आदिवासी हिन्दू कैसे हैं ?
कनक तिवारी
यह सवाल उत्तेजक और विवादास्पद है कि आदिवासी दरअसल अपनी बुनियाद में ही हिन्दू हैं या उनका हिन्दूकरण करने की कोशिशें लंबे अरसे से की जा रही हैं। समाजशास्त्र, इतिहास और नृतत्वशास्त्र के कुछ विद्वानों के अकादेमिक ऐलान के साथ साथ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रतिनिधि संस्थाएं मसलन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी सभी सम्बद्ध इकाइयां इरादतन समाजसेवा कहते शैक्षणिक एवं अन्य संस्थाओं के जरिए आदिवासियों को ‘वनवासी‘ कहती उन्हें अपनी गढ़ी परिभाषा में पहले हिन्दू धर्म का और अब हिन्दुत्व का अविभाज्य अंग करार दे रही हैं। अंगरेजी शब्द ‘इन्डिजिनस‘ का हिन्दी अनुवाद ‘आदिवासी‘ तो दुनिया में साहित्य और गम्भीर लेखन में मौजूद है। भारत में आदिवासियों का बड़ा धड़ा हिन्दू कहलाने से परहेज करता है। इसके बरक्स कई आदिवासी हिन्दू धर्म की मान्यताओं, प्रथाओं और परंपराओं में शामिल शरीक होते भी चले जा रहे हैं। बी.बी. कोसांबी उसे व्यापक भारतीय समाज के प्रसार के रूप में कहते हैं।
कई आदिवासी विचारकों ने हिन्दुत्व के छाते के नीचे आदिवासियों को खड़ा करने का विरोध किया है। आदिवासी शब्द को ही समझना कठिन है। संविधान में आदिवासी के बदले ‘आदिम जनजाति‘, कभी ‘ट्राइबल,‘ कभी ‘वनवासी‘ और अब अनुसूचित जनजाति शब्द से पहचाना जाता है। संविधान सभा में आदिवासी सदस्य जयपाल सिंह मुंडा ने चिढ़कर कहा था आदिवासियों को ‘जंगली‘ तक कहा जाता है।। कई लोग उन्हें ‘भूमिपुत्र‘ या ‘वनपुत्र‘ कहना ज्यादा मुनासिब समझते रहते हैं। तो उन्हें आदिपुत्र और आदिपुत्री भी कहा जा सकता है। . अपनी ताजा किताब ‘हिन्दू एकता बनाम ज्ञान की राजनीति‘ में समाजचेता‘ वैज्ञानिक वृत्ति के लेखक और शोधकर्ता अभयकुमार दुबे आदिवासियों के हिन्दूकरण के संबंध में तर्क करते हैं कि ‘‘संघ विरोधी विमर्श में यह दावा बड़े जोश के साथ किया जाता है कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं। वे ब्राह्मणवाद के तहत जातिप्रथा को नहीं मानते और उनमें भक्ति तत्व ही नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि इन दावों में बड़ी हद तक सचाई भी है, लेकिन ये दावे कुछ इस तरह से किये जाते हैं मानो सदियों से हिंदू समाज और आदिवासी समाज दो अलग अलग खानों में एक दूसरे से अपरिचित बने रहे हों।। 1941 में प्रकाशित अपने बहुचर्चित लेख ‘हिंदू मेथड आफ ट्राइबल एब्जाॅप्शन‘ में प्रोफेसर निर्मल कुमार बोस ने उन धीरे धीरे चलने वाली गहन प्रक्रियाओं का वर्णन किया है, जो प्राचीन काल से ही हिंदू दायरे और आदिवासियों को परस्पर निकट लाने की भूमिका निभाती रही हैं।‘‘
प्रसिद्ध भारतीय मानवशास्त्री निर्मल कुमार बोस गांधीजी के निजी सचिव भी रहे हैं। उन्होंने नई अवधारणा प्रस्तुत की थी जिसे गांधी, नेहरू, ठक्कर बापा बल्कि अंबेडकर सहित पूरी संविधान सभा ने भी स्वीकार कर लिया था। इसे विश्वविद्यालयों में मानवशास्त्र तथा समाजशास्त्र के पाठ्यक्रमों के आधारभूत सिद्धांतों की तरह पढ़ाया जाता है। इसका श्रेय एम.एन. श्रीनिवास को दिया जाता है जो निर्मल बोस के दृष्टिकोण के समर्थक रहे हैं।। … नई चिंताओं से लबरेज खोजों के कारण प्रसिद्ध मानवशास्त्री और निर्मल बोस के समकालीन तारकचंद्र दास (1898-1964) उभर रहे हैं। उन्होंने अपनी समझ की तात्विकता को बेहतर, वैज्ञानिक और सेक्युलर आधारों पर समीक्षित करते लगभग उलट या अलग निष्कर्ष निकाले। तारकदास की खोजें मैदानी हकीकतों पर ज्यादा निर्भर रही हैं। उन्होंने यह भी कहा ‘‘जनजातियों का आजादी पसंद तबका ब्रिटिश वर्चस्व और हिन्दू संस्कृति के आगे बढ़ते कदमों के सामने ठुकराने की बजाय पीछे हट गया और उसने पहाड़ों की कंदराओं और साल के जंगलों में शरण ली। उसने अपने समाज और संस्कृति की रक्षा के लिए सामाजिक वर्जनाओं की दीवारें खड़ी कर लीं।‘‘
