लोकतंत्र की अमिट स्याही
लोकतंत्र की अमिट स्याही,
बायें हाथ की तर्जनी पर लग तो गई…
और महीनों तक क़ायम भी रहेगी,
पर वास्तविकता के धरातल पर ,
ज़रा अलग है ये अमिट स्याही..
वैसे तो ये स्याही लगती तो है,
न मिटने के लिए, लेकिन….
हक़ीक़त में ये होती है धुंधली भी,
और मिटती भी है…
सियासत के पास हर तरह की अमिट स्याही का,
बेजोड़ तोड़ है….
मसलन—-
सच लिखने वालों की अमिट स्याही,
उनके ही लहू से मिटाती है ये सियासत…
चैन-ओ-अम्न की अमिट स्याही,
बंदूकों और लाठियों की मदद ले,
मज़हबी दंगों से मिटाई जाती है…..
ज़हानत और तर्क की अमिट स्याही,
ज़हालत और रूढ़ियों से मिटाने की…
कुव्वत है सियासत में…
यहां फर्जी वादों के साथ
फर्जी मतदान भी होते हैं…
फिर आंकड़ों में हेर-फेर कर,
सियासी कुर्सी पर काबिज़ हुआ जाता है…
और क़ायम….
जान की क़ीमत पर रहा जाता है….
किसी की थाली में सोने- चांदी भरने के लिए,
कोई भूखा भी मारा जाता है….
और इन सब मे लोकतंत्र की अमिट स्याही,
धूमिल होती जाती है..
और अंततः मिट भी जाती है…
और जो नहीं मिटती …तो
तो दर्द बनकर क़ायम रहती है,
दंगों में और फसादों में….
फौजियों की बेवाओं में,
जंगल से बेदखल किये गए,
वहां के बाशिंदों के जलते घरों मे….
आत्महत्या कर चुके किसानों के ,
सूने खेतों में…
दुष्कर्म का शिकार हुई बच्चियों की …
छत-विछत पत्थर से कुचल दी गयी लाशों मे,
बेरोज़गार नौजवानों के,
बंदूक पकड़े हाथों में…
चौड़ी होती सड़कों और,
कारखनों की भेंट चढ़ती ज़मीनों में….
और इस पूरी दुनिया में,
जिसमें एक तबका गटर साफ कर रहा…
उसी हाथ से, जिसमें लगी है,
लोकतंत्र की अमिट स्याही……
रोशनी बंजारे “चित्रा”