बस्तर में कोहराम (1) सिलगेर कथा का पोस्टमार्टम
कनक तिवारी
बस्तर के सुकमा क्षेत्र के सिलगेर गांव में आदिवासी जीवन में नीयतन कोहराम मचाया गया। नक्सली उन्मूलन के मकसद के नाम पर पुलिस शिविर स्थापित करने के एकतरफा सरकारी फैसले के खिलाफ सैकड़ों गांवों के लोग लामबंद होकर करीब एक माह लगातार धरना प्रदर्शन करते रहे। वे नहीं चाहते उनके अमनपसन्द इलाके में पुलिस-नक्सली भिड़ंत की आड़ में खौफनाक मंजर उगें। उसकी शुरुआत पुलिस शिविर स्थापित करने से हो गई उन्हें लगती है। जनप्रतिरोध का मुकाबला लोकतंत्र की कई तुनकमिजाज सरकारें जनता की छातियों को गोलियों से छलनी करती ही करती हैं, उससे कमतर कुछ नहीं। पुलिस को लाचारों पर सरकारी गोलीबार करने की खुली छूट है। जनप्रतिनिधियों, समाज और मंत्रियों का भी नैतिक दबाव उन पर नहीं होता। बंदूक के ट्रिगर पर उंगली सत्ता के अहंकार में दबा दी जाए। तो एक के बाद एक मनुष्य लाशों में तब्दील होते जाते हैं। बस्तर में वर्षों से वह हो रहा है।
इन्हें रूपक कथाओं के जरिए समझा जा सकता है। स्कूली बच्चे एक पागलखाना देखने गए। देखा पहला पागल रस्सी की गांठ खोल रहा है और चीख रहा है। डाॅक्टर ने कहा यह आज तक रस्सी की गांठ नहीं खोल पाया। इसीलिए पागल हो गया। दूसरे पागल को बार बार रस्सियां गांठ लगाकर दी जातीं। वह पांच सेकण्ड में ही खोल देता और हंसने लगता। डाॅक्टर ने कहा यह हर गांठ को इतनी जल्दी खोलता रहा है कि खुशी में पागल हो गया है। तीसरा पागल रस्सी में गांठें लगाकर ठहाकों में हंस रहा था। डाॅक्टर ने कहा यह हर रस्सी में गांठ लगाता कहता है और फिर हंसता रहता है। सरकारें आदिवासी समस्या की गांठें खोल नहीं पा रहीं और दिमागी संतुलन को लेकर चीख रही हैं। नक्सली हर समस्या का हल बंदूक से तुरंत निकालते हंसते रहते हैं। काॅरपोरेटिए भारत की सभी दौलत, वन संपत्ति और आदिवासी जीवन के भविष्य पर गांठ लगाये रहते अहसास करते रहते हैं। उनके सामने सरकार और नक्सली दोनों की हिम्मत पस्त है। यही बस्तर का सच है।
बस्तर में सिलगेर में पहला सरकारी गोलीबार नहीं है। आदिवासी तो नक्सली और सरकारी हिंसा के बीच लगातार पिस रहे हैं। हर गोली अमूमन आदिवासी की ही छाती में धंसती है। अब आदिवासी के मनुष्य के रूप में ही जीवित रहने तक पर खतरे हैं। पूरा आदिवास खतरे में है। यही हाल रहा तो कुछ दशकों के बाद भारत में न रहेंगे आदिवासी और न रह पाएगा आदिवास। वे सब चित्रों, कैलेन्डरों, किताबों में छपेंगे। आदिवासी देश के मूल निवासी हैं। उन्हें सदियों तक शहरियों से लेना देना नहीं रहा। उन्होंने अपना अर्थतंत्र, देशी इलाज, सामाजिक एका, कुदरत से लगाव और सामुदायिक जनभावना का अनोखा इंसानी संसार उगाया है। वह अपने आपमें स्वायत्त और संपूर्ण है। धीरे धीरे सामंतवादियों, बादशाहों