संघी जनतंत्र में आदिवासी-दमन की व्यथा-कथा : संजय पराते
आदिवासियों पर यह कोई छोटा-मोटा हमला नहीं है. पिछले दस सालों में बस्तर में 3500 से ज्यादा आदिवासियों की हत्या हुई है — लगभग रोजाना एक हत्या. ये हत्या या तो पुलिस और अर्धसैनिक बलों ने की है उन्हें नक्सली/माओवादी करार देकर, या फिर माओवादियों ने की है उन्हें ‘पुलिस मुखबिर’ बताकर. गोली इधर से चली हो या फिर उधर से, उसका शिकार एक सामान्य आदिवासी ही हुआ है, जिसे इसका तक ज्ञान नहीं है कि ये गोलियां चल क्यों रही हैं? उसके नसीब में केवल विस्थापन है. भाजपा सरकार का दावा है कि वह बस्तर का विकास कर रही है और यह विकास बगैर जल, जंगल, जमीन और खनिज पर कब्ज़ा किये संभव नहीं. इस विकास के लिए आदिवासियों को जड़ से उखाड़ना/उजाड़ना जरूरी है. जड़ें आसानी से नहीं उखड़ती — इसलिए जरूरी है कि हर आदिवासी, जो उखड़ने/उजड़ने से इंकार करे, उसे माओवादी करार दो. तब आदिवासियों को मारना आसान है. इसलिए भाजपा-राज की हर गोली केवल और केवल आदिवासी का पीछा करती है, उसे जान-माल से ‘विस्थापित’ करती है और कॉर्पोरेट-राज को ‘स्थापित’.
वर्ष 2005 से जून 2011 तक चले ‘सलवा जुडूम’ अभियान का उद्देश्य यही था. 50000 से ज्यादा आदिवासियों को उनके गांव/घरों से विस्थापित किया गया था. जो लोग इसके लिए तैयार नहीं थे, उनके साथ कैसी ‘बर्बरता’ बरती गई, ताड़मेटला कांड इसकी मिसाल है. माओवादियों से निपटने के नाम पर पुलिस और अर्धसैनिक बलों के 532 जवानों ने तत्कालीन एसएसपी और वर्तमान आईजी एसआरपी कल्लूरी के निर्देश पर 11 और 16 मार्च, 2011 को ‘कॉम्बिंग आपरेशन’ चलाया था और तीन गांवों – ताड़मेटला, तिम्मापुरम और मोरपल्ली – के 252 घरों में आग लगा दी थी, 3 आदिवासियों की हत्या की थी और 3 महिलाओं के साथ बलात्कार भी. ‘चालाक’ कल्लूरी ने इस ‘बर्बरता’ का पूरा दोष माओवादियों पर डाल दिया. इस घटना के उजागर होने के बाद कल्लूरी की ‘सलवा जुडूम’ फ़ौज ने कलेक्टर तक को राहत सामग्री पहुंचाने नहीं दिया. उनके साथ भी वही सलूक हुआ, जो स्वामी अग्निवेश के साथ हुआ. अग्निवेश के काफिले को पत्थर मारकर भगा दिया गया.
राज्य-प्रायोजित ‘सलवा जुडूम’ द्वारा आदिवासियों के अंतहीन दमन की यह एक छोटी-सी मिसाल भर है. लेकिन यही वह पृष्ठभूमि थी, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने 5 जुलाई, 2011 को ‘सलवा जुडूम’ को प्रतिबंधित करने और ‘ताड़मेटला कांड’ की सीबीआई जांच के आदेश दिए थे. सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश सामाजिक कार्यकर्ता और दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर व अन्य की याचिका पर दिया था. सीबीआई ने अपनी जांच में यह पाया कि मानवाधिकर कार्यकर्ताओं और वामपंथी पार्टियों का यह आरोप सही है कि ताड़मेटला सहित अन्य दो गांवों में आगजनी, हत्या और बलात्कार, जुडूम कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर पुलिस और अर्ध सैनिक बलों ने ही किया था और इसमें कल्लूरी की भूमिका स्पष्ट है.
