जलियांवाला बाग: सौ साल बाद


तुहिन देब


जलियांवाला बाग के नृशंस हत्याकाण्ड के 100 वर्ष गुजर गए हैं । असंख्य स्वतंत्रता संग्रामी क्रान्तिकारियों के बलिदान से मिली तथाकथित आजादी को भी 74 वर्ष पूरे हो गए हैं । यह भारत के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में 100 वर्ष पूर्व की घटना के विश्लेषण का एक विनम्र प्रयास है ।
प्रथम विश्व युद्ध और भारत
सन् 1914 के बीचोंबीच प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत होती है । दुनिया के बाजार पर कब्जे के लिए साम्राज्यवादी ताकतों के बीच की होड़ और आपसी छीनाझपटी ही विश्व युद्ध का कारण था । जर्मनी के खिलाफ ब्रिटेन द्वारा युद्ध की घोषणा करने के साथ ही भारत जैसे उसके उपनिवेश भी युद्ध की आग से बच नहीं सके थे ।
इस युद्ध की चपेट में भारत स्वेच्छा से नहीं आया था । भारत पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद का शासन होने के कारण यहां की सेना को उनकी तरफ से युद्ध में लड़ना पड़ा था । बहरहाल, इस युद्ध में भारत का योगदान कुछ कम नहीं था । फ्रान्स से लेकर चीन तक विस्तृत रणक्षेत्र में दस लाख से अधिक भारतीय सैनिक लड़े थे । प्रति दस घायल या मृत सैनिकों में एक भारतीय था । इस युद्ध में कुल 17 करोड़ 70 लाख पौण्ड का खर्च आया था और इससे भारत पर राष्ट्रीय ऋण 30 प्रतिशत तक बढ़ गया था, जिसका पूरा बोझ भारत की आम जनता को वहन करना पड़ा था ।
सन् 1914 के दिसम्बर माह में आयोजित कांग्रेस के मद्रास महाधिवेशन में भारत सम्राट और ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति वफादारी प्रदर्शित कर प्रस्ताव पारित किया गया । उस समय महात्मा गांधी गुजरात के खेड़ा में धूम-धूमकर प्रत्येक गांव से कम-से-कम 20 समर्थ पुरुषों को ब्रिटिश फौज में शामिल होने का आह्वान कर रहे थे । उन्होंने जनता के प्रति अपनी अपील को गौरवान्वित और महिमामंडित करने के उद्देश्य से ‘‘साम्राज्य और स्वराज के लिए त्याग करने’’ को कहा था (sacrifice for empire and swaraj) ।
युद्ध के बाद की परिस्थिति और अंग्रेजों का विश्वासघात
प्रथम विश्व युद्ध, जो 1914 से 1918 तक चला था, के अन्त में उत्पादन के क्षेत्र में बड़ी मन्दी छा गई । कल-कारखाने बन्द हो गए, लोगों का रोजगार छीनने लगा — चारों ओर औद्योगिक संकट अपने पंजे फैलाने लगा । ब्रिटिश सरकार ने टैक्स बढ़ा दिया । महंगाई बहुत बढ़ गई । ब्रिटिश साम्राज्य के अनुगत व्यापारियों की तो चाँदी हो गई थी । गरीब जनता की हालत और अधिक खराब हो गई ।
विश्व युद्ध की आग में जबरदस्ती झोंके जाने के कारण और युद्ध के दरम्यान असंख्य भारतीय सैनिकों की मौत ने देशवासियों को आक्रोशित कर दिया था । युद्ध से लौटकर आने वाले सैनिक पहले की तरह अपनी वफादारी ब्रिटिश सरकार के प्रति नहीं दिखा पाए । इधर तुर्की के प्रति ब्रिटिश साम्राज्य का रूख तथा खिलाफत आन्दोलन के सवाल पर भारतीय मुसलमानों में भी अंग्रेजों के प्रति असंतोष फैलने लगा था ।
इधर अंग्रेजों ने विश्व युद्ध के पूर्व भारतवासियों से किए गए सारे वायदे भुला दिए । उसने जनता के अंसतोष को दबाने के लिए प्रशासनिक सुधार के नाम से 1918 में ‘माटेग्यू-चेम्सफोर्ड’ प्रशासनिक सुधार कानून लाया । लेकिन यह असल में स्वायत्त शासन के नाम पर जनता को ठगा जा रहा था ।
स्वायत्त शासन के नाम पर असली सत्ता अंग्रेजों के पास ही रहनी थी । लेकिन इस पहल के प्रति कांग्रेस में एक मोह था । गांधीजी ने इसे सीधे-सीधे नकारने की जगह सहानुभूति के साथ विवेचना करने को कहा था । इसके साथ ही साथ, तीव्र दमन-पीड़न चल रहा था । देशवासियों की अपेक्षा थी कि युद्ध के दरम्यान लागू ‘‘डिफेन्स आफ रियालम एक्ट’’ (Defence of Realm Act) या ‘‘डोरा’’ तथा ‘‘डिफेन्स आॅफ इंडिया एक्ट’’ (Defence of India Act) को युद्ध की समाप्ति के बाद वापस ले लिया जाएगा । मगर ऐसा हुआ नहीं । इन्हीं कानून को कठोरता से लागू करने के लिए ‘रौलेट एक्ट’’ लाया गया, जिससे लोग और भी क्रोधित हो गए । असल में, 1917 में रूस में सर्वहारा क्रान्ति के जरिए दुनिया का पहला समाजवादी देश सोवियत संघ अस्तित्व में आया था । इस अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति का प्रभाव दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों के साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों पर पड़ना शुरू हुआ ।
अंग्रेज, रूस की बोल्शेविक क्रान्ति से उठे तुफान से डरने लगे । ‘मान्टेग्यु-चेम्सफोर्ड’ की रिपोर्ट में कहा गया कि ‘‘रूस की बोल्शेविक क्रान्ति ने भारतवासियों के राजनैतिक चेतना को गहराई से प्रभावित किया है ।’’ ब्रिटिश सरकार के गुप्तचर विभाग के तत्कालिन प्रमुख के. सिसिल ने कहा कि ‘‘इस बात में कोई संदेह नहीं है कि रूस का बोल्शेविकवाद कई देशों के क्रान्तिकारी आन्दोलन को प्रभावित कर रहा है और भारत के क्रान्तिकारी आन्दोलन को तो विशेष रूप से प्रेरित कर रहा है ।’’ इंग्लैण्ड के गृहसचिव मैकफार्सन को सौंपे अपने रिपोर्ट में उन्होंने लिखा है कि ‘‘कई लोगों का मानना है कि उत्तर प्रदेश की किसान सभा और बंगाल की रैयत सभा पूरी तरह बोल्शेविकपंथी हैं । ….. भारतवर्ष में क्रान्ति, लेनिन की चाहत है, लेकिन मुझे लगता है कि लेनिन चाहते हैं भारत मंे विक्षोभ आन्दोलन अपने स्वयं की गति से आगे बढ़े ।’’
ब्रिटिश साम्राज्य विश्व में समाजवाद की अग्रगति से तथा भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन के तेज होने से परेशान था । इसलिए उसने प्रबल दरिद्रता के शिकार और निस्सहाय आक्रोशित जनता के खिलाफ कठोर दमन नीति का सहारा लिया । इसी समय गांधीजी ने सत्याग्रह का आह्वान किया ।
सत्याग्रह और पंजाब
1918-19 में पंजाब में अनावृष्टि (सूखा पड़ने) से किसानों को बहुत नुकसान हुआ । विभिन्न क्षेत्रों में प्लेग बीमारी ने महामारी का रूप ले लिया । 4-5 महीनों में इन्फुएंजा से भी बहुत से लोग मारे गए । साथ ही साथ, कई बहानों से ब्रिटिश सरकार अत्याचार तेज करते जा रही थी । 1913 में माइकल-ओ-डायर के पंजाब के गवर्नर नियुक्त होने के बाद अत्याचार बढ़ता ही जा रहा था । माइकल-ओ-डायर ने पंजाब में लोकमान्य तिलक और विपिनचन्द्र पाल के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया था । ‘न्यू इंडिय’, ‘अमृत बाजार पत्रिका’, ‘इंडिपेंडेट’ सहित कई समाचारपत्रों का प्रसारण पंजाब पर रोक लगा दिया । डायर ने गदर आन्दोलन का निर्मम दमन किया । इन अत्याचारों से पंजाब की जनता का आक्रोष कम होने के बजाय, बढ़ता ही गया । इसी आक्रोश की अभिव्यक्ति सत्याग्रह आन्दोलन में देखने को मिली ।
गांधीजी के आह्वान पर पहले हड़ताल का दिन 30 मार्च 1919 को तय हुआ था । बाद में उसे बदलकर 6 अप्रेल कर दिया गया । भारत में वह समाचार न पहुंचने के कारण, कई जगहों पर जनता ने 30 मार्च को ही हड़ताल कर दिया । अमृतसर में 30 मार्च को पूरे शहर में हड़ताल थी । 35000 लोगों की एक विशाल आम सभा को लोकप्रिय नेता डाॅक्टर सैफुद्दिन किचलू ने सम्बोधित किया और जनता से शान्ति बनाए रखने की अपील की । पंजाब सरकार ने बदले की कार्यवाही करते हुए डाॅ. सत्यपाल एवं डाॅ. किचलू पर आम सभा में बोलने पर प्रतिबंध लगा दिया ।