गोविन्द सदाशिव धुर्वेे जनजातियों को जाति मानने की बजाय ‘पिछड़े हिन्दुओं‘ की संज्ञा देते हैं। इसके ठीक उलट आदिवासी अकादेमिक वर्जीनियस खाखा मानते हैं कि जनजातियों को हिन्दू नहीं कहा जा सकता। उनका तर्क है कि जनजातियां प्राकृतिक धर्म मानती हैं। भले ही उसके कुछ तत्व हिन्दू धर्म के तत्वों के सामंजस्य में या समानान्तर भी लगें। आदिवासियों के कई जनजातीय आचरण और व्यवहार अमेरिका और अफ्रीका की जनजातियों के व्यवहारों से काफी मिलते जुलते हैं। धुर्वे के विचारों से लाभ उठाते दक्षिणपंथियों ने आदिवासियों को हिन्दू धर्म का हिस्सा करार दिया है। खाखा आपत्ति करते हैं कि गैरजनजातीय समाजों से तुलना करते हुए आदिवासियों का जातियों के खांचे में ढालकर सामाजिक निर्धारण किया जाता है। वह एक अवैज्ञानिक फाॅर्मूला है। विचारक वाहरू सोनवड़े का कहना है आदिवासी लोग बिल्कुल हिन्दू नहीं है। इसीलिए हिन्दू कोड बिल आदिवासियों पर लागू नहीं किया जाता। आदिवासी विद्वान डा. रामदयाल मुंडा ने अपनी किताब में आदिवासियों को हिन्दू बताने से होने वाले दूरगामी परिणामों की ओर इशारा किया है। उन्होंने कहा ऐसा होने पर पूरे हिन्दू समाज में आदिवासियों का सामाजिक स्वीकार और स्तर अनुसूचित जातियों अर्थात दलितों के समकक्ष बताया जाकर नीचे कर दिया जाता है।
ए0 के0 पंकज भारत की जनगणना के आधार पर नई बात कहते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत में आदिवासियों के ईसाईकरण से ज्यादा हिंदूकरण हुआ। अंग्रेजी राज में 30 लाख लोगों में 16 लाख हिंदू बन गए। सिर्फ 35 गोंडों ने ईसाई धर्म स्वीकार किया। बीस लाख भीलों में सोलह लाख हिंदू बन गए। आठ हजार ने मुस्लिम धर्म अपनाया और केवल 133 ने ईसाईयत ली। पच्चीस लाख संथालों में दस लाख हिंदू बने जबकि ईसाई धर्म अपनाने वालों की संख्या केवल चौबीस हजार रही है। इसी तरह दस लाख उरांव में चार लाख हिंदू और दो लाख ईसाई बने। यह संयोगवश है कि 1920 से 1930 का दशक गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रवादी आंदोलन का सबसे सक्रिय दौर रहा है।
केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय के मुताबिक देश के 30 राज्यों में कुल 705 जनजातियां रहती हैं। झारखंड के पहले मुख्यमंत्री और बाद में बीजेपी में गए आदिवासी नेता बाबूलाल मरांडी कहते हैं कि ‘जिसकी जो इच्छा हो वह उस धर्म को मानें। संविधान और भारत का विचार दर्शन यही कहता है। यही तो हिन्दुत्व विचारधारा कहती है।। लेखक अश्विनी पंकज ने अपनी किताब ‘मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा’ के पेज नंबर 68 में यह जिक्र किया कि ‘जयपाल सिंह मुंडा की बनाई आदिवासी महासभा को लाखों आदिवासियों ने अपना समर्थन दिया। 1939 में उन्हें कमजोर करने के लिए ठक्कर बापा ने राजेंद्र प्रसाद के कहने पर आदिम जाति सेवक मंडल बनाया जिसने आदिवासियों के बीच हिंदूकरण की प्रक्रिया की सांगठनिक और राज्य प्रायोजित शुरुआत की।’(जारी है।)
कनक तिवारी