हाल ही में दो नौजवान छात्रों की पुलिस द्वारा बुरगुम में हत्या के मामले में भी सरकार को बिलासपुर हाई कोर्ट में पलटी खानी पड़ी है. पहले इन दोनों युवकों को पुलिस ने ‘नक्सली मुठभेड़ में मृत’ घोषित किया गया था और इस ‘बहादुरी’ के लिए पुलिसकर्मियों को नगद इनाम भी दिया गया. लेकिन हाई कोर्ट में मामला पहुंचते ही सरकार ने पलटी मारी तथा कोर्ट को बताया कि इन दोनों की हत्या किन्हीं ‘अज्ञात’ व्यक्तियों ने की थी. स्पष्ट है कि पुलिस नगद इनाम की लालच में आदिवासियों को फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में मार रही है. लेकिन भाजपा की रमन सरकार ने आज तक इस ‘अपराधी’ पुलिस अधिकारी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की है.
सलवा जुडूम पर प्रतिबंध लगाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करने के बजाए सरकार ने इसकी अवहेलना के रास्ते ही खोजे हैं. उसने एसपीओ (जिनमें से अधिकांश आत्मसमर्पित नक्सली ही हैं) की फ़ौज को नियमित पुलिस बल का हिस्सा बना लिया है. जो एसपीओ पहले नक्सलियों के साथ मिलकर आदिवासियों को प्रताड़ित करते थे, वे आज पुलिस बल का हिस्सा बनकर सरकार के संरक्षण में आदिवासियों को लूटने, उन्हें डराने-धमकाने, आगजनी, हत्या और बलात्कार जैसे असामाजिक कृत्यों को बेझिझक अंजाम दे रहे हैं. एक नए सलवा जुडूम का उदय हो रहा है, जिसे पहले सामाजिक एकता मंच के नाम से (इसे अब कथित रूप से भंग कर दिया गया है) और अब ‘अग्नि’ (एक्शन ग्रुप फॉर नेशनल इंटीग्रेशन) के नाम से संचालित किया जा रहा है. दोनों संगठनों के कर्ता-धर्ता वही लोग हैं, जो सरकारी ठेकेदार और पत्रकार दोनों एक साथ हैं और जो सलवा जुडूम को भी संचालित कर रहे थे. इन स्वयंभू रक्षा दलों ने बड़े पैमाने पर वकीलों, पत्रकारों और सामाजिक-राजनैतिक-मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर हमले किये हैं. इन स्वयंभू रक्षकों का कल्लूरी से संबंध-संरक्षण किसी से छुपा नहीं है. एडिटर्स गिल्ड और प्रेस कौंसिल तक को कहना पड़ा है कि बस्तर में पत्रकार तक सुरक्षित नहीं है. ‘जगदलपुर लीगल ऐड ग्रुप’ के नाम से जो वकील आदिवासियों को कानूनी मदद पहुंचा रहे थे, उन्हें भी इन स्वयंभू फौजदारों द्वारा हमले का निशाना बनाकर बस्तर छोड़ने के लिए बाध्य किया गया है. स्पष्ट है कि बस्तर में जनतंत्र की जगह रमन-कल्लूरी की संघी तानाशाही का राज ही स्थापित हो गया है, जो आम आदिवासियों के लोकतांत्रिक अधिकारों, संविधान और कानून के दायरे में काम कर रहे संगठनों/संस्थाओं के अधिकारों और अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता को ही बर्बरता से कुचल रही है.
इसी सलवा जुडूम-2 की सच्चाई को बाहर लाने का काम किया था बस्तर में इस वर्ष मई में गए डीयू-जेएनयू और वाम दलों के संयुक्त प्रतिनिधिमंडल ने. इस प्रतिनिधिमंडल में नंदिनी सुंदर (डीयू), अर्चना प्रसाद (जेएनयू), संजय पराते (माकपा), विनीत तिवारी, मंजू कवासी और मंगल कर्मा (भाकपा) शामिल थे. प्रतिनिधिमंडल ने उस नामा गांव में भी बैठक की थी और रात बिताई थी, जिसके टंगिया गैंग (एक नक्सलविरोधी समूह) के नेता सामनाथ बघेल की कथित रूप से नक्सलियों ने इसी 4 नवम्बर की रात लगभग 9:30 बजे हत्या कर दी थी. सामनाथ बघेल की हत्या के आरोप में उक्त छहों सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ताओं पर हत्या का मामला दर्ज कर लिया गया, जबकि सभी कार्यकर्ता घटनास्थल से सैंकड़ों किलोमीटर दूर थे और नंदिनी सुंदर तो वास्तव में अमेरिका में थी. कल्लूरी ने तो जन सुरक्षा अधिनियम जैसे काले कानून को भी इन पर थोपने का ऐलान कर दिया.