6 अप्रेल 1919 को पूरे देश में हिन्दू-मुसलमान समेत तमाम समुदायों के लोगों ने एकजुट होकर हड़ताल को सफल बनाया । मजदूर-किसान सहित आम जनता ने बड़े जोशोखरोश से सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लिया । आम हड़ताल से पंजाब का जनजीवन थम-सा गया । बैरिस्टर बदरूल इस्लाम खाँ की अध्यक्षता में अमृतसर में 50000 लोगों की बड़ी आम सभा आयोजित हुई । जनता स्वतःस्फूर्त रूप से और शान्तिपूर्ण तरीके से आन्दोलन में भाग ले रही थी । राष्ट्रीय चेतना के इस नव-जागरण से माइकल-ओ-डायर बहुत परेशान हो गया तथा पंजाब के लोगों को सबक सिखाने के लिए मौका ढूंढने लगा ।
हड़ताल के दिन देश के विभिन्न स्थानों पर आन्दोलनकारियों के साथ पुलिस की झड़प हुई । दिल्ली में पुलिस गोलीचालन से हिन्दू-मुसलमान दोनों सम्प्रदाय को लोग हताहत हुए । गोलीचालन की खबर सुनकर गांधीजी दिल्ली की ओर रवाना हुए, मगर उन्हें रास्ते में ही गिरफ्तार कर मुम्बई भेज दिया गया । गांधीजी की गिरफ्तारी के समाचार से जनता उद्वेलित हो उठी । आन्दोलनरत जनता पर पुलिस ने निर्मम लाठी-चार्ज किया ।
अशान्त पंजाब
आन्दोलन क्रमशः तेज होने लगा । गांधीजी समझ गए कि उनके अहिन्सक सत्याग्रह की लगाम अब उनके हाथ से निकलती जा रही है । अचानक ही उन्होंने तीव्र जन आन्दोलन के ज्वार को रोकने के लिए सत्याग्रह स्थगित करने की घोषणा की । लेकिन जिस तरह वेगवान नदी के जल को रोकना बहुत मुश्किल होता है, उसी तरह तीव्र जन आन्दोलन को रोकना और भी तकलीफदेह हो जाता है । आन्दोलन की तीव्रता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बिना किसी अपराध के लोकप्रिय जननेता डाॅ. सत्यपाल और डाॅ. किचलू को गिरफ्तार करने के आदेश के खिलाफ विद्यार्थियों समेत अमृतसर की जनता ने प्रबल प्रतिरोध किया । पुलिस ने विद्यार्थियों के शान्तिपूर्ण प्रदर्शन पर गोलियां चलाई । जनता ने अपने नेताओं की गिरफ्तारी के खिलाफ अमृतसर के डिप्टी कमिशनर के घर के सामने धरना-प्रदर्शन के लिए जुलूस निकाला । उस जुलूस पर भी पुलिस ने गोलियां चलाई । तब जनता का धैर्य चूक गया और शान्तिपूर्ण जनता उत्तेजित होकर रेल पटरियों को उखाड़ने लगी, टेलीग्राफ के तार काटने लगी तथा बैंक सहित कई सरकार कार्यालयों को आग में भस्म कर दिया ।
अमृतसर में हवाई जहाज से सेना ने आन्दोलनकारियों पर बम फेंके तथा मशीनगन से गोलियों की बौछार की । इससे कई लोग हताहत हुए, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य अमृतसर की जनता को डरा नहीं सका । अमृतसर में फौज उतारी गई । जालंधर फौजी छावनी से एक ब्रिगेड के कमान्डर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर को अमृतसर भेजा गया । उस समय शहर में फौज हर घर में घुसकर तलाशी ले रही थी, जिसे चाहे गिरफ्तार कर रही थी, यातनाएं दे रही थी । अमृतसर पूरी तरह एक फौजी छावनी बन चुका था । फौज ने महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बख्शा ।
11 अप्रेल 1919 की दोपहर को पंजाब चैम्बर आॅफ काॅमर्स के डिप्टी चेयरमेन लाला गिरधारी लाल कपूर कानपुर से कलकत्ता मेल में अमृतसर पहुंचे । उन्होंने देखा कि स्टेशन पर कहीं कोई कुली नहीं है, कोई यात्री नहीं है । चारों तरफ सिर्फ फौज और पुलिस के सिपाही रेल्वे स्टेशन और पटरियों पर पहरा दे रहे हैं । लालाजी बड़ी मुश्किल से फुट ओवरब्रिज तक पहुंचे । वहां भी देखा तो अंग्रेज सिपाहियों का कड़ा पहरा था । वे किसी भी व्यक्ति की पूरी तलाशी लिए बिना शहर में घुसने नहीं दे रहे थे । शहर के बाहरी ओर हर रास्ते हर मोड़ पर रायफल और संगीन लिए फौज और पुलिस तैनात थी । पूरा शहर एक युद्ध क्षेत्र लग रहा था । पूरे अमृतसर में पानी और बिजली की आपूर्ति बन्द कर दी गई थी । ऐसी परिस्थिति में 1919 के 13 अप्रेल को वह खूनी शाम आई ।
