था है तब हमारे देश में जितनी व्यापक आर्थिक असमानता है, उतनी दुनिया में कहीं नहीं है।
कहा जा रहा है कि वर्तमान में व्याप्त असमानता पिछले 100 वर्षों में सबसे अधिक है, यानी गुलामी के दौर में भी हालात बेहतर थे। हमारे देश में कुल आबादी में से मात्र एक प्रतिशत लोग देश की कुल संपत्ति में से 52 प्रतिशत पर अधिकार जमाये बैठे हैं। देश के सबसे अमीर 9 व्यक्तियों के पास जितनी संपत्ति है, उससे देश की 5० प्रतिशत जनता आसानी से गुजर-बसर कर सकती है।
ऑक्सफेम की रिपोर्ट के अनुसार देश के अमीर और अमीर होते जा रहे हैं और देश के गरीब और गरीब। देश के 1 प्रतिशत सबसे अमीर लोगों की सम्पत्ति में एक वर्ष के भीतर ही 39 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो गयी है, जबकि देश की सबसे गरीब 50 प्रतिशत आबादी की सम्पदा में महज 3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। सबसे गरीब 60 प्रतिशत आबादी के पास कुल राष्ट्रीय सम्पदा में से महज 4.8 प्रतिशत सम्पदा है।
वर्ष 2018 में देश की 10 प्रतिशत सबसे अमीर आबादी के पास देश की कुल 77.4 प्रतिशत सम्पदा थी, जबकि वर्ष 2017 में इनके पास 73 प्रतिशत सम्पदा थी। इसका सीधा सा मतलब है कि अमीर पहले से अधिक अमीर हो रहे हैं, जबकि बजट के समय और योजनाओं को बनाते समय भी हमेशा गरीबों की बात की जाती है पर अमीर और भी अमीर हो जाते हैं।
वर्ष 2014 के बाद देश में केवल दो वर्ग रह गए – अमीर (आशावादी, देशभक्त) और गरीब (निराशावादी, देशद्रोही)। यह फासला साल दर साल बढ़ रहा है। केवल यह फासला ही नहीं बढ़ता, बल्कि अब तो पूंजीपति ही अपनी मर्जी से सरकार चुनते हैं, अपने फायदे की नीतियाँ बनाते हैं और सरकार चलाते हैं। सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास का नारा देने वाली सरकार की ऐसी नीतियाँ समझना सबसे आसान है – अडानी, अम्बानी समेत तमाम पूंजीपतियों की पूंजी कई गुना बढ़ती जाती है। इसके बावजूद यही लोग बैंक के पैसे वापस नहीं करते।
एक तरफ कई गुना बढ़ती पूंजी और दूसरी तरफ दीवालिया भी ताल ठोककर बन जाते हैं, यह पूंजीवादी नीति है। दूसरी तरफ यही देश है और वही बैंक हैं, जिनसे किसान कुछ हजार या लाख का लोन लेते हैं और समय से नहीं चुका पाने पर इतना परेशान किया जाता है कि आत्महत्या कर लेते हैं।
पूंजीवाद की सबसे बड़ी विशेषता है कि अर्थ व्यवस्था के साथ ही धीरे-धीरे सारे प्राकृतिक संसाधन सिमट कर कुछ लोगों के हाथ में चला जाता है, जमीन इनके हाथ में चली जाते है, पहाड़़, नदियाँ सब कुछ इनका हो जाता है। जो आबादी इनका विरोध करती है उसे नक्सली, माओवादी, आतंकवादी का तमगा दे दिया जाता है। देश में यही हो रहा है, और अपने अधिकारों के लिए या अपने जल, जमीन और जंगल की लड़ाई लड़नेवाले बड़ी तादात में सरकार के समर्थन से पूंजीपतियों की फ़ौज से मारे जा रहे हैं।
पूंजीवाद की प्रगति तो देखिये – वर्ष 1990 में देश में कुल 2 अरबपति थे, 2016 में 84, 2017 में 101 और पिछले वर्ष 119 अरबपति थे। इनके साथ ही देश में भूखे लोगों की संख्या लगातार बढ़ती गयी और साथ ही बैंकों का एनपीए भी। वर्ष 2016 में देश की कुल अर्थव्यवस्था 2.3 ट्रिलियन डॉलर थी और उस समय देश में 84 अरबपति थे। चीन में इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था 2006 में थी और तब वहाँ मात्र 10 अरबपति थे। वर्ष 2017 में जो 101 अरबपति थे उनके पास सम्मिलित तौर पर 440 अरब डॉलर की पूंजी थी। अरबपतियों के पास इससे अधिक पूंजी केवल अमेरिका और चीन में है।
इसके विपरीत देश के औसत आदमी की आमदनी महज 1700 डॉलर प्रतिवर्ष है। भारत के धनाढ्यों ने किसी भी देश के किसी भी काल की तुलना में ज्यादा धन ज्यादा जल्दी एकत्रित किया है। यह कहना मुश्किल नहीं है कि हाल के वर्षों में भारत में पूंजीपतियों ने आम आदमी को और संसाधनों को खूब लूटा है। वर्तमान सरकार में यह लूट-पाट और बढ़ गयी है।
वर्ष 2016 में देश के सर्वाधिक अमीर 10 प्रतिशत आबादी के पास राष्ट्रीय आय का 55 प्रतिशत से अधिक जमा था, जो किसी भी देश की तुलना में सर्वाधिक था। वर्ष 1980 में देश के सर्वाधिक अमीर 1 प्रतिशत धनाढ्यों के पास 7 प्रतिशत संसाधन थे, जबकि सबसे गरीब 50 प्रतिशत आबादी 23 प्रतिशत संसाधनों पर निर्भर थी। वर्ष 2014 तक सबसे ऊपर के 1 प्रतिशत का हिस्सा बढ़कर 22 प्रतिशत तक पहुँच गया, जबकि सबसे नीचे की 50 प्रतिशत आबादी का हिस्सा घटकर 15 प्रतिशत रह गया। स्पष्ट है, बढ़ती आर्थिक असमानताओं के बीच गरीबों का जीवन दूभर होता चला गया।
यह सब अंतर तब है जबकि वर्तमान में अर्थव्यवस्था 2.4 ट्रिलियन की है, जाहिर है 5 ट्रिलियन का फायदा केवल अमीरों को होना है। यह सब समझाने के लिए पेशेवर निराशावादी होना कोई जरूरी नहीं है। पर सच को सच कहना आज आपको निराशावादी बना सकता है और शायद देशद्रोही भी।
साभारः- janjwar.com