बस्तर में कोहराम (2) आओ! आदिवासियों की चटनी पीसें
बस्तर जैसे अनुसूचित इलाकों की कुदरती दौलत आदिवासियों से जबरिया छीन ली गई है। आदिवासी इलाके तो धर्मशाला, सराय या होटल बने ग्राहकों के स्वागत के लिए हैं। अय्याश अमीर और पर्यटक मौज मस्ती और लूट लपेट करने आते हैं। पूरे माहौल में कचरा, मुफलिसी, गंदगी, अभिशाप बिखेरकर लौट जाते हैं। आदिवासियों से चौकीदारी, सफाईगिरी और गुलामी करने की उम्मीदें की जाती हैं। वे यह सब करने के लिए सरकारों द्वारा अभिशप्त भी बना दिए गए हैं। यही आदिवासी जीवन का सच है। प्रमुख खनिज, गौण खनिज, जंगली उत्पाद, पानी, धरती, पेड़ पौधे, पशु पक्षी तो दूर आदिवासी की अस्मत और अस्मिता तक कानूनों ने गिरवी रख ली है। सरकारी मुलाजिम और पुलिस ने जंगलों में जाना शुरू किया। उनकी निगाहें आदिवासियों की बहू बेटी, बकरियां, खेत खलिहान और जो कुछ भी उनके साथ दिखे को लूटने की बराबर रही हैं। गांधी के लाख विरोध के बावजूद सरकारी सिस्टम में करुणा और सहानुभूति की कोई जगह नहीं रही। लोकतंत्र आखिर तंत्र लोक में तब्दील हो गया है।
बहुत माथापच्ची करने के बाद पूर्वोत्तर इलाकों को छोड़कर, (जहां छठी अनुसूची लागू है), बाकी प्रदेशों के आदिवासी सघन क्षेत्रों में पांचवीं अनुसूची लागू की गई। ‘आदिवासी‘ शब्द तक बदलकर उसे संविधान में ‘अनुसूचित जनजाति‘ कह दिया और कई आदिवासी समुदायों को बाहर कर दिया गया। वे अपनी पहचान के लिए अब तक बेचैन हैं। आदिवासी ने नहीं चाहा लेकिन उसे संसद ने राज्यपाल की एकल संवैधानिक कही जाती हुक्मशाही के तहत कर दिया। राज्यपाल चाहें तो राज्य सरकार से बिना परामर्श किए केन्द्र और राज्य के कई कानूनों को अनुसूचित क्षेत्रों में लागू कराएं या नहीं लागू कराएं। राज्यपाल की नियुक्ति में नकेल डालकर। उसे प्रधानमंत्री की कलम की नोक से बांध दिया। राज्यपाल के लिए राज्य सरकार के मंत्रियों की बात मानना भी लाजिमी किया।. संविधान में राज्यपाल का पद खुद त्रिशंकु है तो आदिवासियों की रक्षा क्या खाक करेगा? संविधान ने फिर परंतुक लगाया। लाॅलीपाॅप के स्वाद जैसा नाम रखा आदिम जाति मंत्रणा परिषद। वह झुनझुना जब बजता है तो आदिवासी को वी0आई0पी0 होने का नशा होने लगता है कि उसके लिए कुछ होने वाला है। परिषद की अध्यक्षता मुख्यमंत्री करते हैं। प्रधानमंत्री, राज्यपाल और मुख्यमंत्री के त्रिभुज में आदिवासी जीवन उम्र में कैद हो गया है। उसका अंत हत्या, आत्महत्या और इच्छा मृत्यु का विकल्प ढूंढ़ रहा है।