खून से सना जलियांवाला बाग
13 अप्रेल 1919 की सुबह जनरल डायर ने सभा-समावेश पर प्रतिबंध लगा दिया । लेकिन प्रतिबंध का समाचार कई क्षेत्रों में नहीं पहुंच पाया । विशेष रूप से शहर के केन्द्र स्थल, स्वर्ण मंदिर क्षेत्र के लोगों को इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी । वह दिन रविवार था, साथ में बैशाखी का दिन था । पंजाब में वैशाखी का त्योहार नई फसल की खुशी में जोरशोर से मनाया जाता है । इस दिन प्रदेश के हर जगह से किसान आकर बड़े शहरों में जुटते हैं । सिक्खों के लिए यह वह पवित्र दिन है जब खालसा का जन्म हुआ था । इसीलिए उस दिन स्वर्णमंदिर और उसके आसपास कितने लोग इकट्ठे हुए थे, उसका हिसाब नहीं है । बहुत सारे तो स्वर्णमंदिर के पवित्र सरोवर में डूबकी लगाने आए थे ।
उस दिन जलियांवाला बाग में हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख, शिशु-वृद्ध-महिला, समाज के समुदाय और उम्र के लोग हाजिर थे । त्योहार मनाने वाली जनता और आम सभा में भाग लेने वाली जनता दोनों एकाकार हो गई थी । उस दिन बीस हजार से अधिक लोग आम सभा में उपस्थित थे, जिनमें से अधिकांश को प्रतिबंध के बारे में जानकारी नहीं थी । उस दिन प्रतिरोध सभा में कोई प्रसिद्ध नेता उपस्थित नहीं था । मंच पर केवल डाॅ. किचलू का चित्र शोभायमान था ।
अपरान्ह 4 बजे जनरल डायर नब्बे रायफलधारी फौजियों को लेकर मार्च करते हुए जलियांवाला बाग की ओर बढ़ने लगा । दो हथियाबन्द गाड़ियां भी उसके साथ थी । बड़ सड़क को छोड़कर एक पगडंडी होकर वे बाग की ओर बढ़ने लगे । बाद में जब उन्हें पूछा गया कि ‘‘आप क्यों तेजी से नहीं बढ़े’’ । उनका जवाब था, ‘‘उस समय बहुत गर्मी पड़ रही थी’’ । शाम को 5 बजे के कुछ देर बाद वे जलियांवाला बाग पहुंचे । असल में जनरल डायर चाहता था कि बाग लोगों से पूरी तरह भर जाए । फौज के वहां पहुंचने से पहले एक हेलीकाप्टर बाग के ऊपर कुछ देर तक चक्कर लगाता रहा । फिर चला गया ।
जनरल डायर बाग में पहुंचकर प्रवेश करने ऊंचे रास्ते पर खड़े हो गए । बाग के उत्तरी दिशा की ऊंची जमीन पर अपने दांयी ओर 25 और बांयी ओर 25 सैनिकों को तैनात कर दिया । घटना की जांच के लिए ब्रिटिश सरकार ने लार्ड हन्टर की अगुवाई में एक जांच आयोग बैठाया था । इस आयोग के समक्ष जनरल डायर ने जो बयान दिया उससे हम उनके मनोभाव को समझ सकते हैं ।
लार्ड हन्टर का सवाल था, ‘‘आप जब बाग में पहुंचे तो आपने क्या किया’’ ?
जनरल डायर का जवाब था, ‘‘मैंने सीधे गोली चलाने का आदेश दिया’’ ।
‘‘तुरन्त’’ ?
‘‘हां, तुरन्त । मैंने पहले थोड़ा सोचा । लेकिन मुझे नहीं लगता कि मैंने सोचने में अपना कर्तव्य तय करने में 30 सेकन्ड से अधिक का समय लिया’’ ।
‘‘क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि गोली चालन से पूर्व आपको जनता को उस स्थान से चले जाने के लिए चेतावनी देना था’’ ?
‘‘नहीं । मैंने जनता को ऐसा कुछ नहीं कहा । मैंने सिर्फ सोचा था कि इन्होंने मेरे आदेश को नहीं माना । इन्होंने सैनिक कानून का उल्लंघन किय है, इसलिए मेरा कर्तव्य है कि अभी इन पर रायफल से सारी गोलियां दाग दूं’’ ।
‘‘आपके गोली चालन का उद्देश्य क्या सिर्फ जनता को तितर-बितर करना था’’ ?
‘‘नहीं महाशय, मैंने सोचा था कि जब तक ये लोग एकदम से हट नहीं जाते तब तक गोलियां चलाई जाए’’ ।
‘‘जब आपने देखा कि जनता क्रमशः भीड़ में से निकलकर भागने लगी तब आपने गोली चलाना बन्द क्यों नहीं किया’’ ?
