जिहरनामा |आदिवासियों को संविधान के तहत धोखा दिया जा रहा है । यह लेख इस बात का सबूत है।


जनजाति सलाहकार परिषद या त्रिशंकु?

उर्दू का एक मनोरंजक शेर ‘सुना है सनम की कमर ही नहीं है। खुदा जाने नाड़ा कहां बांधते हैं?‘ यह जुमला आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के नाम पर संविधान में बनी जनजाति सलाहकार परिषद पर पूरा फिट बैठता है। पहले तो यह गया था कि आदिवासियेां के चुने गए कुछ प्रतिनिधियों को उनकी सभी समस्याओं को हल करने में जवाबदेह भूमिका दी जाएगी। उम्मीद थी कि देश का पुश्तैनी और मूल सभ्यता धारक आदिवासी समाज अपनी अनोखी संस्कृति, कला, जीवन पद्धति और परंपराओं के साथ नई दुनिया में सार्थक दस्तक देगा। संवैधानिक पेंच लगाते लगाते सलाहकार परिषद को राज्यपालों की अध्यक्षता का मनोरंजन क्लब बना दिया गया। संविधान के विद्यार्थियों तक को पता नहीं होगा कि किस तरह भारत के करोड़ों आदिवासियों के साथ संविधान रचना की सद्भावनाजन्य उम्मीदों के बावजूद सत्ता आज कितने जुल्म कर रही है। आदिवासियों का निजी और सामूहिक जीवन चोटिल करने का करतब लगातार जारी है। भविष्य में आदिवासी शब्द केवल इतिहास और शब्दकोश में पढ़ा जाने के लिए बचा रह पाएगा।

अंगरेजों द्वारा दिए गए कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए भी संविधान बना। सरदार पटेल को मूल अधिकार, अल्पसंख्यक और आदिवासी अधिकारों की उपसमिति का जिम्मेदार अध्यक्ष बनाया गया। मूल अधिकारों पर तो उपसमिति में काम होता रहा। समिति को लेकिन आदिवासियों के अधिकारों को स्पष्टता के साथ तय करने के लिए समय ही नहीं मिला। इतिहास का यह दुर्भाग्य आदिवासियों को दुख के साथ याद रखना पड़ रहा है। लस्टम पस्टम चलती कार्यवाही को लेकर कुल सात आदिवासी सदस्यों में तेज तर्रार और लगातार सक्रिय जयपाल सिंह मुंडा ने संविधान सभा की बैठकों को सक्रिय और उत्तेजक बनाया। उन्होंने आरोप लगाया कि सवर्ण मानसिकता और शोषक भूमिका के चलते आदिवासियों को फकत जंगली समझकर राष्ट्रीय जीवन की अतिरिक्तता समझा जा रहा है। पूरी कार्यवाही के दौरान चुस्तदुरुस्त और मुस्तैद रहते भी इस जाबांज आदिवासी सांसद की आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह अब तक गूंज तो रही है।

काफी जद्दोजहद और बहस मुबाहिसे के बाद असम सहित पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़कर देश के करीब दस प्रदेशों में आदिवासी आबादी के कारण उनमें अनुसूचित क्षेत्र तय करते जनजाति सलाहकार परिषदें संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत बनाई गईं। पहले तय था कि जिन राज्यों में सघन आदिवासी क्षेत्र के बाहर भी आदिवासी हैं, उन्हें भी प्रस्तावित पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों का लाभ मिलेगा। फिर एकाएक बिना बहस या जानकारी के उसे खत्म कर केवल अनुसूचित क्षेत्रों के आदिवासियों के लिए लागू किया। पहले था कि आदिवासी क्षेत्रों में संसद या विधानसभा के कानूनों को लागू नहीं करने का निदेश यदि परिषद दे तो राज्यपाल को वैसा करना पड़ता। बाद में जनतांत्रिकता खत्म कर उसे राज्यपालों के विवेक के तहत रख दिया। राज्यों में अनुसूचित क्षेत्रों का तयशुदा उल्लेख पहले था। इन प्रदेशों में देशी रियासतों के शामिल होने के कारण वह प्रावधान भी राष्ट्रपति को सौंप दिया गया। पांचवीं अनुसूची में संशोधन का प्रावधान नहीं था। बाद में वह भी संसद के जिम्मे कर दिया गया।

जयपाल सिंह ने पीड़ा के साथ कहा अनुसूचित क्षेत्र में परिषद को आदिवासियों की हर समस्या के लिए सलाह देने का अधिकार होना चाहिए। अन्यथा अनुसूची का कोई अर्थ नहीं है। उनकी अनसुनी कर दी गई।