और बाद में क्रूर अंगरेज हुक्कामों ने आदिवासी जीवन और वन संस्कृति को बरबाद करना शुरू किया। तब भी आज की तरह की बेशर्म काॅरपोरेटी लुटेरी घुसपैठ नहीं थी। खनिज, लकड़ी, वन उपज वगैरह में अंगरेज ने अपनी व्यापारिक हैसियत पुख्ता करते यूरोपीय मार्केट में भारतीय आदिवासी जीवन बेचना शुरू किया। कानून, सरकार, पुलिस, पटवारी, जंगल साहब, कलेक्टर और न जाने कितने रुतबेदार जंगलों में पैठते गए। आदिवासी को पीछे खदेड़ा जाने लगा जिस तरह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर रेड इन्डियन्स और माओरी वगैरह को नेस्तनाबूद कर किया गया है।
उल्लास, उमंग, जद्दोजहद और प्रयोग करते भारत में आजादी और संविधान आए। उम्मीद जगी कि समाज के सबसे कमजोर तबकों दलित और आदिवासी के साथ हो चुके अन्याय की भरपाई करते अन्याय रोका जाएगा। हुआ लेकिन उल्टा। यह त्रासदायक खबर है कि शिक्षित युवा आदिवासी तक नहीं जानते कि संविधान बनाने में आदिवासी अधिकारों को लेकर धोखा हुआ है! आदिवासियों का सबसे बड़ा भरोसा नेहरू पर था। नेहरू ने जिम्मेदारी बाबा साहब अम्बेडकर को सौंपी। बाबा साहब ने दलित उत्थान को अपने निजी अनुभवों की तल्खी का इजहार करते लगातार ध्यान में रखा। गांधी के विश्वासपात्र ठक्कर बापा को संविधान सभा में गैरआदिवासी होने पर भी आदिवासी अधिकार तय करने की उपसमिति का अध्यक्ष बनाया। ठक्कर बापा ने सबसे उद्दाम, मौलिक, बेलौस और प्रखर आदिवासी सदस्य जयपाल सिंह मुंडा के मौलिक, साहसी और शोधपरक सुझावों का लगातार विरोध किया। संवैधानिक ज्ञान में निष्णात आलिम फाजिल कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने भी जयपाल सिंह के तर्कों को ठिकाने लगाने में शहरी भद्र वाला आचरण किया। कई और थे जिन्हें आदिवासियों के स्वाभिमानी नारों में समाजविरोधी चुनौती दिखाई देती। जयपाल सिंह का बुनियादी तर्क आज भी संशय, ऊहापोह और नामुराद भविष्य में तैर रहा है। वे तय नहीं करा पाए कि नागर सभ्यता की पैदाइश के काफी पहले से आदिवासी जंगलों और संलग्न इलाकों में अपना पुश्तैनी हक लेकर जीवनयापन करते रहे हैं। संविधान लागू होने पर वह रिश्ता धीरे धीरे खत्म किया जाता रहा है।
बीसवीं सदी के आखिरी दशक से अंतर्राष्ट्रीय पूंजीखोर और भारतीय काॅरपोरेटिए ज्यादा से ज्यादा सरकारी संपत्ति की लूट करते अरबपति, खरबपति बनने आर्थिक बराबरी की लोकतंत्र की मूल भावना और न्याय को नेस्तनाबूद कर अट्टहास करने लगे। कहा होगा गांधी ने जाॅन रस्किन की किताब ‘अन टु दिस लास्ट‘ को पढ़कर कि कतार में सबसे आखिर में खडे़ व्यक्ति की आंखों से जब तक आंसू पोछे नहीं जा सकें, लोकतंत्र नहीं आएगा। एक के बाद एक आती जाती ज्यादातर नाकाबिल सरकारों ने आदिवासी समझ की अमानत में खयानत की है। ( जारी है ).
कनक तिवारी