‘‘मैंने सोचा, जब तक सारे लोग बाग से हट न जाएं तब तक गोलियां चलाते रहूं । यदि मैं कम गोलियां चलाता तो भी गोली चालन को जो आरोप मेरे ऊपर है, वह तो लगता ही’’ ।
असल में जनरल डायर बड़े पैमाने पर जनसंहार करना ही चाह रहा था । पहले गोलियां पैरों पर अधिक चल रही थी, जिसके फलस्वरूप लोग घायल ज्यादा हो रहे थे, मर कम रहे थे । जनरल डायर ने सैनिकों को डांटा, ‘‘ये क्या हो रहा है ? पैरेां को निशाना बनाकर गोलियां क्यों चला रहे हो ? इससे तो सब घायल होंगे, मरेंगे कितने ? जहां भीड़ ज्यादा है, वहीं गोलियां चलाओं । जहां से लोग भागने की कोशिश कर रहे हैं वहां सही निशाने पर गोलियां चलाओ । जहां लोग जमीन पर लेटे हुए हैं, उन सबको गोलियों से भून डालो ।’’
करीब दस मिनट तक गोलियां चली । कुल मिलाकर 1650 राउंड गोलियां चली । सरकारी आंकड़ों के अनुसार 379 लोग मारे गए । करीब 1200 लोग घायल हुए । जालियांवाला बाग के अन्दर पर परित्यक्त कुंआ था । जान बचाने के लिए कई लोग उसमें कूद गए थे । अगले दिन उस कुंए से 10-12 शव निकाले गए । कुछ दिनों बाद जब संड़ान्ध फैलने लगी और लोग परेशान हो गए तब कुंए से करीब 100 शव और निकाले गए । कत्लेआम के बाद जलियांवाला बाग के चारों ओर रात के अंधेरे में सिर्फ हाहाकार, दर्द से कराहने की आवाज और कुत्तों का चिल्लाना सुनाई पड़ता रहा । एक बूंद पानी के लिए लोगों ने तड़पते हुए अपनी जान दी । कफ्र्यु के कारण घायलों को अस्पताल नहीं पहुंचाया जा सका । माताएं अपने घायल बच्चों को सीने से लगाए पूरी रात पानी के लिए रोती-बिलखती रहीं ।
कत्लेआम के बाद
जनरल के डायर के इस बर्बर हत्याकांड को अंग्रेज शासकों ने उल्लास के साथ समर्थन किया । विलायत के प्रशासनिक प्रमुखों से लेकर अंग्रेज पत्रकारों तक, सभी ने डायर के पक्ष में पैरवी करते हुए अखबरों में विज्ञप्ति दी । ब्रिटेन में लोगों ने चन्दे के जरिए 26000 पौण्ड जमा किया और उसकी माला बनाकर जनरल डायर को पहनाया गया । अंग्रेज ही क्यों, भारत में भी कुछ लोग और संगठन उस दिन जनरल डायर के पक्ष में खड़े हुए थे । कट्टर साम्प्रदायिक संगठन ‘पंजाब हिन्दू महासभा’ की भूमिका आज भी हमें शर्मिन्दा करती है । इस संगठन ने रौलेट एक्ट विरोधी सत्याग्रह आन्दोलन में भाग नहीं लिया । केवल यही नहीं, हिन्दू महासभा ने 1919 में पैदा होने वाली जन असंतोष की घोर निन्दा करते हुए ब्रिटिश राज के प्रति अपनी वफादारी प्रदर्शित की । (द पंजाब हिन्दू सेवा एण्ड कम्युनल पाॅलिसिज 1906-23, लेखक – के.एल. टुरेजा)
केवल कुछेक अंग्रेज पादरी व महामति दीनबन्धु एंड्रूज ने इस हत्याकांड की निन्दा की । एंड्रूज को पंजाब में प्रवेश करने की अनुमति नहीं मिली । गांधीजी को भी पंजाब आने की अनुमति नहीं मिली । समूचा भारतवर्ष सहसा मूक हो गया । सारे भारत में लज्जा, अपमान, दुःख, पीड़ा, असहायता का अंधेरा छा गया । उस अंधेरे को चीरते हुए उजाला लेकर आगे आगे कवि गुरू रविन्द्रनाथ ठाकुर ।
जलियांवाला बाग और रविन्द्रनाथ ठाकुर
जलियांवाला बाग जनसंहार का समाचार प्रचारित न हो पाए, इस बारे में अंगे्रज सरकार बहुत सतर्क थी । लेकिन उसी के बीच दो-चार समाचार लोगों तक पहंुच रहा था । जिनता भी समाचार मिला, उससे रविन्द्रनाथ उत्तेजित हो उठे । उस समय समग्र भारत, भारत रक्षा कानून के अंतर्गत था । जलियावाला बाग जनसंहार पर कहीं कोई प्रतिक्रिया दिखाई नहीं पड़ रही थी । देश के नेतागण चुप थे । कलकत्ता में डाॅक्टर निलरतन सरकार, महाकवि की जांच कर पूर्ण विश्राम लेने को कह गए थे । प्रशान्तचन्द्र महलानविश ने अपनी स्मृतियों संजोते हुए लिखा है — ‘‘कवि का शरीर इतना कमजोर हो गया है कि दूसरे माले से तीसरे माले में चढ़ने में बहुत तकलीफ होती है । पूरा दिन एक लम्बे सी कुर्सी में सोए रहते हैं । लिखना बन्द हो गया था । बहुत कम बात करते थे । हंसी-ठठ्टा तो बिल्कुल नहीं । पंजाब की खबर पाकर ऐसी हालत में भी कवि अस्थिर हो उठे । एंड्रूज साहब को बुलवा भेजा । पंजाब मंे इतनी बड़ी घटना घटी है और पूरे भारत में एक भी व्यक्ति प्रतिवाद नहीं करेगा, ये बात कवि के लिए असहनीय थी । उन्होंने दीनबन्धु एंड्रूज को महात्मा गांधी के पास एक संदेश देकर भेजा । उस समय बाहर से पंजाब में किसी के प्रवेश करने पर प्रतिबंध था । कवि की इच्छा थी कि यदि महात्मा गांधी राजी हों तो दिल्ली में आकर वे उनसे मिलेंगे । वहां से दोनों पंजाब में प्रवेश करने की कोशिश करेंगे । ऐसे करने पर इन दोनों की गिरफ्तारी ही इनका प्रतिरोध होगा ।
