आर्टिकल 15 दलित उत्पीड़न की क्रूरता को स्पर्श भर कर पाती है , ये क्रूरता कितनी भयानक है इसे भोगने वाला भी शायद ना बता सके !
रुचिर गर्ग
आर्टिकल 15 – अनुभव सिन्हा ने हौसला तो दिखाया है ,लेकिन एक घटना पर आधारित फिल्म दलित उत्पीड़न की क्रूरता को स्पर्श भर कर पाती है । ये क्रूरता कितनी भयानक है इसे भोगने वाला भी शायद ना बता सके !
फ़िल्म के अंत में ब्राह्मण एसपी का संतोष से भरा मुस्कुराता चेहरा दर्शकों को आश्वस्ति के साथ हॉल के बाहर जाने देता है। ये आश्वस्ति विचलित करती है । दलित उत्पीड़न पर किसी फ़िल्म की सार्थकता तो तब है जब अंत दर्शक को बेचैन लौटाए ।
फिर भी मेरी सीमित समझ में फिल्मांकन सशक्त लगा और अनुभव सिन्हा ने उस एक घटना के सहारे विमर्श को आगे बढ़ाया तो है ।कम से कम आर्टिकल 15 देख कर लौटा सवर्ण दर्शक उस पत्थर से टकराएगा तो सही जो इस फ़िल्म ने फेंका है ।
अब जब कोई आरक्षण विरोधी अपनी गली में गटर की सफाई देखेगा तो उसे आर्टिकल 15 में दिखाया गया गटर की सफाई का दृश्य भी याद तो आएगा ही ।
लेकिन दूसरा पहलू यह है कि सोच के स्तर पर अपने समय के ब्राह्मणवादी माध्यमों के जरिये सदियों से हमारी इन्हीं स्मृतियों को ढाँकने का ही तो काम किया गया है ।
दरअसल डॉ भीमराव अंबेडकर ने इन परतों को जिस तीखेपन के साथ कुरेदा है उसी तीखेपन के साथ अछूत उत्पीड़न को अभिव्यक्त करती फिल्में चाहिए ।
फिर भी इस फ़िल्म को ज़रूर देखिए । आज ये हौसला भी कोई अनुभव सिन्हा ही दिखा सकता है ।