बिना आग लगे ही लुप्त होते हमारे अपने अमेज़न
(आलेख : बादल सरोज)
धूं धूं करके जल रहा है अमेज़न का जंगल । बिजली की रफ्तार से फैल रही है आग ।
लैटिन अमरीका के 8 देशों में कोई 20 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले अमेज़न के रेन-फारेस्ट को पृथ्वी का फेंफड़ा कहा जाता है। दुनिया की 20 प्रतिशत सांस इसकी दम पर चलती है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक यह वर्षा-वन सप्ताह भर से लगातार जल रहा है। आग थमने की बजाय फैलती जा रही है। अमेज़न के जंगलों का ज्यादातर हिस्सा ब्राजील में पड़ता है। ब्राजील के राष्ट्रपति हाल में हुए चुनावों में हर संभव असंभव तिकड़म और धोखाधड़ी आजमा कर जीते कारपोरेट प्यादे, ट्रम्प के चहेते और मुरीद जैर बोलसानारो हैं। इस आग – जिसे ठीक ही एक वैश्विक आपदा कहा जा रहा है – के बारे में दुनिया भर में उठे शोर को वे “राजनीति” मानते हैं। इन चिंताओं को तकरीबन धिक्कारते हुए वे कहते है कि “उनका काम जंगल मे आग की पूर्व चेतावनी देना या सुनना नही है । उनका काम अमेज़न की आग बुझाना नही है ।” बोलसानारो “राष्ट्रवादी” है । राष्ट्रवाद की दुन्दुभि बजाकर उन्होंने चुनाव लड़ा था। दुनिया भर में बिखरे अपने जैसे बाकी राष्ट्रवादियों की तरह वे भी कारपोरेट मुनाफे को राष्ट्र मानते हैं। उसे ताबड़तोड़ बढ़ाने को राष्ट्रधर्म समझते हैं और ट्रम्प वाले अमरीका को सकल ब्रह्माण्ड का एकमात्र ईश्वर स्वीकार करते हैं। अब भला उनके लिए अमेज़न बड़ा या कारपोरेटी मुनाफो पर टिका राष्ट्रवादी काम !!
ब्राजीलियो का कहना है कि अमेज़न खुद नही जला उसे जलाया गया है । बोलसानारो की ताजपोशी करवाने के बाद अब कार्पोरेट्स को अपना बढ़ा हुआ हिस्सा चाहिए। प्राकृतिक सम्पदा और खनिजों से भरी अमेज़न की जमीन चाहिए । इधर लगातार गर्म होती जा रही, तपती हुई दुनिया मे ग्लोबल वार्मिंग की चिंता पसरी हुयी है। इसलिए जंगल कटवाने पर चिल्लपों मच सकती है, सो आग की आड़ जरूरी है । वामपंथी राष्ट्रपति इवो मोरालेस ने अपने देश बोलीविया के हिस्से में आयी आग को बुझाने के लिए बोइंग 747 का आग बुझाने वाला सुपर टैंकर बुलवा कर काम पर लगा भी दिया है मगर बोलसानारो का अभी भी इसे एक रूटीन आग मानना और कुछ भी करने को तैयार नहीं होना ब्राज़ीलियों की इस धारणा की पुष्टि ही करता है।