कुछ सक्रिय आदिवासी नेताओं ने संसद में चहलकदमी की। फिर कुछ आधिनियम और कानून बने। जैसे गैरइरादतन हत्या का अपराध होता है। ऐसे ही गैरइरादतन विधायन का संसदीय कौशल भी होता है। जंगलों से बेदखल किए गए आदिवासियों के लिए भूमि व्यवस्थापन का अधिनियम बना।. राजीव गांधी जैसे इंसानियत परस्त प्रधानमंत्री ने अफसोस में कहा दिल्ली से एक रुपया भेजो तो सबसे पीछे खड़ेे आदमी के पास पंद्रह बीस पैसे ही पहुंचते हैं। नरसिंह राव के प्रधानमंत्री काल में तय हुआ पंचायतों को पुरानी परंपरा के अनुसार मजबूत करना है। आदिवासी इलाकों में पंचायतों को विशेष अधिकार देने होंगे। मंत्रीशाही में ‘चाहिए‘ शब्द बहुत चटोरा है। कोरोना के कारण हर भारतीय को वैक्सीन लगनी चाहिए। हर घर बिजली का प्रकाश चाहिए। हर हाथ को काम चाहिए। हर बेटी को पढ़ना चाहिए। इतने चाहिए हैं, लेकिन ‘हो गया‘ नहीं कहते। ऐसे ही पेसा नाम का अधिनियम संसद ने आधे अधूरे मन से बनाया। तब भी छत्तीसगढ़ सहित कई राज्यों में अब तक लागू और कारगर नहीं हो पाया है। मंत्रालय के एयरकण्डीशन्ड कमरों में बस्तर और सरगुजा जैसे आदिवासी इलाकों के आदिवासियों के खून, पसीने और आंसू की काॅकटेल नशा पैदा करती है। दिलीप सिंह भूरिया की अध्यक्षता वाली कमेटी ने सिफारिशें कीं। वे पेसा कानून में नहीं आईं।
कोई नहीं बताता बस्तर में नक्सली कब आए? किसकी हुकूमत में कैसे आ गए? पंद्रह साल में छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार ने इतने अपराधिक ठनगन किए कि पार्टी प्रदेश में नैतिक रूप से अधमरी हो गई है। कांग्रेसी महेन्द्र कर्मा के साथ भाजपाई गलबहियों के कारण सलवा जुडूम नाम की औरस संतान का जन्म हुआ। विशेष पुलिस भर्ती अभियान में सोलह वर्ष के बच्चों के हाथों नक्सलियों से लड़ने के नाम पर बंदूकें थमा दी गईं। भला हो सुप्रीम कोर्ट के जज सुदर्शन रेड्डी का जिन्होंने नंदिनी सुंदर वगैरह की याचिका पर ऐतिहासिक फैसले में आादिवासी अत्याचारों का खुलासा करते सरकारी गड़बडतंत्र की धज्जियां उड़ा दीं। नक्सलियों के उन्मूलन के नाम पर छत्तीसगढ़ में जनविरोधी हिटलरी कानून बना। उसमें ज़्यादातर डाॅक्टरों, दर्जियों और मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को पकड़ लिया। अब उस कानून की हालत है जैसे बाजार से बच्चों के लिए शाम को खरीदा गया फुग्गा अगली सुबह निचुड़ जाता है।
पेसा के तहत बुनियादी हक दिए जाने के लिए ग्राम सभाएं बनीं। बैठकों में कलेक्टर साहब और कप्तान साहब टीम टाम के साथ या कारिंदों के जरिए दहशत का माहौल बनाते हैं। लाचार, अपढ़, कमजोर, डरे हुए आदिवासी केवल हाथ उठाते हैं। अंगूठा लगाते हैं। सब कुछ कानून सम्मत होकर आदिवासी की जमीन और अधिकार छीनने का सरकारी नाटक काॅरपोरेटी मंच पर धूमधाम से उद्घाटन पर्व मनाता है। …..बस्तरिहा आादिवासी मुरिया, मारिया, गोंडी, हल्बा, भतरी बोलियों के अलावा कस्बाई छत्तीसगढ़ी तक नहीं जानते, जिसका छत्तीसगढ़ की मादरी जबान के रूप में सियासी, बौद्धिक हंगामा किया जाता है। कागज पर जबरिया दबा दिए गए उनके अंगूठे को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक उनके सच का ऐलान मानते हैं। उन्हें पता ही नहीं होता उन कागजों में लिखा क्या है। सरकारी झांसा संविधान का आचरण ऐसे भी करता है। (जारी है।)
कनक तिवारी