सिसकता भारतीय लोकतंत्र और अव्यवस्था के चलते कीड़ेमकोड़ों की तरह मरती भारतीय गरीब जनता,आखिर क्यों और कब तक ?
-निर्मल कुमार शर्मा
अभी हाल ही में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को फटकार लगाई थी। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सुनवाई के दौरान कहा कि ‘ किसी भी सभ्य समाज में अगर जन स्वास्थ्य प्रणाली चुनौतियों का सामना नहीं कर पाती और दवा के अभाव में लोग मरते हैं तो इसका मतलब है कि समुचित विकास नहीं हुआ है। स्वास्थ्य और शिक्षा एक साथ चलते हैं, शासन के मामलों के शीर्ष में रहने वाले लोगों को वर्तमान अराजक स्वास्थ्य समस्याओं के लिए दोषी ठहराया जा सकता है, ऐसे समय जबकि लोकतंत्र मौजूद है जिसका अर्थ है लोगों की सरकार, लोगों द्वारा और लोगों के लिए । ‘अपने आदेश में इलाहाबाद हाई कोर्ट की तरफ से यूपी के मुख्य सचिव को खुद निगरानी करने के लिए निर्देश दिए गए थे। कोर्ट की तरफ से दिया गया यह आदेश आज रात से लागू होना था। इस दौरान इन शहरों में जरूरी सेवाओं वाली दुकानों को छोड़कर कोई भी दुकान, होटल, ऑफिस और सार्वजनिक स्थल नहीं खुलने की बात कही गई थी. साथ ही मंदिरों में पूजा और आयोजनों पर भी रोक लगाने का आदेश दिया गया था। इलाहाबाद हाईकोर्ट की तरफ से जारी आदेश के मुताबिक प्रयागराज, लखनऊ, वाराणसी, कानपुर नगर और गोरखपुर में आर्थिक संस्थानों, मेडिकल और हेल्थ सर्विस, इंडस्ट्रियल और वैज्ञानिक संस्थानों और जरूरी सेवाओं वाले संस्थानों को छोड़कर सभी चीजें बंद रखने के लिए कहा गया था। इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ यूपी सरकार आज सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी। यूपी सरकार की ओर से सॉलीसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा था कि ‘ हमने कोरोना कंट्रोल करने के लिए कई कदम उठाए हैं, कुछ और कदम उठाने हैं, लेकिन लॉकडाउन इसका हल नहीं है । ‘ यूपी सरकार की दलील है कि ‘ प्रदेश में कोरोना के मामले बढ़े हैं और सख्ती कोरोना के नियंत्रण के लिए आवश्यक है, सरकार ने कई कदम उठाए हैं और आगे भी सख्त कदम उठाए जा रहे हैं, जीवन बचाने के साथ गरीबों की आजीविका भी बचानी है, ऐसे में शहरों में संपूर्ण लॉकडाउन अभी नहीं लगेगा, लोग स्वतः स्फूर्ति भाव से कई जगह बंदी कर रहे हैं। ‘ज्ञातव्य है कि कोरोना महामारी के बढ़ते प्रकोप के बीच इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यूपी के पांच शहरों में लॉकडाउन लगाने का आदेश दिया था. हाई कोर्ट ने वाराणसी, कानपुर नगर, गोरखपुर, लखनऊ और प्रयागराज में 26 अप्रैल तक लॉकडाउन लगाने का आदेश जारी किया था।भारत की सबसे बड़ी कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी है। और यह आदेश जारी किया है कि ‘ उत्तर प्रदेश के पांच शहरों यथा लखनऊ, वाराणसी, कानपुरनगर, प्रयागराज और गोरखपुर में अब लॉकडाउन नहीं लगेगा। ‘ इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘ क्यों न इस मामले की सुनवाई हाई कोर्ट ही करे, क्योंकि हमारे पास कई केस लंबित हैं। ‘उक्त वर्णित तथ्यों से लगता है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिया गया निर्णय ज्यादे मानवीय है,क्योंकि आजकल के भीषण कोरोना संक्रमण के चलते उत्तर प्रदेश में सर्वत्र त्राहिमाम मचा हुआ है,उत्तर प्रदेश के अस्पतालों में दवाइयों,बेड,डॉक्टर्स, नर्सेज और अन्य मेडिकल सुविधाओं की नितांत कमी है,यहाँ तक कि समुचित इलाज न होने से कोरोना संक्रमित मरीजों की इतनी संख्या में मौत हो रही है,कि उनके लिए शवयात्रा वाहन तक समय से उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं,श्मशानघाटों और कब्रगाहों में जलाने व दफनाने के लिए शवों की अंतहीन कतारें लग रहीं हैं,श्मशानघाटों में लकड़ियों तक का नितांत अभाव है। इस स्थिति में कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए एकमात्र उपाय लॉकडाउन ही था,परन्तु सुप्रीमकोर्ट के अविवेकी व सत्ता के चाटुकार जजों का लॉकडाउन न लगाने का निर्णय पूरी तरह जनविरोधी व अलोकतांत्रिक है !
इसका स्पष्ट और सीधा कारण है कि सुप्रीमकोर्ट में बैठे जजों में ज्यादेतर वर्तमानकाल की सरकार के कर्णधारों के अनुकंपा पर लगे हैं,इसलिए उनका हर निर्णय सत्तारूढ़ सरकार के कर्णधारों के मनमाफिक फैसले देने में होता है,अब आइए इन सुप्रीमकोर्ट के जजों का चयन कैसे होता है,उसपर एक विहंगम दृष्टिपात करते हैं।अभी पिछले दिनों कुछ राष्ट्रीय स्तर के सुप्रतिष्ठित समाचार पत्रों में एक बहुत ही दुःखी, स्तब्ध और चौंकाने वाले कुछ तथ्यात्मक रिपोर्ट वाले समाचार प्रकाशित हुए हैं,जिनके अनुसार भारतीय राष्ट्रराज्य के सबसे बड़े स्वायत्त लोकतांत्रिक नियामक संस्थान न्यायपालिका यथा हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के जजों के चयन में घोर अनियमितता, लोकतान्त्रिक नियमों की अवहेलना व असंसदीय व्यवहार के बारे में सूचना इस देश की 135 करोड़ जनता के संज्ञान में आया है । समाचार पत्रों की रिपोर्ट के अनुसार आज न्यायपालिका में न्यायालयों में पूर्व में पदासीन रहे उच्च पदस्थ लोगों यथा हाईकोर्ट या सुप्रीमकोर्ट में पदासीन रहे भूतपूर्व जजों के परिवार वाले ही मसलन उनके बेटे,भतीजे या रिश्तेदार ही वर्तमान में भी जज बने बैठे हैं ! इस रिपोर्ट के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में आज भी मुख्य जज सहित कुल 31जज हैं,जिनमें 6 जज पूर्व जजों के बेटे ही बेशर्मी से बैठाए गए हैं । इसके अलावे देश के अन्य 13 हाईकोर्ट्स में भी जज के पद पर आसीन 88 जज भी किसी न किसी भूतपूर्व जज,वकील या न्यायपालिका से जुड़े किसी रसूखदार व्यक्ति के परिवार या रिश्तेदार ही हैं। इस रिपोर्ट का श्रोत सुप्रीमकोर्ट की अधिकारिक वेबसाइट और अन्य 13 हाईकोर्ट्स के डेटा पर आधारित है,भारत के शेष हाईकोर्ट्स के डेटा आश्चर्यजनक रूप से उपलब्ध ही नहीं है ! इस रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि सुप्रीमकोर्ट में इस देश के ‘कुछ 250 से 300 विशेष घरानों ‘ के लोग ही जज बनते हैं। यह उनका ‘खानदानी अधिकार ‘बन गया है। सबसे दुःखद और क्षुब्ध करने वाली बात यह है कि भारत के 135 करोड़ जनसंख्या वाली आम जनता के परिवारों के तीक्ष्णतम् ,कुशाग्रतम् बुद्धि और अति उच्चतम् मेधावी युवा-युवतियों के लिए भी सुप्रीमकोर्ट में जज बनने के रास्ते को इन कुछ गिने-चुने घरानों के लोगों ने पूर्णतः अवरूद्ध कर रखा है !
