बस्तर जल रहा है : कनक तिवारी जी
देश की मौजूदा मिश्रित अर्थव्यवस्था धीरे धीरे तबाह हो रही है। इने गिने सार्वजनिक उपक्रमों को नव-उदारवाद, बाजारवाद और साम्राज्यवाद निगलते ही जा रहे हैं। इसके बावजूद इसका विरोध लोकतंत्र और चुनाव पद्धति में ढूंढ़ा ही जा सकता है। यदि आदिवासियों में इस बात की समझ ही नहीं है कि उनके लिए अच्छा क्या है और बुरा क्या है, तो उन्हें शिक्षित किए बिना उनसे समर्थन लेने की वैधता भी कहां बचती है? प्रतिप्रश्न यह भी पूछा जा सकता है कि ऐसी कथित नाकाबिल जनता के हितों को परवान चढ़ाने की हिंसक जिम्मेदारी नक्सलवादियों को किसने दी? दुनिया के जितने भी देशों में कम्युनिस्ट क्रांतियां हुई हैं-एक लंबे वैचारिक संघर्ष का पड़ाव बनकर उभरी हैं-चाहे रूस हो या चीन या अन्य कोई भी कम्युनिस्ट मुल्क। यह कहीं नहीं हुआ कि आतंकियों की शक्ल में जंगलों में छिपकर अपने से ज्यादा निरीह और असहमत आदिवासियों को वनैले पशुओं की तरह काट डालें और उसे क्रांति कह दें। क्रांति कायिक नहीं होती। हिंसा का विचार भी होता है। बस्तर में जो घटित हो रहा है वह छद्म वैचारिक मूल्य युद्ध है। नक्सलवादी मीडिया में आकर बहस मुबाहिसा करने से डरते हैं। वे सिविल समाज से वार्तालाप या विमर्श नहीं करते। एक सभ्य समाज उन्हें मसीहा या मूल्य नियामक कैसे मान ले? यही बस्तर सहित छत्तीसगढ़ का क्रूर यथार्थ है। पूरी दुनिया में कम्युनिज़्म की कमर टूट रही है। उसके धारक देश भी अमेरिका के सामने घुटने टेके हुए हैं। उनके साम्यवाद पर बाजारवाद और साम्राज्यवाद हावी हो गये हैं। नक्सलवाद माओवाद का राजनीतिक भारतीय भाष्य भी नहीं है। वह हिंसा का घिनौना प्रदर्शन है जो अपने से गरीब और कमजोर को भी लूटने या मारने की सैद्धांतिकी रचता चला जा रहा है। लातीनी अमेरिकी देशों में उभरे उग्र वामपंथ की सफलता के पीछे जनसमर्थन बड़ा कारण है। क्यूबा हो या बोलिविया या वेनेजुएला-वहां के वामपंथी बौद्धिकों ने इतिहास को कविता की तरह रचा है और कविता को इतिहास बनाने की भूमिका दी है। छत्तीसगढ़ के कथित नक्सलवादी बौद्धिक राजनीतिशास्त्र को कितना समझते हैं-इसका तो कोई दस्तावेजी प्रमाण भी तो नहीं देते। उनसे सार्वजनिक बहस करने का लोकतंत्र में सिविल सोसाइटी को अवसर ही कहां है। वे अपनी हरकतों से कुदरत की खूबसूरत आदिवासी संस्कृति के बस्तर और सरगुजा जैसे इलाकों को युद्ध की खंदकों में तब्दील करते जा रहे हैं। क्या वे किसी अक्षम्य मानव त्रासदी के गायन का पूर्वाभ्यास कर रहे हैं?
वैश्वीकरण के दौर में बस्तर में बड़ी निजी कंपनियों के लिए लूट का साम्राज्य कायम किया जा रहा है। आदिवासी के हलक में शासन का भय ठूंसा जा रहा है। लूट तो बड़े व्यापारी और उद्योगपति तथा बड़े सरकारी अफसर और राजनेता कर रहे हैं लेकिन तथाकथित सजा-ए-मौत उन गरीब आदिवासी बेटों को नक्सलवादी दे रहे हैं जो पेट की रोटी के वास्ते विशेष पुलिस दस्ते में भरती हो रहे हैं। बच्चे, स्त्रियां और बूढ़े बुजुर्ग भी नक्सलवादी हिट लिस्ट में बढ़ते जा रहे हैं। वह तथाकथित जनआंदोलन या वैचारिक रुझान यदि मासूम लोगों की हत्या करता है, तो वह वर्ग चरित्र के समाज से लड़ने वाला अपना चरित्र खो देता है। बस्तर में यही हो रहा है। आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ाइयां अब भी कई वामपंथी और गांधीवादी संगठन लड़ रहे हैं। भले ही सरकार के आरोपों के अनुसार उनकी पीठ पर नक्सलवादियों का हाथ कहा जाए। इस देश में कुछ स्वैच्छिक संगठनों और मानव अधिकार के रक्षकों ने अपनी प्रतिष्ठा में बहुत बट्टा भी लगाया है। ऐसे बहुत से संगठन साम्राज्यवादियों के कुचक्र के कारण फल फूल रहे हैं। उनकी निंदा ठीक ही धुर वामपंथियों या सरकारों ने की है। कोई नहीं बताता कि इन संगठनों के पास पसीना बहाए बिना अकूत धन कहां से आता है और वह किस तरह खर्च होता है। यह क्यों प्रचारित हो रहा है कि मानव अधिकार संगठन पुलिस अधिकारियों के मारे जाने पर विरोध नहीं जताते। सरकारें जनता के अधिकारों की कटौती करने वाले कानून तो बनाती हैं लेकिन उन पर शिकंजा क्यों नहीं कस पातीं जिनकी गर्दनों को नापने के लिए ये कानून बनाए गए हैं और उनका खमियाजा जनता भुगत रही है।
कनक तिवारी प्रदेश सरकार के महाधिवक्ता हैं व देश के सुप्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक