हत्यारी लाइव डिबेट और आँखीदास की आँखोंदेखी के निशाने
बादल सरोज
एक टीवी डिबेट में एक राजनीतिक दल के प्रवक्ता की लाइव मौत (दरअसल वह हत्या थी) और उसमे टीवी एंकर की साफ़ दिख रही लिप्तता ने इस तरह की बहसों के इरादों और औचित्य के बारे में एक नयी बहस शुरू कर दी है। कांग्रेस प्रवक्ता राजीव त्यागी को संघनिष्ठ भाजपाई संबित पात्रा ने गाली-गलौज करके निजी तौर पर आहत कर इतना ज्यादा आघात दिया कि वे कैमरों के सामने ही हृदयाघात से चल बसे। सत्ता द्वारा रोपे जा रहे विषाक्त बीजों को खाद-पानी देना और जहरीली खेती को लहलहाना — इन दिनों कथित मुख्यधारा के लग्गु-भग्गू मीडिया का मुख्य काम बन गया है और इसे अमुक या तमुक, अलाने या फैलाने एंकर तक महदूद करके देखना सही नहीं होगा। यह मौजूदा शासक समूह की महा-परियोजना का हिस्सा है। दिखाऊ और छपाऊ मीडिया उसका एक बड़ा साधन भर है। खबरों और प्रस्तुति में तथ्याधारित और तार्किक निष्पक्षता बरतने के मुखौटे तो पहले ही उतारकर जलाये जा चुके थे। इस तरह की बहसों में किसी का पक्ष न लेते हुए एक तटस्थ समन्वयक, रैफरी और अंपायर की भूमिका की कपालक्रिया हुए अरसा बीत चुका है। सारी लोक लाज त्याग कर ज्यादातर मीडिया का भेड़ियों का अभयारण्य बन जाना एक नयी आम बात – न्यू नार्मल – है।
“पूँजीवाद को लोगों के लिए माल ही नहीं – माल के लिए लोग भी तैयार करने होते हैं” की तर्ज पर कहें, तो उसे एक ख़ास तरह का बर्बर मनुष्य और हिंसक समाज बनाना होता है। हिटलर के कन्सन्ट्रेशन कैम्प्स को मानव देह के अंगों का उद्योग बनाने की वारदातें बताती हैं कि बर्बरता हमेशा अकूत मुनाफे का पासवर्ड होती है। किन्तु सारी ताकतें हासिल कर लेने के बाद भी पूंजी के हिंसक और बर्बर रूप के सामने सबसे बड़ी मुश्किल मनुष्य समाज होता है। सदियों की परवरिश और संचित मूल्यों के चलते मनुष्य स्वभावतः हिंसक नहीं होता। इसीलिए उसे ऐसा बनाना उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता बन जाता है। लिहाजा सिर्फ राजसत्ता ही नहीं — ग्राम्शी जिसे पूरक राजसत्ता कहते थे, वह उस काम में झोंक दी जाती है, जिसे नॉम चॉम्स्की ने “सहमति का उत्पादन” (मैन्युफैक्चरिंग कन्सेंट) बताया है। यह खालिस भारतीय विशेषता नहीं है। फासिस्ट बरत कर देख चुके हैं – ट्रम्प से लेकर बोल्सोनारो तक बरत रहे हैं। हिटलर को आदर्श और मुसोलिनी को आराध्य मानने वाले आरएसएस की बढ़त का तो यह प्रमुख जरिया ही रहा है।
धीमे जहर की तरह-तरह की खुराकों से वे मनुष्य और समाज के सोचने और बर्ताब के तौर तरीकों को नए स्वभाव में ढालने की साजिशें रचते और अमल में लाते रहते हैं। देखते-देखते भारतीय मानस में सीता के साथ सहज मुद्रा में खड़े तुलसी के सियाराम को पहले “जय श्रीराम” के युद्ध घोषी नारे और फिर भृकुटि ताने प्रत्यंचा खींचे उग्र राम में बदल देना, मिथकों में वर्णित खिलंदड़े और विनोदी हनुमान को एक उग्र, हिंस्र भाव वाले कुरूप ग्राफिक में तब्दील कर देना — इसी का हिस्सा है। राष्ट्रीय नायकों के जीवनचरित को बिगाड़ कर गप्पें गढ़ना इसी का पहलू है। माफीनायक पर वीरत्व का आरोपण इसी का नमूना है। इसके लिए वे झूठ की नयी कहानियाँ ही नहीं रचते, नयी वर्तनी भी गढ़ते हैं। नेहरू हों या नामों के आगे मुल्ला जोड़ना हो या जैसा तीन दिन से कुछ अमरीकी टीवी चैनल्स में उपराष्ट्रपति की नामित उम्मीदवार कमला हैरिस के नाम का नस्लवादी घृणा के साथ लिया जाना हो ; नए स्वाद में धीमे जहर की अगली खुराक ही है।