एंड्रूज, महात्मा गांधी से मिलकर रविन्द्रनाथ ठाकुर के घर आए और कहा कि गांधीजी अभी पंजाब जाने के लिए इच्छुक नहीं हैं क्योंकि वे अभी सरकार को परेशान करने के पक्ष में नहीं हैं । यह सुनकर कवि एकदम चुप हो गए । इस बारे में एक शब्द भी नहीं बोले ।
गांधीजी की ओर से आशानुरूप प्रतिक्रिया न पाकर, कवि एक प्रतिवाद सभा के आयोजन का प्रस्ताव लेकर कई लोगों के पास गए । लेकिन हर जगह से निराशा हाथ लगी । तब कवि समझ गए कि जो कुछ करना है उन्हें ही अकेले करना होगा । बाद में ‘नाइटहुड’ का खिताब लौटाने का कारण बताते हुए कवि ने लिखा है कि ‘‘मैं यह करने को मजबूर था क्योंकि जो पंजाब में घटा है उसका प्रतिवाद करने के लिए हमारे राजनैतिक नेताओं में मुझे निराश किया’’ (मार्डन रिव्यू, फरवरी 1926, पृष्ठ 158) ।
1919 के 30 मई को ‘सर’ का खिताब लौटाने के लिए लार्ड चेम्सफोर्ड को कवि रविन्द्रनाथ ने पत्र लिखा । उस ऐतिहासिक पत्र की हर पंक्ति में इस राष्ट्रीय अपमान और पीड़ा की गहन अन्तर्वेदना उभरकर आती है । कितने मर्माहत होकर कवि ने ‘नाइटहुड’ त्यागने का निर्णय लिया था, यह उस पत्र को पढ़कर हम आसानी से समझ सकते हैं ।
नाइटहुड त्यागने की प्रतिक्रिया
कवि के नाइटहुड खिताब त्यागने का समाचार प्रकाशित होते ही देश-विदेश में प्रबल प्रतिक्रिया देखने को मिली । नेपाल मजूमदार ने लिखा है — ‘‘उस समय के घोर दुर्योग के अंधकार में देशवासियों के सारे अपमान की कालिमा को कवि ने पूरा अपने अकेले के ऊपर लगा लिया । रविन्द्रनाथ के इस प्रतिवाद पत्र ने उस समय तमाम देशवासियों के सीने में जो आशा-भरोसा और साहस का संचार किया, कितने विपुल स्वजात्यबोध और आवेग की सृष्टि की, उसे बोलकर अभिव्यक्त कर पाना सम्भव नहीं है । केवल इस एक प्रतिवाद के माध्यम से ऐसा लगा मानो भारतीय जनता ने विश्व के दरबार में अपने लिए न्याय और प्रतिकार की मांग की हो ।’’
रविन्द्रनाथ द्वारा ‘नाइटहुड’ की उपाधि लौटाने की बात ने साहित्यकार शरतचन्द्र के अन्तर्मन को भी हिला दिया था । उन्होंने कहा कि देश की वेदना के बीच अकेले रविबाबू ही हमारी लाज रखे हैं । बंगाल के साहित्यकार रामेन्द्र सुन्दर त्रिवेदी उस समय मृत्यु शैय्या पर थे । उन्होंने रविन्द्रनाथ से मिलने की अपनी अंतिम इच्छा जाहिर की । कवि उनसे मिलने गए । रामेन्द्र सुन्दर ने कहा कि आप भारतीय जनता के विवेक हैं और उनके पैरों की धूल को माथे से लगा लिया । चार दिन बाद उनकी मृत्यु हुई ।
आश्चर्य की बात है कि देश के प्रसिद्ध नेतागण इस मसले पर चुप्पी साधे हुए थे । महात्मा गांधी ने 6 जून 1919 को श्रीनिवास शास्त्री को लिखे पत्र में कविगुरू को प्रोत्साहित करने के बजाय, हतोत्साहित किया । पत्र में उन्होंने लिखा कि ‘‘कवि की ओर से भेजा गया एक ज्वलंत पत्र पंजाब के आतंक को बढ़ा रहा है । मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि यह एक अपरिपक्व कदम है, लेकिन इसके लिए उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता ।’’ पंजाब में मार्शल लाॅ और कत्लेआम के बाद लम्बे समय से अंग्रेजों द्वारा देशवासियों को ‘‘सीने के बल घिसट-घिसटकर रास्ता पार करने’’ जैसे घृणित, अपमानजनक दण्ड दिया जा रहा था । मगर इसके खिलाफ राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा बिल्कुल भी विरोध नहीं किए जाने से कवि बहुत व्यथित थे । इसीलिए अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन में जब जलियांवाला बाग स्मृति स्तम्भ निर्माण का प्रस्ताव पारित हुआ तो कवि ने काफी दुःख और क्षोभ से कहा कि ‘‘मैं, उत्पीड़न कितना भी कठीन हो, सहूंगा, लेकिन अपमान, अवमानना बिल्कुल नहीं सहूंगा — पंजाब की ऐसा पौरूष वाणी सुनने की मेरी आशा थी । किन्तु जब नहीं सुना, तब सबसे पहले हमें खुद को ही धिक्कारना है’’ (शांतिनिकेतन पत्रिका, 1930, वैशाख, प्रथम अंक, पृष्ठ 65-66) । असल में पूरे देशवासियों समेत कवि को यह अपेक्षा थी कि अमृतसर में कांग्रेस के अधिवेशन में ब्रिटिश साम्राज्य की बर्बरता के खिलाफ तीव्र निन्दा सूचक प्रस्ताव पारित किया जाएगा । मगर ऐसा नहीं हुआ । रविन्द्रनाथ के गहरे दुःख के बावजूद, कवि के नाइटहुड त्यागने और ब्रिटिश साम्राज्य को प्रतिवाद पत्र भेजने की घटना को तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व द्वारा तनिक भी सम्मान या स्वीकृति नहीं दी गई । अमल होम के बहुत प्रयास करने के बावजूद, इस महान काम के लिए अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन से कविगुरू के नाम कोई धन्यवाद ज्ञापन तक नहीं दिया गया ।
लेकिन जहां चोट लगनी थी, वहां जरूर लगी । सात वर्ष पूर्व कवि जब इंग्लैण्ड गए तो वहां उनके व्यक्तित्व के आकर्षण से सुधी समाज के कई लोग उनके प्रशंसक बन गए थे । लेकिन नाइटहुड त्यागने के बाद उनमें से कई लोगों ने अपना मुंह फेर लिया । कवि ने इस बारे में मैत्रीय देवी को कहा था — ‘‘इस बात से इंग्लैण्ड में मेरे मित्र काफी अपमानित महसूस कर रहे थे । मैंने इंग्लैण्ड में इस बार जाकर देखा कि वे मेरे नाइटहुड त्यागने की बात भुला नहीं पा रहे हैं । असल में, अंग्रेज राजभक्त हैं, इसीलिए उनके राजा द्वारा दिए गए सम्मान को जब मैंने लौटाया तो उन्हें बड़ी चोट पहुंची ।’’
और सौ साल बाद
एक दिन किशोर भगत सिंह ने जलियांवाला बाग में खून से सने मिट्टी को माथे पर लगाकर देश से ब्रिटिश साम्राज्य के खात्मे की शपथ ली थी । सौ वर्ष पूर्व की उस नृशंसता के गवाह थे बालक उधम सिंह । उस घटना के 21 वर्ष बाद उस बालक ने 14 मार्च 1940 को लंदन में इंडियन एशोसिएशन की एक सभा में पंजाब के भूतपूर्व गवर्नर सर माइकल-ओ-डायर को गोली मारकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी की । लंदन की अदालत मंे शहीद उधम सिंह ने कहा था — ‘‘सर माइकल को यह सजा मिलनी ही थी । मुझे इसकी परवाह नहीं है कि मेरे साथ क्या होता है । मैं मरने से नहीं डरता । मैंने अपने देश के लिए मृत्यु को गले लगाया है । जलियांवाला बाग की घटना से जो समूचे भारत को भीषण दर्द व तकलीफ सहना पड़ा था, शहीद उधम सिंह के बलिदान ने उस जख्म पर कुछ मरहम लगाया था ।
सौ वर्ष पश्चात जलियांवाला बाग के सामने बनाया गया शहीद स्तम्भ, बांग की दीवारों पर आज भी बने गोलियों के निशान, वह अंधा कुंआ सब, अंग्रेज सरकार की उस दिन की बर्बरता के गवाह हैं । जलियांवाला के उस बाग और संग्रहालय में जाने से इतिहास जीवन्त हो उठता है । 1936 में मुरिएल लिस्टर ने यहां आकर लिखा था — ‘‘यहां एक घण्टा बिताना तपस्या करने की तरह है ।’’ और एक अंग्रेज डोनल्ड डी कनिंधम ने 1938 में जलियांवाला देखने के बाद लिखा — ‘‘मैं इस जगह को देखने के बाद मेरी कौम के लिए शर्म से मरा जा रहा हूं । मुझे ऐसा लगता है कि प्रत्येक भारतीय मेरी तरफ देखकर ऐसा सोचते हैं कि मैं भी जनसंहार करने वाली ब्रिटिश कौम का एक हूं । मैं सिर्फ आशा करूंगा की यह महान बलिदान साम्राज्यवाद के घृणित व्यवस्था को खत्म करे ।
साम्राज्यवाद की घृणित व्यवस्था का आज तक खात्मा नहीं हुआ । आज शायद उसका रूप बदला हो, लेकिन उसकी मानवता विरोधी लूट और नफरत आज भी विश्वव्यापी है । भारत में आकर अमृतसर में जाकर भी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री या वहां के राजा-रानी ने लिस्टर और कनिंधम की तरह भारत की जनता से आज तक क्षमायाचना नहीं किया है । न ही भारत का दलाल शासक वर्ग ने आज तक ब्रिटिश सरकार से जलियांवाला बाग के जुल्मों के लिए क्षमायाचना की मांग की है । आज ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जगह ले ली है दुनिया की जनता का एक नम्बर दुश्मन अमेरिकी साम्राज्यवाद ने । उसकी अगुवाई में साम्राज्यवादी ताकतें दुनिया भर में साम्राज्यी लूट के लिए जंग और जनसंहार किए जा रहे हैं । जब तक साम्राज्यवाद मौजूद है, स्थाई शान्ति दूर की कौड़ी है ।