हमारे वाले देेेसी बोलसानारो तो इस फालतू की दिखाऊ हया शरम से भी ऊपर वाले हैं। यहां वन और प्रकृति पहले से ही दोहन का शिकार थी। पिछली तीस सालों में भारत के 14 हजार वर्ग किलोमीटर में फैले जंगल गायब हो गए। यह आधिकारिक आंकड़ा है। कोई 23716 औद्योगिक परियोजनाओं के नाम पर हुए वन-संहार के बाद भारत की जंगल छाया घटकर 21. प्रतिशत ही रह गयी है। मोदी राज में यह रफ़्तार और तेज हुयी है। लोकसभा में दिए एक जवाब के अनुसार पिछली चार सालों में ही सरकार ने “विकास के लिए” 1 करोड़ 9 लाख 75 हजार 844 वृक्ष काटने की “अनुमति” दी है। बस्तर से मण्डला, सिंहभूम से रांची, हिमालय से विन्ध्य, नर्मदा से सिंध तक बिना आग लगाये ही जंगल जमीन, जलस्रोत और उनमे बसे जन सब कारपोरेट के मोटा भाइयों के हवाले किये जा रहे हैं । मोदी के पिछले कार्यकाल में पॉवर और कोयला खनन के लिए वन और तटीय क्षेत्रों में सारे नियमो, प्रतिबंधों को बलाये ताक रखकर धड़ाधड़ मंजूरियां दी गयी। नाजुक वन्य जीव अभयारण्यों तक में ऐसी इजाजतें दी गयीं। आदिवासियों के कब्जे वाली जमीनों को बड़ी कंपनियों को सौंपा जा रहा है। इसके लिए वनाधिकार क़ानून, अनुसूचित जनजाति क़ानून, वन्य प्राणी क़ानून का सीधे सीधे उल्लंघन किया गया। पर्यावरणीय दुष्प्रभावों को आंकने वाली ईआईए को कारपोरेट के फायदे के लिए नख-दंतविहीन कर दिया गया। इस तरह प्राकृतिक संसाधनों के लुटेरे शोषण तथा पर्यावरण के घनघोर विनाश के लिए सारे दरवाजे चौपट खोल दिए गये।
इसके दूरगामी पर्यावरणीय असर बदलते मौसम में दिखने भी लगे है। हाशिये पर पड़े तबकों, वनवासियों, आदिवासियों, मछुआरों आदि की जिंदगियों और आजीविकाओं पर सीधा असर तो दिखने भी लगा। अकेले छत्तीसगढ में पहाड़ी कोरबा जनजाति लगभग लुप्त हो चुकी है । दोरला जनजाति विलुप्ति के कगार पर है । इस प्रदेश में 61% हर्बल पौधे हैं जिनमे से 58 विलुप्ति की कगार पर हैं । औसत बारिश में 88 मि मी की कमी आ चुकी है । कुल 8 जिले ड्राय जोन में आ चुके हैं और ठण्ड में एक डिग्री सेल्शियस कम हो चुकी है । इन आंकड़ों की प्रभावशीलता संख्या में नही उसके असर में देखी जानी चाहिए । आधा डिग्री सेल्शियस तापमान बदलने से संतरे की मिठास गायब हो जाती है और डेढ़ डिग्री के फर्क से पूरा संतरा ही गायब हो जाता है । छग और मध्यप्रदेश में सुगंधित और विशिष्ट धान की कई क़िस्मों का कालातीत हो जाना इसी जलवायु परिवर्तन का प्रताप ही ।
विडम्बना यह है कि सर्वोच्च न्यायालय को भी वनो के विनाश का यह जाहिर उजागर रूप नहीं दिखता। उसे पीढ़ियों से इन जंगलों में रह रहे कोई सवा करोड़ आदिवासी ही अतिक्रामक नजर आते है और वह जानबूझकर अनुपस्थित रहे सरकारी वकीलों की गैर मौजूदगी में ही इन्हे फ़ौरन से पेश्तर उनकी बसाहटों से बेदखल करने का निर्णय – जिसके विरुध्द की गयी अपील पर अभी सुनवाई चल रही है – सुना देता है। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से बेदखल होने जा रही आदिवासी आबादी पूरे अमेज़न में बसे 2 करोड़ की आधी से अधिक है । इसमें दो राय नहीं कि इन सबको वनो से बाहर करने के बाद वहां क्या होने वाला है। जिन्हे कोई शक है उन्हें मोदी-02 के 100 दिन की थेरैपी और उसके तहत उठाये जा रहे कदमें में झाँक लेना चाहिए। उनका इरादा बची खुची हरियाली का चूरन बनाकर अपने चुनावी फाइनेंसरों का हाजमा दुरुस्त करना है ताकि ढंग से भोग लगाया जा सके । इस जीत के बाद से तो अब जैसे बाकी लाज शर्म भी त्याग दी गयी है।
पुनर्वनीकरण -जंगलों को फिर से उगाना – भी सत्तारूढ़ राजनेताओं के लिए एक विराट भ्रष्टाचार का जरिया बनकर रह गया है। अव्वल तो सैकड़ों सदियों में प्राकृतिक रूप से उगे और विकसित हुए वनों की भरपाई हो ही नहीं सकती। पौधारोपण और पुनर्वनीकरण (अफॉरेस्टेशन) हद से हद थोड़ी बहुत हरीतिमा उगा सकता है – जंगल नहीं। मगर उसमे भी किस तरह का मजाक और धांधलियां है यह 5 जुलाई 2017 को मध्यप्रदेश में भाजपा सरकार द्वारा महज 12 घंटे में लगाए गए 6 करोड़ वृक्षों के पौधारोपण से समझा जा सकता है। पूरी दुनिया में इस असाधारण वृक्षारोपण की गूँज हुयी थी। लेकिन जुलाई 2018 में जब इनका सरसरी ऑडिट किया गया तो पता चला कि उनमे से एक प्रतिशत भी सलामत नहीं बचे है। अब यही करिश्मा उत्तरप्रदेश की योगी सरकार एक दिन में 5 करोड़ पौधे लगाकर दोहराने जा रही है। पुनर्वनीकरण (अफॉरेस्टेशन) के प्रति सत्तासीनों की गंभीरता की हालत इन दो उदाहरणों से साफ़ दिख जाता है। पहला तो यह कि उसके लिए जो फण्ड आवंटित किया गया था उसका सिर्फ 6 प्रतिशत हुआ। दूसरा और भी दिलचस्प है, मध्यप्रदेश के सिंगरौली जिले में अम्बानी-बिड़ला-रूइया आदि कारपोरेट की बिजली और कोयला खदान परियोजनाओं में काटे गए कोई 20 लाख वृक्षों की क्षतिपूर्ति के लिए इन कंपनियों से इतने ही पेड़ लगाने के लिए कहा गया। जब एक्शन टेकन रिपोर्ट माँगी गयी तो इन कंपनियों ने दावा किया कि उन्होंने सिंगरौली से कोई साढ़े चार सौ किलोमीटर दूर सागर और दमोह में पौधे लगा दिए हैं। बिना सागर या दमोह जाए, बिना उस वृक्षारोपण को देखे ही सरकारों ने भक्तभाव के साथ उनके इस हास्यास्पद दावे को मान लिया। यह स्थिति सिर्फ महान परियोजना की नहीं है – बाकी सब परियोजनाओं के मामलों में भी उतनी ही सच है।
कितना दूरदर्शी थे मार्क्स !! 1848 में ही कह गए थे कि पूँजीराक्षस मुनाफे के लिए न सिर्फ देशों की सीमायें लांघेंगे, मानवीय संबंधों को लाभ हानि के बर्फीले पानी मे डुबाकर, सारे रिश्तों को टका पैसा में बदल देंगे , बल्कि प्रकृति का भी इतना भयानक दोहन करेंगे कि पृथ्वी का अस्तित्व तक खतरे में पड़ जायेगा । वही हो रहा है दिनदहाड़े, खुले खजाने । भारी होती हुई तिजोरियों के बोझ से दम घुट रहा है धरती का – गला सूख रहा है प्रकृति का ।
यदि बीमारी वही जो मार्क्स बता कर गए थे तो दवा भी उनकी बताई हुए ही मुफीद होगी।
बादल सरोज