माओवाद से निपटने के दौरान निर्दोष आदिवासियों को बचाना होगा
दीपक पाचपोर
छत्तीसगढ़ एक बार पुनः रक्तरंजित है। बस्तर में हुई नक्सली हिंसा ने फिर से सबको झकझोर तो दिया है। वारदात के वक्त प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह दोनों ही असम एवं पश्चिम बंगाल के चुनावों में अपनी-अपनी पार्टियों के चुनावों में व्यस्त थे। रविवार को बघेल रायपुर और अमित दिल्ली लौटे। अगले दिन दोनों ने जगदलपुर में शहीदों को श्रद्धांजलि दी। वहां और रायपुर में घायलों से मिले। दोनों ने अधिकारियों के साथ बैठकें कर ऐलान किया कि केन्द्र-राज्य मिलकर नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई को निर्णायक अंजाम देंगे।
शाह और बघेल के कड़े तेवरों से समझा जा रहा है कि पुलिस एवं सुरक्षा बल बस्तर में अब बड़ा ऑपरेशन चलाएंगे। पहले भी जब-जब माओवादियों ने बड़ी कार्रवाइयों को अंजाम दिया है, उसके बाद सर्चिंग और धरपकड़ के बड़े अभियान चले हैं। अभी भी जिस कड़े रूख की बात हो रही है उसमें ताकत के बल पर नक्सल उन्मूलन का इरादा अधिक जोर मारता दिख रहा है। निर्दोष आदिवासियों की चिंता का कारण यहीं से शुरू होता है। राज्य जिस प्रकार करीब आधा दर्जन राज्यों से घिरा है, उससे माओवादियों द्वारा हिंसाचार कर दूसरे राज्यों में भाग जाना आसान होता है, पर फंसते हैं वे आदिवासी जो पूछताछ एवं नक्सलियों की खोजबीन के नाम पर पुलिस के हत्थे चढ़ते हैं। बस्तर का इतिहास मासूम वनवासी नागरिकों की प्रताड़ना और शोषण से भरा पड़ा है। अनेक मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं इनसे सहानुभूति रखने वालों को आशंका है कि कहीं हमें वैसा ही दौर फिर न देखने को मिले। इसलिये ज़रूरी है कि किसी भी प्रकार का ऑपरेशन चलाने के दौरान सरकार ख्याल रखे कि बेवजह कोई भी न सताया जाये।
कहा यह जा रहा है कि पिछले कुछ समय से नक्सलियों से शांति वार्ता की गुंजाइसें टटोली जा रही थीं। उस महौल को खराब करने और किसी भी प्रकार की सुलह तक कोई भी पक्ष न पहुंचने पाये, इसी के लिये बीजापुर-सुकमा सीमा पर घटना को अंजाम दिया गया है। ऐसा है तो शाह व बघेल के साथ अधिकारियों की हुई बैठक में या उसके बाद इसका कोई उल्लेख नहीं हुआ है। क्या केन्द्र व राज्य की सरकार वार्ता के प्रयास करेगी अथवा नहीं, यह स्पष्ट नहीं है। दो वर्ष पहले आई कांग्रेस प्रणीत सरकार के आने से उम्मीद बंधी थी कि माओवाद के स्थायी समाधान हेतु शायद बातचीत की पहल हो। यह तो तय है कि राज्य सरकार अकेले दम ऐसा नहीं कर पायेगी और उसे केन्द्र को भी विश्वास में लेना होगा। अगर इस बात को गोपनीय रखा गया है, तो भी कोई ऐतराज नहीं है क्योंकि सभी केवल यह चाहते हैं कि इस समस्या का हल निकले। सामनाथ बघेल की नक्सली हत्या में आरोपी बनाई गईं डीयू की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर और उनके सहयोगियों की गिरफ्तारी को लेकर दाखिल मामले में भी सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जस्टिस एमबी लोकुर व एके गोयल की पीठ ने भी सरकारों को नक्सली समस्या का शांतिपूर्ण समाधान ढूंढ़ने को कहा था।