पांचवीं अनुसूची में जनजाति सलाहकार परिषद फकत सलाह दे पाती है। वह भी फकत जो विषय या मुद्दे राज्यपाल तय करें। जयपाल सिंह खतरा भांप गए थे। उन्होंने कहा था कि परिषद केवल सलाह नहीं, निर्देश दे कि जब तक वह राय नहीं देती, राज्यपाल को अधिनियम बनाने, संशोधित या स्थगित करने का अधिकार नहीं होगा। यह भी हो कि आदिवासियों के सभी मुद्दों के लिए निर्देश देने का आदिवासी परिषद को अधिकार होगा। तेजतर्रार सदस्य कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने विरोध किया कि प्रशासन के हर मुद्दे पर परिषद ही सलाह देने लगेगी, तब कलेक्टर, इंस्पेक्टर, वन विभाग, लोक शांति, व्यवस्था सब कुछ उसके दायरे में आ जाएगा। यहां जयपाल सिंह के आग्र्रह को उलटकर देखा गया। उन्होंने राज्यपाल पर संवैधानिक बाध्यता लादने का नहीं सलाह देने सुझाव दिया था।

समझाइशी बहस में डाॅ. अंबेडकर ने जो कहा उससे यही अर्थ निकला कि आदिवासियों के पक्ष में पहले प्रस्तावित प्रावधान खारिज कर दिए गए। पांचवीं अनुसूची में अब आदिवासी समर्थक भूमिका कहां है? अनुसूची की छानबीन करने से प्रावधान पुश्तैनी या भविष्यमूलक आदिवासी अधिकारों का निषेध करते हैं। लब्बोलुबाब यही कि राज्यपाल अर्थात राज्य शासन जो चाहे उसी पर विचारविमर्श कर सलाह दी जाए। मानना या नहीं मानना सरकार, राज्यपाल और केन्द्र शासन पर है। आदिवासियों को परिषद के नाम पर लाॅलीपाॅप या झुनझुना मिला है। पांचवीं अनुसूची के संकुचित प्रावधानों के त्रिभुज में आदिवासी विकास और जीवन फंसकर फड़फड़ा रहा है। राज्यपाल पर पूरी जिम्मेदारी देने का क्या दिखावटी अर्थ है? राज्यपाल केंद्र द्वारा नियुक्त होकर राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह मानने बाध्य होते हैं। पांचवीं अनुसूची का सरकारी अर्थ यही है कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का हुक्मनामा राज्यपालों और परिषद के जरिए करोड़ों अनिच्छुक आदिवासियों के जीवन पर लागू होगा। फिर परिषद की हैसियत क्या है? संविधान सभा की बहस में आदिवासियों के लिए करुणा, आक्रोश और परेशानी का जज्बा लिए जयपाल सिंह मुंडा की आवाज बीहड़ जंगलों में आदिवासियों द्वारा आज भी सुनी जा रही है। धाकड़ और प्रभावशाली गैरआदिवासी सदस्यों के आत्मविश्वासयुक्त बहुमत का आचरण अब भी बोल रहा है कि आदिवासी कुछ भी कहें, हम वही करेंगे जो हम चाहेंगे। कैसा प्रावधान है कि जिसके लिए कानून रचें वे अपनी समस्याओं की जड़ और बुनियाद भी अपनी सक्षम सलाह देने के बदले राज्यपाल के दरबारे-आम में बैठकर मंत्रि-परिषद की मुगलिया सल्तनत की याद करते रहें?

संविधान में त्रिभुज दिलचस्प है। विधानसभा के सदस्य की हैसियत में विधायक अधिनियम बना, रद्द या संशोधित कर सकता है। विधायकों से बनी मंत्रिपरिषद की राय राज्यपाल पर बंधनकारी है। वही विधायक राज्यपाल की अध्यक्षता की आदिम जाति मंत्रणा परिषद में बैठने से केवल उपदेशों, आदेशों का प्रवचन सुनता है। वह बेचारगी महसूस करता फकत सलाह देगा, जो नहीं मानी जाएगी। तब भी महसूस करेगा कि संविधानसम्मत आचरण कर लिया। ये परिषदें मस्तिष्क नहीं कंधा हैं। उन पर काॅरपोरेटियों की बंदूकें आदिवासियों की छाती छलनी करने लोहा, कोयला और वनोत्पाद को हलाल कर रही हैं। हैरत है कि फिर भी सब संवैधानिक लगता है! देश की आधी आदिवासी जनसंख्या बेघर, बेरोजगार या बदहवास जीवन की जलालत में हैं। पेसा का कानून कहता तो है कि उनकी कला, संस्कृति, जीवन मूल्यों और परंपराओं की रक्षा करेगा। ग्राम सभा का सम्पत्ति पर हक होगा। यह कहां लिखा है कि ग्राम सभा में कलेक्टर और पुलिस अधिकारी जाएंगे। कहां लिखा है निष्पक्ष मीडिया जाकर वीडियोे रिकाॅर्डिंग नहीं कर सकेगा। आदिवासी जीवन इतिहास की बांबी में नहीं है। वह इक्कीसवीं सदी में अपने पुश्तैनी, मूल अधिकारों की जीवंत पहचान मांगता है। यह वक्त आदिवासियों के जीवन के साथ खड़े होने का है।

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