नक्सली होने के फर्जी आरोपों में जेल में 12 साल बिता कर बाहर आयी निर्मलक्का , 150 से ज्यादा मामलों में बाईज्जत बरी
रमेश तिवारी रिपु की कलम से
तुम नक्सली हो। यह कहना कितना आसान है। फिर, जेल में डाल देना। सलाखों से बाहर निकलने की गारंटी भी नहीं। इसलिए कि कोई वकील खड़ा नहीं होता। खुद नक्सली नहीं होने की लड़ाई जेल में रहकर लड़ो। जीत गये तो तुम्हारी किस्मत। हार गये तो पुलिस की वाहवाही। बस्तर की जेलों में ऐसे लोगों की सूची बेहद लम्बी है। इस राज का खुलासा तब हुआ, जब 12 साल तक नक्सली होने के आरोपों का दर्द सालाखों के अंदर पीने वाली निर्मलक्का को कोर्ट ने आजाद कर दिया। निर्मलक्का पर पुलिस ने नक्सली होने के इतने आरोप लगाये कि सांसे थम जाये गिनते गिनते। 150 मामले उसके खिलाफ। 137 मामलों की खुद पैरवी की। पुलिस एक भी मामले में उसे नक्सली सिद्ध नहीं कर सकी। जाहिर है कि बस्तर में हर दूसरा व्यक्ति नक्सली न होकर भी नक्सली है। क्यों कि यहां की हवा भी नक्सली हो गई है। पुलिस के लिए अच्छे बनो तो नक्सलियों की गोली का डर। नक्सलियों के लिए अच्छा बनो तो, पुलिस का डर। यहां डर परछाइयों की तरह पीछे पीछे चलती है।
आज निर्मलक्का के माथे पर नक्सली नाम मिट गया। लेकिन सवाल यह है कि वो नक्सली थी नहीं, फिर भी वो बारह साल नक्सली होने के आरोप में गुजारे। उसका हिसाब कौन देगा। उसके हिस्से के उजाले की हत्या जिसने की,उसे कौन सी सजा मिलेगी? रमन सरकार के दौर में ऐसे लोगों की संख्या बहुत है, जो नक्सली न होकर भी नक्सली हो गये। तत्कालीन बस्तर के आईजी एस.आर.कल्लूरी तो एक नहीं कई गांवों के लोगों को नक्सली बताकर सरेंडर कराया और कइयों को जेल में डाल दिया था। वो सरकारी नक्सली थे,कहें तो गलत न होगा। जब तक थे बस्तर में कल्लूरी सरकार थी।
सोनी सोरी और कल्लूरी के खिलाफ तो हमेशा 36 का रिश्ता रहा। इस आदिवासी महिला के हक में सुप्रीम कोर्ट दखल न देता तो यह भी अब तक जेल में ही रहती। सवाल यह है कि आदिवासी तो गोली की भाषा नहीं जानता। आदिवासी तो महूए की खुशबू,तेंदूपत्ता की छाया, तेंदू के फल और बासी भात में ही खुश रहता है। उसकी दुनिया में दखल किसने दिया। पुलिस,नक्सली,या फिर उद्योगपति। सरकार को भी पता नहीं। रमन सरकार ही नहीं,भूपेश बघेल की सरकार, भी नक्सल समस्या को लेकर भ्रमित है। पिछले दिनों गोडेलगुड़ा की घटना यही बताती है। दो आदिवासी महिलाओं की मौत को लेकर राज्य के कैबिनेट मंत्री कवासी लखमा सीआरपीएफ को कटघरे में खड़ा किया। वहीं तत्कालीन सुकमा एस.पी जितेन्द्र शुक्ला का कहना कि क्रास फायरिंग में महिला को गोली लगी। जबकि सोनी सोरी का आरोप है कि मृतिका आदिवासी महिला सुक्की और देव को फिर वर्दी पहनाकर नक्सली बताने की कोशिश क्यों की गई। जाहिर सी बात है कि बस्तर में इतने नक्सली नहीं है,वो तो पुलिस ने संख्या बढ़ा दी है। उसे तो पुलिस की कार्रवाई का विरोध करने वाली हर आदिवासी महिला नक्सली लगती है। निर्मलक्का के पति चन्द्रशेखर को भी पुलिस ने नक्सली बताकर जेल में डाल दिया था। पर पुलिस नक्सली होने का सबूत नहीं दे सकी। 2007 में कोर्ट ने उन्हें रिहा कर दिया था।
बात वहीं है,आखिर असली नक्सली किसे पुलिस मानती है। जिसे मार देती है या फिर जिसे जेल में डाल देती है। ऐसे कथित नक्सली के निर्दोष सिद्ध होने पर क्या मिलता है? सिर्फ आजादी। खुली हवा। बस। यही उसकी कीमत है? सलाखों के पीछे 12 साल एक कमरे में यातना भरी जिन्दगी जो गुजारी, उसका मूल्य कौन देगा। बाहर निकलने पर ऐसे लोग बंदूक उठाकर लाल गलियारे में कूद पड़ें तो क्या जुर्म है? सवाल यह है कि बड़ा जुर्म कौन सा कहलायेगा। पहले वाला या फिर बाद वाला। सवाल यह भी है कि सबसे बड़ा नक्सली कौन?पुलिस या फिर मूक आदिवासी। बस्तर में इनामी नक्सली बताने की होड़ मची हुई है। रमन राज हो या फिर भूपेश राज। दोनों एक से हैं। बस्तर में पुलिस नक्सली बताने वाले मशीन हो गई है। नक्सली मरते कम हैं,लेकिन बनते ज्यादा हैं। आखिर ऐसा कितने चुनाव तक यह खेल चलेगा।
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