20 लाख आदिवासियों को बेदखली और वन अधिनयम, 1927 में लाए संशोधन को रद्द करो, वनाधिकार क़ानून का सही कार्यान्वयन करो
मंगल कुंजाम की रिपोर्ट
दंतेवाड़ा ,छत्तीसगढ़ :- दक्षिण बस्तर छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा के जिला मुख्यालय में सर्व आदिवासी समाज के बैनर तले हज़ारो की संख्या में ग्रामीण जल जंगल जमीन हमारा है, केंद्र सरकार होश आओ जैसे नारो के साथ ? माँ दंतेश्वरी द्वर के सामने जय स्तभ चौक में उत्तरप्रदेश के सोनभद्र में जमीन विवाद के कांड में मारे गए लोगो को आदिवासी समाज ने श्रदांजलि दी और रोड शो कर रैली के माध्यम से दंतेवाड़ा कलेक्टर द्वारा मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़ शासन के नाम दो मांगे को लेकर ज्ञापन दिये?
1 आगमी 24 जुलाई को उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट )में वन अधिकार कानून 2006 के बारे में आगमी 24 जुलाई को फिर से होंने वाली है उनके बेदखली रखवाने और मौलिक अधिकार को बचाने के लिए मांग केंद्र और राज्य सरकार अपना जिम्मेदारी से पक्ष रखे ?
2) 7 मार्च को केंद्र सरकार ने सभी राज्य सरकारों को एक पत्र द्वारा भारतीय वन कानून 1927 में संसोधन करने लिए परस्तव भेजा है 7 अगस्त तक राज्य सरकारो को जवाब देने के लिए समय दिया गया है ?अगर यह परस्तव कानून बन जाता है तो वन विभाग को अधिकार दिया जाएगा कि वे गोली चला सकेंगे और अगर ये साबित कर देंगे कि गोली क़ानून के अनुसार चलाई गयी है तो उनके खिलाफ कोई करवाई नही होगी (धारा 66(2)जैसे अगर किसी के पास कुल्हाड़ी दरांती या अन्य औजार देखे गए तो उन्हें रोखने के गोली मार सकते है ? इन सारे उपरोक्त मुद्दे पर सरकार सकारात्मक करवाई करने और समुचित पैरवी करवाने के लिए राज्य सरकार को ज्ञापन दिया गया है
यहां आंदोलन एक सांकेतिक है , लाखों आदिवासी और अन्य परम्परागत जनजाति एक अस्तित्वगत संकट के कगार पर हैं क्योंकि 13 फरवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को आदेश दिया कि यदि वन अधिकार अधिनियम 2006 [एफआरए] के तहत वनवासियों के दावे खारिज किये गए हैं, तो वे उन्हें जंगल से बेदखल कर दिया जाये। हालांकि, अत्यधिक कोलाहल के बाद केंद्र सरकार अल्प निद्रा से जागृत हुआ और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसने 23 फरवरी को अपने आदेश को संशोधित किया और 10 जुलाई 2019 तक के लिए माफी दे दी। यह स्पष्ट नहीं है कैसे दावों की अस्वीकृति को आधार मानते हुए बलपूर्वक बेदखली का औचित्य सिद्ध किया जा सकता है। चूंकि, अधिनियम के अनुसार कोई भी समुदाय “स्वतंत्र वन्यजीव आवास” और निश्चित रूप से अन्य क्षेत्रों से नहीं, बिना उनके स्वतंत्र और सूचित सहमति के कानूनी रूप से बेदखल किया जा सकता है। यह भी ग़ौर करने की बात है की वनाधिकार क़ानून में ख़ारिज करने का कोई प्रावधान नहीं है ।
यह ध्यान दिया जाना है कि, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006, जिसे वन अधिकार अधिनियम 2006 (एफआरए) के रूप में भी जाना जाता है, भारत में पहली बार एक महत्वपूर्ण वन कानून, जो वन आश्रित समुदायों और अनुसूचित जन जातियों पर किये गए ऐतिहासिक अन्याय को मान्यता देता है। जमीनी स्तर पर होने वाले प्रयासों, वन आश्रित समुदायों के देशव्यापी संघर्ष और अन्य नागरिक अधिकारों के कानून के दायरे में आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के अधिकारों के लिए जगह बनाने वाले इस ऐतिहासिक कानून को बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। भारत में वनवासियों के रूप में वर्गीकृत अधिकांश लोग अनुसूचित जनजाति (एसटी), गैर-अनुसूचित आदिवासी, दलित और कमजोर प्रवासियों जैसे अन्य गरीब समुदाय हैं, जो व्यावसायिक रूप से निर्वाह योग्य कृषक, पशुचारण समुदाय, मछुआरे और वन उपज इकट्ठा करने वाले, जो आजीविका के संसाधन के लिए भूमि और वन पर निर्भर हैं। महिलाओं को एफआरए के दायरे में समान अधिकार सुनिश्चित किया गया है। इस वास्तविकता के साथ, भारत में कई वन निवास समुदायों का मानना है कि जैव-विविधता वाले जंगल बेहतर रूप से बच गए हैं जहां समुदाय अपनी प्रथागत प्रथाओं के साथ जंगलों के साथ घनिष्ठ संपर्क में हैं, राज्य ने समुदायों को विस्थापित किया है, जो जैव विविधता को प्रभावित करते हैं और अपनी आजीविका के स्रोत के रूप में हैं। अपने घोषणापत्र में सरकार द्वारा किए गए सभी वादों में से, सबसे मुखर अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के तहत गारंटी के रूप में वनवासियों के अधिकारों की रक्षा करना था। हालांकि, आज तक, बहुत कम समुदायों को उनके उचित अधिकार दिए गए हैं और अभी भी बेदखली, खतरों, हिंसा का सामना कर रहे हैं और वन विभाग और सामंती ताकतों के आतंक के अधीन हैं।
वन अधिकार अधिनियम और इसके क्रियान्वयन के मुद्दों पर काम कर रहे आंदोलनों का दृढ़ता से मानना है कि वर्तमान स्थिति, प्रासंगिक मुद्दों को संबोधित करने के लिए व् विभिन्न रणनीतियों को समझने और तैयार करने के लिए विस्तृत तौर पर जायज़ा लेने की आवश्यकता है। सरकार निरंतर भारतीय वन अधिनियम के भीतर नए संसोधनो पर जोर दे रही है,