टिटलागढ़ की झुग्गी से निकला था..,भारत की टेलीफ़ोन क्रांति का जनक
-डाॅ. परिवेश मिश्रा
गंगाराम और शांता के परिवार में 1942 में जब तीसरी संतान के रूप में बेटे का जन्म हुआ तब वे सब टिटलागढ़ में रेल पटरियों के किनारे झुग्गी जैसा घर बनाकर रहते थे। यह स्थान छत्तीसगढ़ की सीमा के पास उड़ीसा के बलांगीर ज़िले में है।
बेटे को नाम दिया गया सत्यनारायण। घर में सत्यन कहा गया और बाहर सत्तू। दस वर्ष पहले जब कच्छ (गुजरात) में अकाल की परिस्थितियां बन जाने पर अपने गांव टिकर से पूर्णतः निरक्षर गंगाराम अपनी चौदह वर्षीया पत्नी को लेकर काम की तलाश में निकले थे तब उनकी उम्र थी सोलह वर्ष।
रायपुर से विशाखापट्टनम के बीच रेल लाइन बिछाने का काम चल रहा था और गंगाराम को यहां बीस रुपये प्रतिमाह के वेतन पर मजदूरी मिल गयी। परिवार के बढ़ने के साथ गुज़र कठिन हो चला था, सो गंगाराम वेतन-वृद्धि का अनुरोध ले कर ठेकेदार के पास पहुंचे। ठेकेदार ने दुत्कारते हुए अनुरोध ठुकरा दिया तो गुस्सा भी आया और आत्मसम्मान भी आहत हुआ। गंगाराम ने बस वहीं नौकरी छोड़ने की घोषणा कर दी और घर आ गये।
घोषणा तो कर दी पर घर पहुंच कर अहसास हुआ कि पत्नी और तीन छोटे बच्चों के पेट भरने की कोई व्यवस्था उनके पास नहीं थी। रेलवे के अलावा इलाके में रोज़गार देने वाला कोई उद्यम नहीं था।
गंगाराम के पुरखे बढ़ई और लोहार का काम करते थे – विश्वकर्मा थे। सामाजिक वर्ण व्यवस्था में इनकी जाति – लुहार सुथार – सबसे निचली पायदान पर मानी जाती थी। पीतल से जुड़ा शब्द था “पितर” सो इन्हें कुलनाम प्राप्त हुआ था “पितरोदा/पित्रोदा”।
पत्नी ने विवाह पर मिले आभूषण बेचकर लोहे के मोटे तारों का एक बंडल और एक मोटा हथौड़ा खरीदा और ऊंचे पूरे गंगाराम को थमा कर पुश्तैनी हुनर की याद दिलाई। दिन-रात एक कर गंगाराम ने तारों पर हथौड़ा चलाया और उनसे कील बनाईं। जब एक बाल्टी-नुमा बर्तन भर गया तो उसे लेकर रेलवे के अंग्रेज़ अधिकारी के पास बेचने पहुंचे।
यहां परेशानी पैदा हो गयी। अधिकारी को सिर्फ अंग्रेज़ी और टूटी-फूटी हिन्दी आती थी और गंगाराम को सिर्फ गुजराती और टूटी-फूटी उड़िया। काफ़ी प्रयास के बाद भी जब भाषा की समस्या नहीं सुलझी तो गंगाराम ने बाल्टी सामने रखकर दोनों हथेलियां फैला दीं। अफसर ने उस पर जो भी पैसे रखे, लेकर घर आ गये। जब तक उन्होंने कीलें बनाकर बेचीं यही व्यवस्था काम करती रही।आहत गंगाराम ने प्रण किया कि हर हालत में अपने बच्चों को अंग्रेज़ी की शिक्षा दिलाएंगे। जिसके हाथ में ताकत और सत्ता है उसकी भाषा का ज्ञान दिलाएंगे।
टिटलागढ़ में स्कूल नहीं था। इस तीसरे बच्चे को उसके बड़े भाई के साथ गुजरात भेजने का फ़ैसला हुआ। ट्रेन आयी। दरवाजे खिड़कियों से तो लोग लटके ही थे, छत पर भी सवार थे। बचपन भर ट्रेनों को आते-जाते देखते आ रहे ग्यारह वर्षीय सत्यन को पहली बार सफ़र का मौका मिला जब छोड़ने आये लोगों ने मिलकर भाई के बाद इन्हे भी एक खिड़की से अन्दर ठूंस दिया। तब थर्ड-क्लास की खिड़कियों में सलाखें नही होती थीं।