बहुत दुखदायी होने पर भी यह एक वास्तविकता है कि हजारों-हजार क्रान्तिकारियांे, देशवासियों के बलिदान के बावजूद हमें सच्ची आजादी आज तक नहीं मिली । 1947 में सत्त के हस्तांतरण के जरिए साम्राज्यवाद के देशीय दलाल भारत को लूटते रहे हैं । और अब शहीदों के सपनों को रौंदकर देश को एक असहिष्णु, बहुसंख्यकवादी हिन्दू राष्ट्र बनाने की ओर संघी-कारपोरेट फासीवादी गिरोह ले जा रहे हैं । 1947 के बाद से ही एक के बाद एक सत्ताधारी वर्ग ब्रिटिश राज के रौलेट एक्ट की तरह मीसा, आफ्सपा, टाडा, पोटा और फिर यूएपीए जैसे निरंकुश कानूनों के जरिए जनता की मौलिक आजादी को छीनते आ रहे हैं । इस मामले में क्या कांग्रेस, क्या भाजपा और क्या अन्य संसदीय दल, सबकी सोच एक समान है । सभी चाहते हैं कि जनता बिल्कुल सवाल न करे और सब कुछ सहन करती रहे । इस स्वाधीन भारत में नागरिक को यह साबित करना होता है कि वह राजसत्ता के लिए खतरा नहीं है । समाचार माध्यमों की आजादी को तो पहले ही खत्म कर दिया गया है, जनता के पक्ष में आवाज उठाने वाले विद्यार्थी हो या बुद्धिजीवी हो (नताशा, देवांगना हो या सुधा भारद्वाज हो) या फिर प्रशांत भूषण के जैसे जन पक्षधर वकील हो, अभिव्यक्ति की आजादी इन सबके लिए बेमानी है । इससे भी अगर बात न बने तो धर्म-विरोधी, देशद्रोही या राष्ट्र-विरोधी का ठप्पा लगाकर डाॅ. नरेन्द्र दाभोलकर, कामरेड गोविन्द पन्सारे, डाॅ. एम.एम. कलबुर्गी या गौरी लंकेश बनाकर दीवार पर चित्र टंगवा दो ।
आज जलियांवाला के सौ वर्ष बाद, जिन हिन्दू महासभा ने हत्यारे जनरल डायर की तारीफ की थी, उसी के उत्तराधिकारी पिछले छह वर्षों से भारत की सत्ता में बैठकर भारत के संविधान, गंगा-जमुनी तहजीब को तार-तार कर शहीद भगत सिंह-शहीद उधम सिंह-दुर्गा भाभी व शहीद प्रीतिलता वाद्देदार की स्मृतियों के साथ राष्ट्रीय विश्वासघात कर रहे हैं । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद की प्रेरणा से और उनके दलाल देशीय राजा-महाराजाओं और जमीन्दारों के तत्वाधान में स्थापित हुआ था, ने न केवल रौलेट एक्ट विरोधी सत्याग्रह आन्दोलन ही बहिष्कार नहीं किया था, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में इन्होंने कभी भाग ही नहीं लिया । यही नहीं, उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की मदद करके भारत के स्वतंत्रता संग्राम की पीठ में छूरा भोंका था । इनके गुरु गोलवरकर के अनुसार, अंग्रेज भारत के दुश्मन नहीं थे, बल्कि कम्युनिस्ट और मुसलमान दुश्मन थे ।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा लागू ‘फूट डालो, राज करो’ नीति से उत्पन्न साम्प्रदायिकता की जहरीली हवा से आज भारत का दम घुंट रहा है । ऐसा लगता है, समूचा भारतवर्ष जैसे जलियांवाला बाग बन गया है । साफ हवा के लिए आज जरूरत है शहीद भगत सिंह, शहीद उधम सिंह, शहीद करतार सिंह सराभा जैसे नौजवानों की । आज जरूरत है अंध-राष्ट्रवाद विरोधी मानवतावादी कवि रविन्द्रनाथ ठाकुर के ओजस्वी प्रतिवाद की । और इसलिए सौ वर्ष के बाद भी हम जलियांवाला बाग की स्मृतियों को मन में संजोए हुए हैं ।
संदर्भ

  1. स्वाधीनता संग्राम – विपनचन्द्र, अमलेश त्रिपाठी, वरूण दे
  2. जलियांवाला बाग: 13 अप्रेल 1919, प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार
  3. भारते जातीयता ओ अन्तरजातीयता एवं रविन्द्रनाथ (द्वितीय खण्ड), नेपाल मजूमदार (बांग्ला)
  4. भारत के मुक्ति संग्राम में मुस्लिम योगदान, शांतिमय राय
  5. जलियांवाला बाग – निर्मलचन्द्र गांगुली (बांग्ला में)


तुहिन देब

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