इस हमले के बरक्स अनेक बातें जेहन में उभरती हैं। पहली तो यह है कि क्या सरकार के पास ऐसे लोग हैं जो माओवादी संगठनों से वार्ता का रास्ता खुलवा सकें? पहले भी कई लोगों ने मध्यस्थता की वकालत अथवा पहल की थी लेकिन उनकी या तो उपेक्षा हुई अथवा वे अपमानित किये गये। पिछली राज्य सरकार ने आदिवासियों के उत्थान हेतु उनके बीच काम करने वालों के प्रति जनता के मन में घृणा भर दी है। वे दोनों पक्षों को साथ ला सकते हैं पर या तो वे जेलों में हैं अथवा उन्हें राज्य निकाला दे दिया गया है। इनके लिये काम करने वाली सुधा भारद्वाज जैसी वकील जेल में हैं, तो दिवंगत स्वामी अग्निवेश, मेधा पाटकर जैसों पर हमले तक हुए हैं। सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार वर्षों से छग से बाहर हैं। उन पर विभिन्न आरोप लगाकर जनता की नज़रों से उन्हें गिराने की कोशिशें होती रही हैं। इस विषय के जानकारों का भी मानना है कि केवल बंदूकों के बल पर इस समस्या का निदान सम्भव नहीं है। ऐसा करने में घने जंगलों में बसे भोले-भाले आदिवासियों पर अत्याचार ही होंगे। हिमांशु ने अपने फेसबुक पेज पर लिखा है- “छग के मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि इस बार आखिरी युद्ध लडेंगे और माओवाद को समाप्त कर देंगे। हमने इस तरह की घोषणाएं कई बार सुनी हैं। इसलिये ऐसी घोषणाओं से हमारा उत्साह नहीं होता बल्कि डर बढ़ता है कि अब माओवाद और बढ़ जायेगा। असल में होगा यह कि इस घोषणा के बाद पुलिस के एसपी पर कुछ बहादुरी दिखाने का दबाव बढ़ेगा। माओवादी तो उसे मिलेंगे नहीं, तो उसके सिपाही जाकर निर्दोष आदिवासियों को मारेंगे, सिपाही आदिवासी महिलाओं से बलात्कार करेंगे। हम जैसे सामाजिक कार्यकर्ता इसके विरोध में बोलेंगे तो आप हमें माओवाद समर्थक कहेंगे।” हिमांशु आगे कहते हैं- “आप जितना आदिवासी को सताएंगे वह माओवादियों को अपना दोस्त समझेगा। आप आदिवासी को सम्मान दीजिये, उसकी बात सुनिये, अन्याय हो रहा है तो न्याय दीजिये।” हिमांशु ने अपनी इस लम्बी पोस्ट में आदिवासियों, उनके नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ हुए अन्याय एवं अत्याचारों का ब्यौरा दिया है। पुलिस द्वारा आदिवासियों के गांवों को जलाने, बलात्कार करने, पलायन हेतु मजबूर करने जैसी कई घटनाओं की उन्होंने जानकारी देते हुए कहा है कि दोषी पुलिस अधिकारियों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।
पिछली सरकारें और वर्तमान सरकार भी माओवाद के साथ बातचीत की तैयारी तो दर्शाती रही हैं, पर ठोस पहल किसी ने नहीं की है। पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी कहते रहे कि “अगर माओवादी सरकार के साथ बातचीत के लिए तो वे अकेले बस्तर के जंगलों में जाने के लिए तैयार हैं।” कुछ साल पहले आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर ने माओवादी हिंसा समाप्त करने के लिए शांति वार्ता की पहल की थी। भारतीय जनता पार्टी वालों के इस प्रिय गुरु ने माना था कि नक्सलवाद की जड़ में अन्याय और असमानता है। सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी ने भी दावा किया था कि अगर उन्हें मौका दिया जाए तो वे नक्सलवाद की समस्या को हल कर सकती हैं। ताड़मेटला कांड पर पुलिस वालों पर ऊंगली उठाते सीबीआई के हलफनामे को लेकर मचे हो-हल्ले के बीच सोरी ने यह दावा किया था। अगर यह अति आशावाद है तो भी श्रीश्री और सोनी सोरी को इसका मौका मिलना चाहिए था।