कुछ कट्टर गांधीवादी लोगों के द्वारा संचालित स्कूल में दोनों की पढ़ाई हुई। आर्थिक खर्च न्यूनतम था किन्तु कठोर अनुशासन और गांधी जी के उसूलों की शिक्षा भरपूर।
आज़ादी के बाद के दशकों में पं. जवाहरलाल नेहरू की नीतियों ने सत्यन के जीवन को प्रभावित किया। एक तरफ नेहरू जी ने तेजी से खुले नये प्राथमिक स्कूल से लेकर आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान शुरू किये वहीं देश भर में शिक्षा को निःशुल्क कर दिया था। स्कूल के बाद कुशाग्र बुद्धि वाले मेहनती सत्यन को अच्छे नम्बरों के कारण बड़ौदा के विश्वविद्यालय में दाखिला मिला तो फीस चिंता नहीं बनी। ट्यूशन मिलने लगे तो कुछ समय के बाद दूसरे भाई बहनों को बुलाकर उन्हे भी शिक्षित कर दिया।
नेहरू जी ने आज़ादी के बाद की युवा पीढ़ी को बड़े सपने देखने के लिए खूब प्रोत्साहित किया था। भारत में अनुसंधान की सुविधा बहुत सीमित थी इसलिए पढ़े-लिखे युवाओं के विदेश जाने पर कोई रोक-टोक नहीं लगायी गयी थी। तब के कुछ नेहरू-निंदकों ने “ब्रेन-ड्रेन” का नाम देकर इस नीति की बहुत आलोचना की थी। साठ के दशक में अमेरिका पहुंची भारतीय युवकों की प्रतिभाशाली पीढ़ी ने ही अमेरिका के मार्फत विश्व में भारतीय बौद्धिक क्षमताओं का डंका बजाया और आने वाले समय में अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का मुखिया बने भारतीयों के लिए आधार तैयार किया।
फ़िज़िक्स में एम एस सी कर चुके सत्यन को अमेरिका के शिकागो में दाखिला मिल गया, रिसर्च और आविष्कार के मौके मिले और सत्यन ने अगले बीस वर्षों तक पीछे मुड़कर नहीं देखा।
पहले वेतन के लिए बैंक में खाता खोलना था। कम्पनी के अकाउंटेंट को इनका नाम बहुत लम्बा लगा सो उसने चेक पर “सैम” लिख दिया और तब से सत्यनारायण गंगाराम पित्रोदा “सैम पित्रोदा” के नाम से जाने जाते हैं।
अमेरिका में इनके अविष्कारों, शैक्षणिक उपलब्धियों, और उद्यमों ने धूम मचा दी। सफलता ने कदम चूमना शुरू किया तो उन्होंने अपने दोस्तों के बीच घोषणा की : “मैं चालीस की उम्र छूने से पहले मल्टी-मिलिनेयर बनना चाहता हूं। उसके बाद कमाऊंगा नहीं। बस वह सब करूंगा जो मुझे अपने देश भारत का ऋण लौटाने की दिशा में संतुष्टि दे।” आज इनके पास बीस विश्वविद्यालयों की मानद डॉक्टरेट और टेलीफ़ोन तथा टेलीकम्युनिकेशंस के क्षेत्र मे सौ से अधिक पेटेन्ट (उत्पाद, खोज, या डिज़ाईन पर कानूनी अधिकार) हैं। अनेक सफल कम्पनियां और प्रोजेक्ट्स स्थापित और संचालित कर चुके हैं।
1980 के दशक की शुरुआत में इन्होने अपने सफल व्यवसायों से बिदा ली और सपनों के विस्तार में भारत को शामिल किया। यह वह समय था जब टेक्नोलॉजी की बारीकियों और क्षमताओं को समझने वाले इनके हमउम्र राजीव गांधी का सार्वजनिक जीवन में पदार्पण हो चुका था।
