आदिवासी हिन्दू कैसे हैं? भाग : 2
( इस विषय पर प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक व लेखक श्री कनक तिवारी सोशल मीडिया में लगातार लिखना शुरु कर चुके हैं हम कोशिश करेंगे कि उनके द्वारा लिखे सभी भाग यहां ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर सकें, पहला भाग आप यहां आकर पढ़ सकते हैं )
कनक तिवारी–
हिन्दुइज़्म में आदिवासियों को शामिल करने की प्रक्रिया पर गहरी आपत्ति करते लाल सिंह चौहान का कहना है कि आदिवासी भारत के मूल निवासी हैं। अब तय है कि आर्य बाहर से आए हैं। यदि आदिवासी हिन्दू हैं तो आर्यों के आने के पहले जो लोग इस देश में रहते और आर्यों से युद्ध हारने के बाद घने जंगलों में बसकर सदियों से वहां रह रहे हैं, वे कौन हैं? प्राचीन इतिहास में आर्य और अनार्य अलग अलग संबोधन रहे हैं। अनार्य देश के मूल निवासी थे, तो उन्हें आदिवासी (भी) कहते आर्य जाति के हिन्दुओं में कैसे शामिल किया जा सकता है? आदिवासियों का कोई मूर्तिमान देवता नहीं होता। वे निराकार आराध्य के उपासक हैं।. आर्यों ने तो अपने तमाम साकार देवता रच लिए हैं। कई आदिवासी आर्यों की सोहबत में रहने के कारण कुछ प्रथाओं में शामिल होते गए हैं। आदिवासियों की भी कई आदतें, हावभाव और प्रथाएं हिन्दुुओं द्वारा जज्ब कर ली गई हैं। चौहान कहते हैं हिन्दू धर्म बुनियाद में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का धर्म रहा है। वहां वर्णाश्रम और वर्ग विभेद के प्रतिबंध भी हैं। यह सब आदिवासी जीवन में नहीं है। अंगरेजों ने हिन्दू समाज की कई बुराइयों को दूर करने के लिए भी शिक्षा का प्रसार किया। इससे भी हिन्दू धर्म की आदिवासियों पर आक्रामकता को लेकर समझ की एक नई खिड़की खुली।
लेखक डा. गोविन्द गारे यह थीसिस खारिज करते हैं कि आदिवासियों को हिन्दू धर्म का अंश माना जाए। हिन्दुओं का मुख्य मकसद तो आदिवासियों पर हुकूमत करना और उनसे लाभ उठाते अपनी दकियानूस समाज व्यवस्था को लगातार मजबूत और महफूज रखना रहा है। उन्हें सफलता भी मिलती रही है क्योंकि शिक्षा के अभाव के कारण गरीबी और बदनसीबी झेलते कई आदिवासी हिन्दू प्रथाओं में शामिल होते रहे। उन पर नए नए भगवान थोपे जाते रहे हैं। उनकी संस्कृति या तो हड़पी जा रही या मिटाई जा रही है। हजारों आदिवासी दिल्ली या अन्य राजधानियों में रोजगार के लिए बरसों से रह रहे हैं। उनके आंकड़े भी जनगणना में शामिल नहीं किये जाते। न ही उनके राशनकार्ड बनते हैं। न ही वे कहीं के वोटर होते हैं। इस तरह इन्हें नागरिकता से भी वंचित रखा जाता है।. घनश्याम गागराई कहते हैं कि मौजूदा शिक्षा पद्धति के कारण आदिवासी बच्चों को हिन्दुओं के सभी तीज त्यौहारों की जानकारी और मानने के हालात पैदा किए जाते हैं। वे अपने मूल तीज त्यौहार तक याद नहीं रख पाते। उनकी सांस्कृतिक-सामाजिकता इरादतन धूमिल की जा रही है। मसलन, विवाह के नाम पर हिन्दू समाज में लिया जाने वाला दहेज एक दैत्य की तरह आदिवासी समाज में भी प्रवेश कर चुका है। गागराई सूक्ष्म बात कहते हैं कि कई आदिवासियों की संस्कृति शहरी हो रही है भले ही उनकी व्यापक सामुदायिक पहचान जातीय नस्ल की नहीं है।