वर्तमान प्रणाली में हम सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिये भी सरकार और प्रशासन पर ही आश्रित होते हैं। हमें भरोसा नहीं होता कि प्रशासकीय व्यवस्था के बाहर का कोई व्यक्ति दुरुह समस्याओं को हल कर सकता है। अनेक ऐसे मौके आते हैं जब सरकार और प्रशासन की बजाय सिविल सोसायटी या कोई व्यक्ति ज्यादा कारगर साबित होता है। देश में ऐसे कई सफल प्रयोग हुए हैं- चाहे समस्याएं और उनके समाधान अलग तरह के रहे हों। तत्कालीन सुकमा कलेक्टर अलेक्स पॉल मेनन को जब नक्सलियों ने अगवा कर लिया था और सभी सरकारी प्रयास असफल हो गए थे, तो साम्यवादी नेता मनीष कुंजाम के जरिए उन्हें दवाएं पहुंचाई गई थीं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद से उनकी रिहाई हुई थी। दिल्ली में लोकपाल आंदोलन वालों से वार्ता में विलासराव देखमुख और संदीप दीक्षित ने व्यक्तिगत भूमिकाएं निभाई थीं। पंजाब में अलगाववादी आंदोलन को समाप्त करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अकालियों से समझौता किया, जो पंजाब एकॉर्ड्ज़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। तत्कालीन गृह सचिव आरडी प्रधान ने इसकी व्यक्तिगत तौर पर मध्यस्थता की थी। प्रधान ही भारत सरकार और असम की संघर्षरत ऑल इंडिया असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) को वार्ता की टेबल पर लाए थे। हिंसाग्रस्त असम में उसके बाद शांति और लोकतंत्र का मार्ग प्रशस्त हुआ था।
शांति वार्ताएं करना-कराना धैर्य का काम है और निर्णय तक पहुंचने में वे समय लेती हैं। नगा समस्या को ही लें! समस्या के बीज 1826 में पड़े थे पर वह आखिरकार 3 अगस्त, 2014 को बातचीत के जरिए हल हुई थी। 1881 से लेकर 2014 तक इस समझौते के लिए वार्ताओं के 80 से अधिक दौर चले थे। आरडी प्रधान को ही मिजो समस्या हल करने का काम भी सौंपा गया था। प्रधान ने अलगाववादी नेता लालडेंगा से सीधी बातचीत प्रारंभ की। प्रधान ने राजीव गांधी को तक बातचीत से अलग रखा था। कुछ मुद्दों पर राजीव आंशिक असहमत थे, पर प्रधान ने आशा नहीं छोड़ी थी। आखिरकार, उन्होंने लालडेंगा को बताया कि जून 1986 के अंत में वे सेवानिवृत्त हो जाएंगे। लालडेंगा ने 30 जून को समझौता कर लिया। एक विशेष आदेश के जरिए प्रधान का कार्यकाल रात 12 बजे तक बढ़ाया गया। समझौते पर हस्ताक्षर कर प्रधान रिटायर हुए थे। आखिरकार, मध्यस्थता कर ही चम्बल के कई दस्यु गिरोहों को हथियार त्यागने पर जयप्रकाश नारायण ने रजामंद किया था।
सो, शांति प्रयास जारी रहने चाहिये, बेशक आवश्कतानुसार राज्य शक्ति का प्रयोग करता रहे। निर्दोष आदिवासियों पर न अत्याचार हों और न ही उन्हें पलायन करना पड़े- सरकार व प्रशासन को यह भी सुनिश्चित करना होगा।
लेखक प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार है व वर्तमान में दैनिक देशबन्धु में राजनीतिक सम्पादक हैं
दीपक पाचपोर