इन्होने भारत की टेलीफ़ोन व्यवस्था के आधुनिकीकरण कर गांवों में इसके विस्तार का प्रोजेक्ट राजीव गांधी की मदद से प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी जी के सामने रखा। इन्दिरा जी ने कैबिनेट की स्वीकृति दिलाई। जब तक प्रोजेक्ट धरातल पर उतरता इन्दिरा जी जा चुकी थीं। संयोग था कि राजीव गांधी जी नये प्रधान मंत्री बने और इन दो युवाओं की जोड़ी ने भारत में टेलिकाॅम और टेक्नोलॉजी क्रांति की नीव रखी। छह टेक्नोलॉजी मिशन शुरू हुए जिसमें सैम राजीव गांधी के पूर्णतः अवैतनिक सलाहकार थे।
इस जोड़ी के नेतृत्व में भारत ने “नम्बर प्लीज़” वाली टेलीफ़ोन व्यवस्था को ऑटोमेटिक डायल वाली एक्सचेन्ज व्यवस्था में बदलते देखा, ध्वनि गुणवत्ता में सुधार के साथ साथ टेलीफ़ोन के गांव-गांव में होते विस्तार को देखा, स्वास्थ्य कार्यकर्ता को सायकिल के कैरियर में थर्माकोल के डब्बे में वैक्सीन लेकर गांवों में टीकाकरण के लिए जाते देखा, कोल्ड-चेन से पोलियो जैसी अनेक बीमारियों का उन्मूलन देखा, सरकारी प्रोत्साहन पर आगे बढ़े सुलभ इंटरनेशनल के रूप में पहली बार साफ़-सुथरे सार्वजनिक शौचालय देखे। बहुत कुछ देखा। किन्तु यहां सिर्फ़ एक काम का ज़िक्र है जिसने तीन साल की अवधि में बीस लाख परिवारों को सीधे और इससे अधिक लोगों को अप्रत्यक्ष आर्थिक लाभ और रोज़गार दिया। वह है गांव गांव में एसटीडी-पीसीओ की श्रृंखला।
छत्तीसगढ के वरिष्ठ पत्रकार हैं पत्थलगांव के श्री रमेश शर्मा। अस्सी के दशक में उन्होने रायपुर से प्रकाशित देशबन्धु अखबार के लिये अपने जशपुर ज़िले के तपकरा से एक समाचार भेजा था। ईब नदी के बहते पानी से सोने के कण बीनने का काम सदियों से वहां के आदिवासी करते आये हैं। स्वर्ण-कण लेकर ये गांवों के साप्ताहिक हाट बाजार पहुंचते जहां सुनार वाला छोटा तराजू हाथ मे लिये व्यापारी मिलते। बाट के रूप में धान के दानों का इस्तेमाल होता और सोने का उस दिन का बाज़ार मूल्य जो व्यापारी घोषित करते उस पर सौदा हो जाता। ज़ाहिर है आदिवासियों की अज्ञानता और बाहरी दुनिया से उनके कटे होने के तथ्य का भरपूर दोहन हो रहा था। लेकिन अस्सी के दशक में स्थिति रातों रात बदल गयी। अब आदिवासी पहले गांव से रांची, झारसुगुड़ा, रायगढ़ जैसे स्थानों पर फ़ोन लगा कर सोने का भाव पूछते और उसके बाद व्यापारी से सौदा करते। श्री शर्मा के अनुसार यह संभव हो पाया था गांव में एसटीडी पीसीओ के खुल जाने से। इसने देश में विकलांगों, सैनिकों की विधवाओं और बेरोजगारों जैसी श्रेणियों के लाखों लोगों को रोज़गार दिया। देर रात और अलसुबह मिलने वाली सस्ती दर की प्रतीक्षा में इन बूथ पर लोग इकट्ठा होने लगे। धीरे-धीरे पीसीओ में कहीं चिप्स तो कहीं चाय की बिक्री भी होने लगी। कुछ बेरोजगारों को दौड़कर इनकमिंग काॅल वाले को घर से बूथ तक बुला कर बात कराने का काम मिल गया।
भारत के इतिहास में पीले रंग के बोर्ड वाले एसटीडी-पीसीओ की भूमिका की उतनी चर्चा कभी नहीं हो पायी जितनी होनी थी। सन 2009 में अपने चरम पर पहुंचने तक देश में एसटीडी पीसीओ की संख्या पचास लाख हो चुकी थी। 1994 में टेलीफ़ोन सेक्टर के निजीकरण से लेकर मोबाइल फ़ोन के आने की कहानी अपने लिये एक पूरे और स्वतंत्र चैप्टर की मांग करती है जिसे लेख की बढ़ती लम्बाई स्वीकृति नहीं देती। सो, बस।
-डाॅ. परिवेश मिश्रा