उक्त रिपोर्ट में मुंबई हाईकोर्ट के एक मजे हुए, प्रसिद्ध कानूनविद् व्यक्ति द्वारा नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन यानि एन.जे.ए.सी.एक्ट को चुनौती देते हुए कॉलेजियम सिस्टम के असंवैधानिकता और अलोकतांत्रिक रवैये पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए सुप्रीमकोर्ट में याचिका लगाने का भी जिक्र है। इस रिपोर्ट में सुप्रीमकोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम सिस्टम पर संशय व्यक्त करते हुए कहा गया है कि यह सिस्टम बहुत ही रहस्यमयी, गुप-चुप और अपारदर्शी तरीके से काम करता है । यहाँ के उच्च न्यायपालिका में रिक्त हुए पदों का न तो कभी नोटिफिकेशन जारी होता है,न उसका कभी किसी मिडिया आदि में विज्ञापन निकलता है ! अभी पिछले दिनों सुप्रीमकोर्ट के बार एसोसिएशन के एक प्रतिष्ठित एडवोकेट ने कॉलेजियम सिस्टम की कमियों और पक्षपातपूर्ण दुर्नीतियों पर करारा हमला बोलते हुए कहा था कि ‘इस सिस्टम में सुयोग्य और क़ाबिल लोगों की पूर्णतः अवहेलना की जाती है और सुप्रीमकोर्ट में ऐसे ‘नाकारा और अयोग्य ‘लोगों की नियुक्ति की जाती है,जिनके ताल्लुकात न्यायपालिका, राजनीति और समाज में दमदार, रसूखदार और प्रभावशाली लोगों से होती है ! ये नाकारा और अयोग्य लोग उक्त वर्णित ‘कथित बड़े लोगों ‘ के भाई-भतीजे-रिश्तेदार या खानदान के होते हैं। अब सुप्रीमकोर्ट में मुख्य जज और अन्य 30 जजों की वर्तमान नियुक्ति की कार्यप्रणाली पर दृष्टिपात करें। इस प्रक्रिया में मुख्य जज सहित अन्य सभी 30 जजों की नियुक्ति के लिए भारत का राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 124 (2) के तहत कार्यवाही करता है। मुख्य जज की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार ? सुप्रीमकोर्ट के अन्य जजों से सलाह लेता है सुप्रीमकोर्ट के जजों के चुनाव में अर्हता मतलब योग्यता के लिए सामान्यतः अन्य सभी भारतीय सिविल सेवाओं जैसे ही नियम हैं यथा वह भारत का नागरिक हो,वह कम से कम 5 साल तक किसी उच्च न्यायालय में जज रहा हो या वह राष्ट्रपति की राय में 10 वर्ष किसी कोर्ट में प्रतिष्ठित वकील के रूप में वकालत किया हो आदि-आदि। इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट के अन्य जजों की अनुशंसा पर भारत का राष्ट्रपति सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्याधीश का चयन कर देता है। इसी प्रकार अन्य 30 जजों की चुनावी प्रक्रिया में राष्ट्रपति महोदय सुप्रीमकोर्ट के मुख्य जज से किसी जज या किसी कथित प्रतिष्ठित वकील के नाम देने का अनुरोध करता है। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट का मुख्य जज अपनी इच्छानुसार सुप्रीमकोर्ट के ही चार जजों के समूह से उस व्यक्ति के बारे में विचार-विमर्श करके, उनकी अनुशंसा के आधार पर उस व्यक्ति विशेष का नाम भारतीय राष्ट्रपति को प्रस्तावित करके भेज देता है और राष्ट्रपति महोदय उसे सुप्रीम कोर्ट का जज चुन लेते हैं ! उक्त सभी रिपोर्ट्स को ध्यानपूर्वक अध्ययन करने पर भारत का कोई भी प्रबुद्ध व्यक्ति यह सहज में ही अनुमान लगा सकता है कि सुप्रीमकोर्ट और अन्य हाईकोर्ट्स में जजों के चुनाव की प्रक्रिया में सब कुछ राष्ट्रपति,मुख्य जज और अन्य जजों के इच्छानुसार और उनके विवेकानुसार ही होता है। जजों के चुनावी प्रक्रिया में कहीं भी लोकतांत्रिक, संवैधानिक, योग्यता आदि मूल्यों का कहीं रंचमात्र भी इसमें जरा भी कहीं भी उल्लेख नहीं है। इसीलिए देश के तमाम हाईकोर्ट्स और सुप्रीमकोर्ट में पूर्व जजों,वरीष्ठ वकीलों और मात्र 250 से 300 खानदानों के कुछ कथित कुलदीपक न जाने कितने दिनों से अपने बाप,चाचा,मामा और फूफा के सिफारिश पर जज बने बैठे हैं ! इस पर तुर्रा यह कि इन सिफारिश पर बन बैठे जजों को इनकी अयोग्यता, इनके भ्रष्टाचार, इनके दुर्व्यवहार आदि कदाचारों पर इनको हटाने की प्रक्रिया बेहद जटिलतम् और दुष्कर है। मसलन ऐसे कतिपय कदाचारी जजों को भी पद से हटाने के लिए बाकायदा संसद की दो-तिहाई बहुमत से पारित किए और लाए गए प्रस्ताव के माध्यम से ही भारत का राष्ट्रपति ही इन्हें मदमुक्त कर सकता है,जबकि संसद में यह दो-तिहाई सांसदों का बहुमत लाना ही लगभग बहुत ही दुष्कर,कठिन और टेढ़ी खीर की बात है। कल्पना करें कितने दुःख, हास्यास्पद और आश्चर्य की बात है कि भारत जैसे देश में कोई रसूखदार मंत्री का बेटा साधारण एल.एल.बी की परीक्षा उत्तीर्ण करके किसी कोर्ट में 10 साल सफलतापूर्वक वकालत कर ले,उसके बाद वह अपने बाप के रसूख के बल पर राष्ट्रपति महोदय की नजरोंं में ‘एक प्रतिष्ठित वकील ‘भी आसानी से बन जाएगा फिर उसे सुप्रीमकोर्ट के 30 जजों में अपना स्थान बनाते हुए सुप्रीमकोर्ट के सीधे मुख्य जज का शपथ राष्ट्रपति महोदय द्वारा लेकर माननीय सुप्रीमकोर्ट का माननीय मुख्य जज बन सकता है ! और उसके किंचित कदाचार पर,उसे हटाने के लिए करोड़ों आमजन द्वारा चुनी संसद के दो-तिहाई सांसदों द्वारा पारित प्रस्ताव के द्वारा ही राष्ट्रपति ही हटा सकता है ! यह भी भारतीय लोकतंत्र का एक नायाब नमूना ही है ! सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट्स में जजों की नियुक्ति की यह अत्यंत घृणित विद्रूपता, संवैधानिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाता और माखौल बनाता,पूर्णतया असंवैधानिक व अलोकतांत्रिक नाटक अब बन्द होनी ही चाहिए। भारत की करोड़ों जनता की आशा की किरण इन न्याय के मंदिरों से अब भाई-भतीजावाद और सिफारिशी संस्कृति का पूर्णतया खात्मा होना ही चाहिए । सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट्स में जज बनना अब किसी की भी बपौती का अधिकार कतई नहीं रहना चाहिए । भारतीय लोकतांत्रिक व संविधान सम्मत राष्ट्र राज्य में सुप्रीमकोर्ट हो या हाईकोर्ट्स इनके जजों के चुनाव में पूर्णतया पारदर्शी,निष्पक्ष,संविधान सम्मत अन्य सिविल सेवाओं की तरह अखिल भारतीय न्यायिक सेवा परीक्षा के सर्वश्रेष्ठ चयनित उम्मीदवारों को ही सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट्स में जज नियुक्त किए जाने चाहिए। भविष्य में उक्त इस परीक्षा के चयनित उम्मीदवारों को सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट्स में जज जैसे अतिमहत्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया जाना चाहिए और इन पहले से सिफारिश पर रखे सभी कुंडली मारे बैठे,अपने उटपटांग,बहुसंख्यक जनहित के खिलाफ अक्सर निर्णय देने वाले इन नाकारा जजों को भारत का राष्ट्रपति जबरन एकमुश्त सेवामुक्त करे और भविष्य में सुप्रीमकोर्ट से होने वाले निर्णय संविधान सम्मत, संसदीय गरिमा के अनुकूल बनाए गए विद्वान, निष्पृह और निष्पक्ष जजों के माध्यमों से इस देश में सर्वजनहिताय और सर्वजनसुखाय तथा न्यायोचित्त निर्णय हों।
-निर्मल कुमार शर्मा