वास्तव में मई के दौरे के बाद ही उक्त कार्यकर्ताओं को ‘नक्सली’ तथा ‘राष्ट्रविरोधी’ करार देते हुए उन्हें झूठे मामले में फंसाने की कोशिश की गई थी तथा सामाजिक एकता मंच जैसे असामाजिक तत्वों के जमावड़े और एक फ़र्ज़ी शिकायत दर्ज करवाकर एसपीओ द्वारा इन्हें गिरफ्तार करने के लिए एक फ़र्ज़ी आंदोलन भी खड़ा किया गया था. लेकिन तब इसकी जो देशव्यापी राजनैतिक प्रतिक्रिया हुई थी, उसके दबाव में सरकार और कल्लूरी को अपने पांव पीछे खींचने पड़े थे. ‘ताड़मेटला कांड’ पर सीबीआई चार्जशीट से जो सच्चाई उजागर हुई है, उसे दबाने के लिए पूरे बस्तर संभाग के सातों जिलों में कल्लूरी के निर्देश पर पुलिस और एसपीओ तथा ‘अग्नि’ द्वारा मिलकर नंदिनी सुंदर, अर्चना प्रसाद सहित अन्य सामाजिक-राजनैतिक कार्यकताओं के पुतले जलाये गए. बस्तर पुलिस की इस करतूत की ‘कभी न पूरी होने वाली’ जांच के आदेश भी सरकार को देने पड़े हैं.
26 अक्टूबर को पुलिस की उपस्थिति और उसके संरक्षण में सीपीआई नेता मनीष कुंजाम पर उनके जगदलपुर स्थित कार्यालय में उस समय हमला और तोड़-फोड़ किया गया, जब वे एक पत्रकार वार्ता को संबोधित कर रहे थे. हमलावर वही स्वयंभू रक्षा दल ‘अग्नि’ के कार्यकर्ता थे.
समनाथ बघेल की हत्या के आरोप में जिन सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है, उसकी सच्चाई का एनडीटीवी ने शानदार ढंग से पर्दाफ़ाश किया है. एनडीटीवी संवाददाता से सामनाथ की विधवा विमला ने स्पष्ट रूप से कहा है कि वह न तो हत्यारों को पहचानती है और उसने न ही उक्त कार्यकर्ताओं सहित किसी का भी नाम लिया है, जिनका उल्लेख एफआईआर में किया गया है. पुलिस का फर्ज़ीवाड़ा उजागर होते ही राजनैतिक हलकों में इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुई है. जेएनयू टीचर्स यूनियन ने जहां इस एफआईआर की निंदा करते हुए ऐसे राजकीय दमन के खिलाफ संघर्ष का ऐलान किया है, तो दिल्ली विश्वविद्यालय में छत्तीसगढ़ पुलिस के खिलाफ व्यापक हस्ताक्षर अभियान चलाया गया. इसी बीच पुलिस भी दोनों प्रोफेसरों को गिरफ्तार करने के लिए उनके विश्वविद्यालय परिसर में पहुंच गई.
ताड़मेटला कांड पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के समक्ष छत्तीसगढ़ पुलिस की ये करतूतें 11 नवम्बर को ही सामने आ चुकी थी. तब छत्तीसगढ़ सरकार का यही कहना था कि आरोपियों के खिलाफ ‘पर्याप्त सबूत’ हैं. लेकिन 15 नवम्बर को वह कोई सबूत नहीं पेश कर पाई और तब सरकार को यह आश्वासन देना पड़ा कि उक्त छहों कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी नहीं की जायेगी. सुप्रीम कोर्ट ने भी यह आदेश सरकार को दिया कि इस मामले में कोई नया तथ्य सामने आने पर 4 सप्ताह की नोटिस देकर ही उनसे पूछताछ व छानबीन की जा सकती है. इस प्रकार लगातार तीसरी बार छत्तीसगढ़ सरकार और उसकी पुलिस को कोर्ट में मात खानी पड़ी है.
अब बस्तर के मामलों में कल्लूरी की बर्खास्तगी और रमन सरकार के इस्तीफे की मांग जोर पकड़ती जा रही है. वामपंथी-जनवादी ताकतें धीरे-धीरे गोलबंद हो रही हैं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जनतंत्र की पक्षधर ताकतों को और बल मिलेगा तथा बस्तर में कॉर्पोरेट लूट के खिलाफ लड़ रहे कार्यकर्ताओं का हौसला भी बढ़ेगा. लेकिन क्या अब इस ‘अपराध’ के लिए सुप्रीम कोर्ट को ही ‘नक्सली’ और ‘राष्ट्र विरोधी’ ठहराने की हिमाकत रमन-कल्लूरी करेंगे?