सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ जंग लड़ने वाला सबसे ताकतवर योद्धा
समाजवादियों की पीढ़ी में अकेले लालू प्रसाद यादव थे जो सड़कों पर उतर कर राजनीति करने के महत्व को समझते थे और बार बार उसका इस्तेमाल करते थे। उन्हें पता था कि पिछड़ी दलित जनता को यह मनोवैज्ञानिक एहसास कैसे कराया जाए कि न केवल सत्ता उनकी है बल्कि इसे चला भी वही रहे हैं। यह लालू की शैली थी कि पिछड़े दलित ख़ुद को सत्ता का हिस्सेदार समझते थे केवल वोटर नही। लालू के समकालीन किसी भी समाजवादी नेता में यह करिश्माई अन्दाज़ हमने नही देखा।
यह बात कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष को लालू प्रसाद यादव से सीखना चाहिए कि साम्प्रदायिक शक्तियों से कैसे निपटें। 6 दिसम्बर के बाबरी विध्वंस के बाद जनता लालू के साथ ही क्यों खड़ी रही भाजपा के पक्ष में क्यों नही गयी? इसके पीछे की राजनीति आज भी प्रासंगिक है।लालू को यह पता था कि साम्प्रदायिक शक्तियों का कड़ा विरोध करके ही बिहार और देश की राजनीति में लम्बे समय तक बना रहा जा सकता है यह जोखिम भरी बात थी मगर उन्होंने जोखिम उठाया।लालू ख़ुद को पहले पिछड़ों के नेता कहते थे लेकिन उन्होंने बाद में ख़ुद को मुस्लिमों और पिछड़ों का नेता कहने में गर्व किया। लेकिन यह भ एक सच्चाई है कि लालू के राज में अगड़ों की वैसी हकतलफ़ी नही हुई जैसी हकतलफ़ी देश के तमाम राज्यों में पिछड़ों और दलितों के नेताओं ने की थी।
राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाए जाने को लालू प्रसाद यादव की बड़ी भूल बताया जाता है लेकिन सच्चाई यह है कि अगर राबड़ी मुख्यमंत्री नही बनती तो उनकी पार्टी 1997 में ही टूट जाती। जानने वाले जानते हैं कि 97 जुलाई में जब लालू का जेल जाना लगभग तय हो गया था, पार्टी में अलग अलग शक्ति केंद्र बनने लगे। उस एक वक़्त लालू की मुर्ग़ा और बाटी पार्टी की चर्चा ज़ोरों पर थी जो रोज़ किसी ने किसी दावेदार के घर होती, नतीजा यह हुआ कि जो विभीषण बन सकते थे वो भरत बन गए और अंततः पार्टी को एक रखने के लिए और विधायकों के साथ साथ जनता को यह एहसास कराने के लिए कि पार्टी हम चला रहे हैं लालू ने राबड़ी को सीएम बना दिया।लालू की जवाबदेही आम जनता के लिए थी, है और रहेगी। इससे फ़र्क़ नही पड़ता कि पत्रकार क्या सोचते हैं? विपक्ष क्या सोचता है?
आवेश तिवारी