उन्हें जल्दी है। वे सोच, व्यवहार और स्वाभाविक प्रतिक्रिया यानि प्रत्युत्पन्नमति पर कब्जा कर लेना चाहते हैं। इसके लिए जरूरी है सूचना और जानकारी के, विश्लेषण और विवेचना के हर स्रोत पर नियंत्रण कायम किया जाये। वास्तविक के साथ आभासीय मीडिया को भी हथियाया जाये। एक लगातार मारता रहे और दूसरा बीच-बीच में पानी पिलाने की पाखंडी निष्पक्षता को भी खूंटी पर टांग दिया जाए। फेसबुक की पक्षधरता को लेकर हुए पर्दाफ़ाश में यही सच्चाई वॉल स्ट्रीट जर्नल की विशेष खबर में सामने आ गयी। फेसबुक की तरफ से दावा किया जाता रहा है कि नफरती बोलवचन और अभियान के खिलाफ उसकी एक स्पष्ट नीति है। वह इसे बर्दाश्त नहीं करते। ऐसा करने वालों के एकाउंट्स सस्पेंड कर दिए जाते हैं। फेक न्यूज़ फैलाने वालों को भी प्रतिबंधित कर दिया जाता है। लेकिन सबको ताज्जुब होता था कि इस स्वघोषित नीति के बाद भी फेसबुक भारत के हिन्दुत्वी कट्टरपंथियों के विषवमन और मुसलमानों तथा दलितों के खिलाफ़ आग उगलने वालों पर कार्यवाही नहीं करता। इसके उलट पिछले कुछ वर्षों से एल्गोरिथम में छेड़छाड़ करके, तर्क और तथ्यों के साथ वास्तविकता सामने लाने वालों की पहुँच को सीमित कर दिया जा रहा था।
वाल स्ट्रीट जर्नल ने इसका रहस्य उजागर किया, जिसे फेसबुक के आधिकारिक प्रवक्ता एंडी स्टोन ने भी स्वीकारा कि यह सब फेसबुक की इंडिया पालिसी की हेड आँखी दास के निर्देश पर किया जा रहा है। अख़बार के मुताबिक आँखी दास ने तेलंगाना के बीजेपी विधायक टी.राजा सिंह की मुस्लिमों के ख़िलाफ़ हिंसा भड़काने वाली एक डायरेक्ट एक्शन मार्का पोस्ट पर हेट स्पीच का नियम लगाने से फेसबुक अधिकारियों को रोक दिया था। उन्होंने राजनीतिक फायदे-नुकसान का हवाला देते हुए फेसबुक के अधिकारियों से कहा कि ऐसा किया, तो भारत में कारोबार मुश्किल हो जाएगा। आँखी दास भारत में फेसबुक के मार्क ज़ुकरबर्ग के धन्धों की दलाली (लॉबिंग) का भी काम देखती हैं। जो उनका और ज़ुकरबर्ग का धंधा है, वही धन्धा इधर वालों का भी है। बताते हैं कि फेसबुक की भारत की आँख आँखी दास की बहन रश्मि दास जेएनयू में आरएसएस के छात्र संगठन एबीवीपी की अध्यक्ष रही हैं और इस परिवार के संघ से रिश्ते बहुत घनिष्ठ रहे हैं। इस लिहाज से आँखी दास की भूमिका के पीछे सिर्फ धन्धा ही नहीं और भी कुछ था, जो गन्दा था।
वे मिलजुलकर दिमागों पर कब्जा कर, उन्हें प्रदूषित करना चाहते हैं। जहर पैदा करने के मामले में उन्हें आत्मनिर्भर बना देना चाहते हैं। बर्बरता में उर्वर और अमानवीय बना देना चाहते हैं। इसके आयाम अनेक हैं। लालकिले से दिए भाषण में हजारों प्रवासी मजदूरों और सैकड़ों कोरोना मौतों के प्रति संवेदना और इसके चलते बेरोजगार हुए 14-15 करोड़ भारतीयों के प्रति सहानुभूति का एक भी शब्द न उच्चारना इसी का विस्तार है। इन आयामों का एक निशाना स्त्री है, जो सुशांत सिंह की आत्महत्या के बाद से पूरे घिनौनेपन के साथ उघाड़ी और दुत्कारी जा रही है। कला है, शिक्षा है, किताबें हैं, नागरिक अधिकार आंदोलन के कार्यकर्ता हैं, बुद्धिजीवी है, धर्मनिरपेक्षता है, संविधान है। मजदूर, किसान और कम्युनिस्ट तो पहले से थे ही। डराकर चुप्प कर देने की इस मुहिम में अब फिल्म उद्योग के महेश भट्ट, अनुराग कश्यप, नसीरुद्दीन शाह से लेकर तापसी पन्नू, आलिया भट्ट, भास्कर और दीपिका पादुकोण जैसे अराजनीतिक सेक्युलर और डेमोक्रेट्स और खान होने के चलते शाहरुख – आमिर – सलमान भी आ गए हैं, जिनके पीछे कंगना राणावत को छू बोलकर पूरी संघी आईटी सैल को भिड़ा दिया गया है।
लाइव डिबेट में राजीव त्यागी की मौत और वॉल स्ट्रीट जर्नल में मीडिया की आपराधिक संलग्नता की पोस्टमॉर्टेम रिपोर्ट के साथ कोरोना काल में 20 अरब डॉलर से 57.4 अरब डॉलर तक जा पहुँची अम्बानी की दौलत का बहीखाता पढ़ने से हुक्मरानों की नीयत पूरी तरह से साफ़ हो जाती है। वे चुनौतियां भी साफ़ हो जाती हैं, जो बताती हैं कि संघर्ष के – वर्ग संघर्ष के – इन दोनों बड़े मोर्चों पर एक साथ ही लड़ना होगा। मीठे जहर और विषाक्त बीजों की खेती के साथ-साथ उसे खाद-बीज-पानी देने वालों को भी बेनकाब करते हुए बढ़ना होगा। इनमे से किसी एक की अनदेखी की या उसे कम आंका, तो मोर्चा फतह करना दुष्कर हो जाएगा।
(बादल सरोज पाक्षिक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं )