निडर और स्वाभिमानी पत्रकारों के दमन की शुरुआत और पहला शिकार बनाना चाहते हैं सुशील शर्मा को
मैं कमल शुक्ला पत्रकार तथा भारत का एक स्वाभिमानी, निर्भीक नागरिक हुँ और भ्रष्टों का दुश्मन हूं, यही कारण है कि मैं अपने शहर कांकेर के पत्रकार सुशील शर्मा का मित्र हूं और उनकी उपलब्धियों का प्रशंसक भी हूं।
बस्तर बन्धुु के विगत अंक में श्री शर्मा के पत्रकार जीवन का फ्लैशबैक फसाना प्रकाशित हुआ था, आशा है आपने उसे पढ़ा होगा, अगर नही पढ़ा तो उसका पीड़ीएफ आप जरूर मांग लीजिये। सुशील जी के उक्त संघर्ष कथा के बहुत से प्रसंगों का मैं भी चश्मदीद गवाह रहा हूं और यह कहते हुए मुझे कोई संकोच नहीं है कि मेरा जीवन संघर्ष भी बहुत कुछ शर्मा जी जैसा ही रहा है अतः मैं उनके कष्टों और मानसिक यातनाओं को काफी हद तक समझने का दावा कर सकता हूं। इसी वजह से मैंने यह निश्चय किया कि ऐसे कठिन समय में जब सरकार, उसके अधिकतर नेता, बेरहम पुलिस और भ्रष्ट प्रशासन, सब के सब जब एक अकेले पत्रकार के पीछे केवल इसलिए पड़ गए हैं क्योंकि वह सच लिखता है, इसीलिए मुझे कलम उठानी चाहिए और सुशील शर्मा का जितना समर्थन अनेक पत्रकारों तथा बुद्धिजीवियों द्वारा सड़कों पर किया जा रहा है, मैं कम से कम कागज पर एक लेख के माध्यम से कर लूं ।
हमने जब वादी ए गुरबत में क़दम रक्खा था, दूर तक याद ए वतन आई थी समझाने को
यह एक क्रांतिकारी शायर का शेर है, आज के दौर में सच्चे शायर और सच्चे क्रांतिकारी दोनों ही ढूंढना मुश्किल है लेकिन मैंने तो ऐसा पत्रकार देख लिया है, जिसके दिमाग में इस शेर जैसी ही भावना हिलोरें मार रही होगी, जिस समय उसने अपनी छात्रावस्था में पत्रकार बनने का निश्चय किया होगा। मैं समझता हूं, सुशील ने उसी समय सोच लिया होगा कि जिस प्रकार का पत्रकार वह बनना चाहता है, उसके रास्ते में न केवल कांटे हैं, बल्कि एक प्रकार से तलवार की धार पर चलने जैसा काम है ।
इसमें यदि वह अपने देश प्रदेश या परिवेश से भ्रष्टाचार का सफाया चाहेगा तो उसके उद्देश्य की पूर्ति के रास्ते में कई तरह के माफिया और गैंग खड़े मिलेंगे, जिन्हें आज, पूंजीपति, बड़े तस्कर, बड़े अफसर, बड़े नेता दलाल और पुलिस के नाम से जाना जाता है। इस दुष्ट मंडली से जूझे बिना वह कुछ नहीं कर सकेगा क्योंकि यही सब भ्रष्टाचारियों के संरक्षक हैं।
एक परिचित भ्रष्ट किंतु सत्यवादी बन चुके रिटायर्ड थानेदार का कहना है कि मैंने अपनी सर्विस भर में महा-भ्रष्टों को संरक्षण देने का ही पैसा कमाया है। थानेदारी में ईमानदारी की कमाई तो मिलती नहीं। न कोई देश भक्ति है, न जनसेवा बल्कि देश के गद्दार तस्करों दलालों की सेवा करो और आम जनता को सताओ, यही ड्यूटी मैंने जीवन भर की है। रिटायर्ड सत्यवादी थानेदार का सत्य कथन है कि उपरोक्त दुष्ट मंडली में इतनी मजबूत एकता होती है कि उनके बनाए हुए चक्रव्यूह को भेदना, तोड़ना आसान नहीं होता। सुशील ने ऐसे ही अनेक अनुभवी सयानो की सीख प्राप्त की और निश्चय किया कि उसकी पत्रकारिता रूटीन वाली पत्रकारिता नहीं होगी जिसमें पत्रकार सुबह घर से निकल कर थाना और कचहरी का चक्कर लगाकर खबरें इकट्ठी करता और अपने अखबार को भेज देता है, साथ ही जनता से प्राप्त कुछ विज्ञप्तियो को अथवा कुछ “नगर का गौरव” वाले निधन समाचार भिजवा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। सुशील ने बैलगाड़ी की लीक पर चलने वाले बैलों की तरह चलने वाली पत्रकारिता का रास्ता छोड़ा और अपने आप को जोखिम में डालकर खोजी खबर लाने वाले पत्रकार का रोल करना स्वीकार किया, जिसमें जॉब सेटिस्फेक्शन तो था ही, रोमांच भी था और भ्रष्टों के खिलाफ लड़ाई लड़कर अपने फर्ज को पूरा करने की खुशी भी थी। इस राह पर चलकर सुशील ने अपनी शुरुआत में ही दो बहुत बड़े रहस्य उद्घाटन किए, पहला नारायणपुर का बैल जोड़ी फाइनेंस कांड और दूसरा बस्तर के मालिक मकबूजा कांड का द्वितीय संस्करण जिसमें कमिश्नर तक को लपेटे में ले लिया और वह आज भी सुशील के नाम पर रोता रहता है।
मालिक मकबूजा कांड पर जन संगठन एकता परिषद की सहायता से सुशील शर्मा ने एक उपयोगी पुस्तक का प्रकाशन भी “बस्तर का मालिक मकबूजा कांड” शीर्षक से किया, जिसकी एक एक प्रति समाप्त हो चुकी है और द्वितीय संस्करण के लिए किसी निस्वार्थ फाइनेंसर की प्रतीक्षा है। यह पुस्तक बस्तर का अध्ययन करने वालों के लिए वहां की सबसे बड़ी समस्या का सच्चा फोटोग्राफ है, एक गाइड बुक है, जो बस्तर की समस्याओं से तथा वहां चल रहे सफेदपोशो के ठगी के धंधे से भी पाठकों को परिचित कराती है। यह पुस्तक केवल इसलिए पुरस्कृत नहीं हुई क्योंकि पुरस्कार देने वाली संस्थाओं में वही लोग भरे हुए थे, जिनके आपस वालों, सगे वालों और दानदाताओं की पोल इस पुस्तक में खोली गई थीं।
मुझे याद है 1984-85 का समय जब मैं भटकते-भटकते कांकेर पहुंचा तब बस्तर में निर्भीक और निडरता की पत्रकारिता का दौर था तो मेरे हीरो थे, स्व. कीरिट दोषी, स्व.गणेश शर्मा, स्व.बंशीलाल शर्मा और सुशील शर्मा । उस दौर में सुशील शर्मा की रिपार्ट नारायणपुर का बैल जोड़ी फाइनेंस कांड भी भ्रष्टाचार की एक महागाथा है, जिस पर अलग से एक वृहद लेख लिखे जाने की जरूरत है। बैल जोड़ी फाइनेंस कांड के रहस्य उद्घाटन ने सुशील शर्मा को पूरे मध्यप्रदेश में प्रसिद्ध कर दिया था ठीक उसी समय सुशील से जलने वालों को जो कि बहुत दिनों से उसे नीचा दिखाने की ताक में बैठे हुए थे, एक मौका मिल गया। पखांजूर के पास महाराष्ट्र बॉर्डर में ताड़बायली ग्राम में पुलिस तथा नक्सलियों की फेक मुठभेड़ हुई थी, जिसमें गणपति नामक दलम नायक नक्सलवादी को फर्जी एनकाउंटर में मार डाला गया था, यह 05 मार्च 1985 की बात है जिस जमाने में इस क्षेत्र के लोग फर्जी एनकाउंटर नामक किसी चीज को नहीं जानते थे ।
फर्जी मुठभेड़ से लोगों को तत्कालीन नवभारत के पत्रकार सुशील शर्मा ने ही परिचित कराया और साबित कर दिया है कि गणपति नक्सली की मौत पुलिस के हाथों झूठे एनकाउंटर में कर दी गई है । पखांजूर तथा बस्तर के पुलिस अधिकारी सुशील शर्मा से बहुत अधिक चिढ़ते थे क्योंकि वह उन लोगों के विभाग की पोल खोलता रहता था। तब इनमें से एक पुलिस अधिकारी गीदड़ से मिलते जुलते कोलिहा सरनेम वाला था, जो सुशील शर्मा से विशेष रुप से खार खाया हुआ था, क्योंकि उसके अनेक भ्रष्टाचार के मामलों में सुशील शर्मा ने नवभारत रायपुर में प्रमाण सहित विवरण दिए थे, गीदड़ महोदय को डर था कि यदि इस पर तरीके से जांच हो गई, तो वर्दी ही उतर जाएगी।
अंततः बदला लेने हेतु उन्होंने सुशील शर्मा के खिलाफ कई फर्जी मामले अपने चापलूस तथा मुखबिर लोगों की मदद से बनवा लिए, जिसमें सत्य का कहीं कुछ अंश भी नहीं था। सभी जान रहे थे, ये सब झूठे मामले हैं । नवभारत अखबार के सेठों को भी पता था, लेकिन फिर भी खोजी पत्रकारिता के लिए सुशील को पुरस्कृत करने के बदले उन्होंने उन्हें यह सूचित किया कि जब तक आपके विरुद्ध ये सब आपराधिक मामले समाप्त नहीं हो जाते, तब तक हम नवभारत में आपके द्वारा प्रेषित समाचार छापने में असमर्थ हैं आप नवभारत का अपना आई कार्ड वापस भेज दें ।
यानी एक प्रकार से बर्खास्तगी का डंडा मखमल में लपेट कर नवभारत के सेठों ने सुशील के सर पर दे मारा जबकि उस समय सारे प्रदेश में सुशील का मामला पत्रकार जगत में तहलका मचा चुका था और उस मामले को अखिल भारतीय स्तर तक पहुंचाने में आज के वरिष्ठतम साहित्यकार एवं पत्रकार दादा परितोष चक्रवर्ती जी ने सुशील के पक्ष में हिन्दी, अंग्रेजी तथा बंगाली पत्र-पत्रिकाओं में भी आवाज उठाई थी। ऐसी स्थिति में सुशील ने कुछ समय कुछ अन्य सेठाश्रयी अखबारों में भी काम किया। लेकिन पोल खोल वाली खोजी पत्रकारिता के चलते वहां के मालिक लोग भी घबराने लगे कि कहीं ऐसा ना हो कि पुलिस और प्रशासन का कहर उनके अखबार पर टूट पड़े क्योंकि सुशील भ्रष्ट पुलिस प्रशासन का दुश्मन है, अतः अलग-अलग किस्म के बहाने बताते हुए सेठों और सेठ पुत्रों के अखबारों ने सुशील को वापस कांकेर का रास्ता बता दिया । लेकिन कमाल देखिए पुलिस प्रशासन उनके चोर तस्कर यार दोस्त और अखबार सेठ यह सब देखकर हैरान रह गए कि पखांजूर वाले झूठे मामलों में कई बार थाना, कचहरी, जेल देखने के बावजूद सुशील शर्मा का हौसला टूटा नहीं और वह अब स्वयं का समाचार पत्र निकालने का इच्छुक है, यदि ऐसा हो गया तो हालत किसकी खराब होगी ? क्योंकि उस अखबार का तो वह सर्वेसर्वा रहेगा। पहले से कहीं ज्यादा उसकी कलम चुभेगी, यह अखबार किसी तरह निकलना नहीं चाहिए अन्यथा भ्रष्टों की चांडाल चौकड़ी के लिए आफत हो जाएगी और आए दिन कमाना तो दूर जिंदा रहना मुश्किल हो जाएगा। सुशील का प्रयास था नए अखबार का रजिस्ट्रेशन होता लेकिन पंजीकरण कार्यालय दिल्ली में अनेक बाधाएं खड़ी थीं और नहीं लगता था कि साल भर से पहले रजिस्ट्रेशन हो पाएगा। एक ही रास्ता था कि किसी ऐसे रजिस्टर्ड अखबार की टाइटल जुगाड़ी जाए, जो फिलहाल बंद हो। धमतरी का महानदी टाइम्स बंद पड़ा था उसके प्रकाशक रंजीत छाबड़ा उसे जीवित करने के लिए सुशील शर्मा को सौंपने हेतु तैयार हो गये। जब महानदी टाइम्स का पुनः प्रकाशन शुरू हुआ तो उसका उद्घाटन करने धमतरी से साहित्यकार त्रिभुवन पांडे तथा रायपुर एवं अन्य स्थानों के अनेक साहित्यकार पत्रकार तथा बुद्धिजीवी कांकेर आए थे, इस कार्यक्रम में मैं स्वयं मौजूद रहा । उस समय मैं कांकेर से ही प्रकाशित होने वाले “बस्तर की आवाज” में सह संपादक था । इस अखबार में सुशील ने एक कालम शुरू किया था “बताओ मैं कौन हूं ?” जिसमें सांकेतिक रूप से पत्रकारिता के मानदंडों का पालन करते हुए भ्रष्ट लोगों की पोल खोली जाती थी । यह कालम इतना चर्चित था कि तब पाठकों को प्रतीक्षा रहती थी, यह जानने की कि इस अंक में अब किसकी बारी । महानदी टाइम्स के शुरुआती कुछ अंक इतने धमाकेदार निकले कि भ्रष्ट स्वार्थी लोग इसे बंद करने हेतु न केवल धमतरी स्थित उस पत्रकार के पास पहुंच गए, जिसके नाम पर रजिस्ट्रेशन था बल्कि रायपुर, भोपाल होते हुए दिल्ली तक दौड़ लगा आए बाद में पता चला की महानदी टाइम्स का टाइटल और रजिस्ट्रेशन कांकेर के एक जाने-माने सेठजी ने खरीद लिया है। इन्हें अपने नाम के आगे संपादक लिखवाने की इच्छा इतनी प्रबल थी कि इसके लिए उन्होंने पैसे खर्च कर बड़े बड़े अखबारों में महानदी टाइम्स के बड़े-बड़े विज्ञापन प्रकाशित करवाए, जिनमें अपना नाम संपादक प्रकाशक के रूप में डलवाना नहीं भूले, यह बात और है कि अज्ञात कारणों से वे अपने सपनों के अखबार का एक अंक भी किन्ही अज्ञात कारणों से नहीं निकलवा पाए। सबसे तेज बढ़ता, गिरता ,पड़ता अख़बार भी उन दिनों नया-नया निकला था, जिसका संवाददाता का अधिकार सुशील को मिला। अवश्य कुछ दिनों तक कामकाज भी बढ़िया चला । बाद में उस अखबार के मालिकों की हाय पैसा, हाय पैसा की गुहार के आगे सुशील को बहुत अधिक परेशान होना पड़ा, यह एजेंसी भी जाती रही। तब तक सन् 1995 आ चुका था, प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह बन चुके थे जो सुशील शर्मा और उसकी कलम से बहुत अच्छी तरह परिचित थे और फिर केंद्र में कांकेर के अरविंद नेताम जी कृषि मंत्री थे। ऐसी अनुकूल परिस्थिति देखकर शर्मा ने बस्तर बन्धु शीर्षक से एक नया सप्ताहिक अखबार निकालने का निश्चय किया जिसका रजिस्ट्रेशन अपेक्षाकृत जल्दी ही हो गया और पहले ही अंक से बस्तर बन्धु ने सारे बस्तर तथा छत्तीसगढ़ के पक्ष में समां बांधते हुए तथा तत्कालीन भ्रष्टाचारियों का पर्दाफाश करते हुए जो धमाके शुरू किए, वे आज तक जारी हैं, इस बीच के एपिसोड का विस्तृत विवरण आप उनके फ्लैशबैक फसाने में पढ़ ही चुके हैं, अगर नहीं पढ़े हैं तो जरूर पढ़िए । बस्तर बन्धु के विगत 25 वर्षों के तमाम अंक बस्तर से संबंधित महत्वपूर्ण राजनीतिक सामाजिक सांस्कृतिक व ऐतिहासिक घटनाक्रमों का अध्ययन करने वाले शोध छात्रों पत्रकारों के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है । मैं संक्षेप में इतना अवश्य बताना चाहूंगा कि तत्कालीन मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की भ्रष्ट मंडली जिसके चार चांडाल (नेता, व्यापारी, अधिकारी तथा पुलिस) अब तक सुशील शर्मा के पीछे पड़े हुए हैं और बस्तर बन्धुु के निरंतर प्रकाशन की राह में लगातार बाधाएं ही खड़ी करते रहे हैं। सरकारी विज्ञापन जो कि छोटे अखबारों की अर्थव्यवस्था का आधार होता है, बस्तर बन्धुु के लिए लगभग बंद ही हैं । इसके अलावा कागज मिलने, प्रेस मिलने आदि के लिए भी बहुत लंबी अड़चन दौड़, दौड़नी पड़ती है, तब जाकर बस्तर बन्धुु का एक अंक निकल पाता है लेकिन जब भी वह अंक आता है तो पाठकों के लिए बहुत खुशी का दिन होता है ।
बस्तर बन्धुु की प्रतियां देखते ही देखते गायब हो जाती हैं, क्योंकि सुशील शर्मा के घोर विरोधी भी उसे खरीदते हैं, और पहले यह देखते हैं कि कहीं मेरी तो कोई पोल इसमें नहीं छपी है? इसी तरह के डर से अनेक सरकारी कर्मचारी तथा अधिकारी अपने विश्वस्त लोगों को बस स्टैंड भिजवा कर पता करवाते रहते हैं, बस्तर बन्धुु का नया अंक आया कि नहीं, कहाँ मिलेगा ? कुछ ऐसे समर्थक और अधिकतर विरोधी भी हैं जो बस्तर बन्धु इसलिए खरीदते हैं ताकि उसके समाचारों और विचारों की हास्य व्यंग शैली का आनंद ले सकें। बस्तर बन्धु के पोल खोलू प्रहारों से ज्यादा पीड़ित होते हैं, उनके बारे में तो यही लिखूंगा कि पढ़-पढ़ कर रोते हैं और और रो-रोकर पढ़ते हैं। बस्तर बन्धुु की एक विशेष मारक शैली है ।
बस्तर बन्धुु के उदय से पूर्व तक सुशील शर्मा को जिला स्तर तक के अनेक पुरस्कार मिल चुके थे किंतु प्रदेश स्तर के पुरस्कार सम्मान कम ही मिले थे। बस्तर बन्धुु प्रारंभ होने के पश्चात मानो प्रदेश स्तर के पुरस्कार सम्मानों की भी शुरुआत हो गई और अखिल भारतीय स्तर का शंकर गुहा नियोगी स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार भी प्राप्त हुआ, जिसमें उन्हें द्वितीय स्थान मिला था। प्रथम स्थान पर देश के वरिष्ठ एवं जाने-माने पत्रकार तथा समाजसेवी पी. साईनाथ विराजमान थे, जिन्होंने समारोह में सुशील शर्मा की खोजी पत्रकारिता की मुक्तकंठ से सराहना की थी। अनेक लोग नहीं जानते होंगे कि पी. साईनाथ साहब भारत के चौथे राष्ट्रपति स्वर्गीय वी.वी. गिरि के पुत्र हैं, जिन्होंने अपने पिता के नाम का लाभ नहीं उठाने का प्रण कर रखा है, वे कहीं बताते भी नहीं कि वे किनके पुत्र हैं ? साईं नाथ जी की निष्पक्ष और निडर पत्रकारिता का गहरा प्रभाव सुशील शर्मा के लेखन में उसी समय से अधिक झलकने लगा।
उसी समय से उसने निश्चय कर लिया कि जहां कहीं भी अत्याचार की घटनाएं हों, चाहे वह नक्सली अत्याचार हो अथवा पुलिस का जुल्म, उस गांव में स्वयं जाकर घटनास्थल से सत्य को खोज निकालो। सुशील ने साईं नाथ जी से ताड़बायली के नक्सली गणपति वाले झूठे एनकाउंटर की घटना की चर्चा अवश्य की होगी, जिसके विषय में साईं नाथ जी पहले से ही जानकारी रखते थे और उन्होंने अंग्रेजी, हिंदी सहित दक्षिण भारत की 4 भाषाओं में भी उक्त झूठे एनकाउंटर तथा पुलिस की ज्यादती के विषय में लेख भी लिखे थे। साईं नाथ जी ब्लिट्ज के भी वरिष्ठ पत्रकार थे। उन्हें जब किसी ने बताया कि बस्तर बन्धु को बस्तर का ब्लिट्ज कहा जाता है तो वे बहुत प्रसन्न हुए थे। सुशील शर्मा को इस प्रकार के पुरस्कार सम्मान तथा प्रोत्साहन जब मिलते, तो अनेक जलनखोर नेताओं तथा पत्रकारों के पेट में मरोड़ होने लगता था लेकिन सुशील शर्मा इन सबसे बेपरवाह अपने जुनून में, अपनी खोजी पत्रकारिता में, नया अंक निकालने की धुन में, जी जान से लगे रहते थे।
बस्तर बन्धुु के खिलाफ सरकारी तथा गैर सरकारी षड्यंत्र चलते रहे सुशील अपनी राह चलते रहे । बस्तर बन्धु अखबार का बोधवाक्य स्वर्गीय गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता की एक पंक्ति है – “अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे” और सुशील ने अपने अखबार के इस बोध वाक्य को बार-बार सही सिद्ध कर दिखाया है। आज के युग में चपरासी से प्रधानमंत्री तक ऐसे ही लोग मिलते हैं, जिनकी कथनी और करनी में जमीन आसमान का अंतर रहता है लेकिन सुशील के अखबार का बोध वाक्य और सुशील के कार्यों में कोई अंतर नहीं, इस सत्य को मैंने ही नहीं उनके लाखों पाठकों ने भी बार बार देखा है महसूस किया है। यही बात उन्हें सेठों के अखबारों से अलग करती है।
इस बीच उन्होंने अपने जीवन का सबसे बड़ा आघात झेला, जब उनका 23 वर्षीय होनहार युवा पुत्र सचित शर्मा की एक सड़क दुर्घटना में दुखद मौत हो गयी, यह सुशील शर्मा की जीवटता ही है कि उन्होंने इस भीषण सदमे से स्वयं व परिवार को बाहर निकाल वैसे ही अपने कर्तब्य पालन में जुटे हैं मानो कुछ हुआ ही ना हो, एकाकीपन में उन पर जो बीतती होगी ये कोई दूसरा भला कैसे समझ सकता है?
आज बस्तर बन्धुु का एक स्तर है। एक शानदार इमेज है, निष्पक्ष, निर्भीक, उच्च स्तरीय ये तीनों शब्द यदि किसी एक अख़बार पर फिट बैठते हैं, तो वह उत्तर बस्तर कांकेर का बस्तर बन्धुु ही है। पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के खिलाफ़, जब पूरे विपक्ष पर रमन सरकार से मैनेज होने के आरोप चर्चा में था, तब भी सुशील बड़े बड़े मामले साहसिक ढंग से उठाते रहे और अब जब इस सरकार में भी भाजपा सरकार के समय मजे करने वाले अवसरवादी ही लाड़ले बने हुए हैं सुशील सत्ता के साये में चल रहे गड़बड़ घोटालों को दमदारी से छाप रहे हैं । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में कुछ दिन पहले बात करने वाली कांग्रेस को अब किसी की अभिव्यक्ति से खतरा महसूस होने लगा है । सरकार बनने अब 2 साल होने को जा रहे हैं अब तक पत्रकार सुरक्षा कानून का अता-पता नहीं है । बल्कि पत्रकार सुरक्षा कानून के लिए जब प्रदेश के पत्रकारों ने बड़ा आंदोलन खड़ा किया तो भाजपा सरकार द्वारा मजबूर होकर बनाए गए पत्रकारों के उत्पीड़न रोकने की एक उच्च स्तरीय समिति को भी इस सरकार ने निष्क्रिय कर दिया। पूर्व में जारी अधिसूचना के तहत पत्रकारों के खिलाफ आईपीएस स्तर के अधिकारी की जांच की अनुशंसा के बाद ही रिपोर्ट दर्ज किए जाने के आदेश को भी इन्होंने कचरे के डब्बे में डाल दिया है । ज्ञात हो कि फर्जी शिकायतों को ही सही मानते हुए, एक तरफा बिना किसी जांच के दो दर्जन से ज्यादा पत्रकारों के खिलाफ इस सरकार ने अब तक मामले दर्ज कर रखे हैं । कई को जेल भी भेजा है, कई गिरफ्तारियां भी हुई है ।
पत्रकारों की सुरक्षा की बड़ी बड़ी बातें करने वाली कांग्रेस की सरकार सुशील शर्मा के खिलाफ एफआईआर पर एफआईआर दर्ज कर रही है, गिरफ्तारी कर रही है । यहां तक कि जगदलपुर में उनके खिलाफ उस महिला पत्रकार कम नेता की फर्जी शिकायत बिना जांच किये दर्ज कर ली गई, जो पिछले भाजपा सरकार के कार्यकाल पूरी सक्रियता से भाजपा कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय रही, यहां तक कि उसकी सक्रिय भागीदारी कुख्यात आईजी कल्लूरी द्वारा आदिवासियों के शोषण और अत्याचार के खिलाफ लिखने वाले पत्रकारों और आवाज उठाने वाले समाजसेवी कार्यकर्ताओं पर दमन करने की नियत से बनाए गए विवादास्पद संगठन अग्नि और सामाजिक एकता मंच जैसे संगठनों में भी रही ।
सुशील शर्मा को प्रताड़ित करने की नियत से घर पर वर्दीधारी पोलिस जवान नोटिसें तामिल करने भेजे जा रहे हैं, सुशील शर्मा के साथ इस सरकार का बर्ताव देख कर प्रदेश की जनता में बहुत ही गलत संदेश जा रहा है यह बात सरकार को याद रखना होगा। अकेले मैं ही नहीं, मेरे जैसे लाखों पाठकों के हृदय से बस्तर बन्धुु और सुशील शर्मा के लिए असीम, अशेष शुभकामनाएं !!