कुछ आदिवासियों का कहना है कि प्रसिद्ध आदिवासी चिंतक डॉ रामदयाल मुंडा ने आदिवासी धर्म और आध्यात्मिकता को वैचारिक आधार देते हुए ‘आदि धर्म‘ नाम की महत्वपूर्ण किताब लिखी है। उनकी यह किताब संघ के ‘एक धर्म हिंदू‘ नामक नारे का प्रतिपक्ष है। रांची में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल ने कहा था कि आदिवासियों को सरना धर्म कोड की जरूरत नहीं है। संघ तो उन्हें हिंदू मानता है। तब आदिवासी समाज में काफी उलट प्रतिक्रिया हुई थी। संघ बिल्कुल नहीं चाहता कि आदिवासी हिंदुत्व के फ्रेम से बाहर हो जाएं। उन्हें रोकने के लिए कोई न कोई वैधानिक रास्ता जरूरी है। इसलिए जहां जहां भाजपा की सरकारें हैं, वहां वहां धर्मांतरण के खिलाफ अधिनियम पारित कर कठोरता के साथ आदिवासियों के ईसाई बनने पर दबाव बनाया जाए और जो आदिवासी ईसाई बन चुके हैं उनकी हिंदू धर्म में वापसी के लिए रास्ता खोला जाए।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सर संघचालक मोहन भागवत ने कहा है कि आगामी जनगणना में धर्म वाले कॉलम में आदिवासी अपना धर्म हिंदू लिखें। इसके लिए संघ देश भर में अभियान चलाएगा। झारखंड में लंबे समय से आदिवासी अपने लिए सरना धर्म कोड की मांग कर रहे हैं।. सरना धर्मगुरु बंधन तिग्गा कहते हैं कि मोहन भागवत के कहने भर से हम आदिवासी हिंदू धर्म नहीं अपनाने वाले हैं। बीती दो जनगणना में हमने अपना धर्म सरना लिखा है। झारखंड ही नहीं, कुल 21 राज्यों के आदिवासियों ने सरना लिखा है। इस बार भी लिखेंगे। आदिवासी लेखक और सेंट्रल यूनिवर्सिटी गया में असिस्टेंट प्रोफेसर अनुज लुगुन कहते हैं कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं। दरअसल, संघ की खयाली चिंता है कि हिंदू आबादी बढ़ाएंगे। इसके लिए दस प्रतिशत आदिवासियों को उसमें शामिल करना चाहते हैं। अगर संघ की चिंता है कि आदिवासी दूसरे धर्मों में नहीं जाएं, तो केंद्र में उसकी सरकार को सरना धर्म कोड लागू करा देना चाहिए। लगातार मांग के बावजूद संसद के भीतर यह विधेयक अभी तक पेश नहीं किया गया है। इसे कांग्रेस भी पेश नहीं करना चाहती क्योंकि उसके साथ ईसाई आदिवासियों की बड़ी संख्या है।’
भारतीय ट्राइबल पार्टी के मुखिया छोटूभाई वासवा कहते हैं कि ‘आदिवासियों के लिए आदिवासी धर्म का ही कॉलम होना चाहिए, सरना, भील, गोंड या मुंडा भी नहीं। वे कहते हैं हिंदू नाम का कोई धर्म नहीं है। संघ वाले हिंदू शब्द स्थापित करना चाहते हैं। वह तो वास्तव में सनातन धर्म है।’ वासवा के अनुसार ‘जब तक बाहरी लोग आदिवासी इलाकों में नहीं आए थे, जन्म से लेकर मृत्यु तक आदिवासी संस्कृति कायम थी। भारत का असली इतिहास तो आदिवासियों से शुरू होता है। ए0 गौतम ने अपनी किताब ‘दि हिंदु आई जेरान ऑफ ट्राइबल ऑफ झारखंडः ए आउटलाइन सिन्स बिगिनिंग‘ में लिखा है कि धार्मिक बंटवारे की जड़ उन्नीसवीं सदी से ही शुरू होती है। कुछ लेखकों और विचारों तथा आदिवासी नेताओं का कहना है कि प्रसिद्ध आदिवासी क्रांतिकारी बिरसा मुंडा ने ईसाई मिशनरियों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। वह बाद में ब्रिटिश राज के खिलाफ स्वतंत्रता की लड़ाई के रूप में चित्रित किया गया। हालांकि बिरसा मुंडा का आंदोलन ईसाई धर्म प्रचार के खिलाफ भी काफी मुखर था। उन्होंने सरना धर्म को फिर से सामने रखा था। इसके बारे में हिंदुत्ववादी संगठनों का तर्क है कि सरना और हिंदू धर्म में कोई फर्क नहीं है क्योंकि दोनों प्रकृति और अपने पूर्वजों की पूजा करते हैं। इसके विरोध में भी तर्क हैं क्योंकि आदिवासी हिंदुओं की तरह जाति व्यवस्था में विश्वास नहीं करते और मूर्ति पूजा भी नहीं करते।