बीमारियों के सामाजिक प्रभाव में रूढ़ि, लिंग, जाति व धर्म के स्थापित श्रेष्ठता बोध को ध्वंस करना भी है
–— कोविड-19 पैंडेमिक के दौरान पुरुष होना —-
बीमारियों के कई सामाजिक प्रभावों में रूढ़ लिंग , जाति व धर्म के स्थापित श्रेष्ठता-बोध को ध्वंस करना भी है। वे जो स्वयं को रोग के सामने शक्तिशाली समझते हैं , रोगग्रस्त होकर अस्पताल जाने पर मजबूर हो जाते हैं। यह घटना उनके तन-मन में तोड़ती तो है ही , साथ वालों को भी कई बार आश्चर्य होता है। अरे ! आप तो इतने हेल्दी थे ! आप भी बीमार !
किसी का हेल्दी दिखना क्या है ? छह फ़ुट का होना ? बॉडीबिल्डर होना ? धावक या तैराक होना ? पुरुष होना ? पुलिस या सेना में होना ? और किसी का अपेक्षाकृत कम हेल्दी होना क्या माना जाए ? पाँच फुट का होना ? इकहरा या बहुत मोटा होना ? कसरत न करना ? स्त्री होना ? या पुलिस-सेना जैसे कामकाज न करना ?
मेरे बाबा के एक बालसखा द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान म्यांमार ( तब बर्मा ) में जापानियों की बमबारी से बचते हुए हैजे से कालकवलित हुए थे। आसमान से गिरते किसी बम या चली गोली के कारण वे नहीं मरे , किन्तु हैजे के जीवाणु विब्रियो कॉलेरी ने उनकी आँतों से खनिज व लवण का अनवरत स्राव कराकर प्राण ले लिये। वे छह फुट के भी थे , बचपन से धावक रहे और कदकाठी भी मज़बूत थी। किन्तु आँख से न दिखने वाले एक अतिसूक्ष्म जीवाणु ने तथाकथित उच्च पुरुषत्व की सभी पहचानों के साथ उन्हें सदा के लिए सुला दिया।
कई लोग इसके विपरीत विचारधारा को भी हवा देते रहते हैं। स्त्री-पक्षीय अतिरेक के कारण वे महिलाओं को आन्तरिक रूप से अधिक सशक्त बताने लगते हैं। आज-कल चल रही कोविड-19 पैंडेमिक को वे उदाहरण के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। देखिए , इस रोग के कारण मरने वालों में पुरुषों की संख्या अधिक है। कौन कहता है कि महिलाएँ कमज़ोर हैं ?
एक मेडिकल विशेषज्ञ के तौर पर ऐसी लैंगिक बायनरी पर क्या कहा जाए ? यदि उदाहरण का ही उल्लेख करना है , तब सन् 2003 के सार्स से बात आगे बढ़ाता हूँ। उस सार्स से संक्रमित होने वालों में महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक थी। वर्तमान सार्स-सीओवी 2 का लैंगिक अनुपात उलटा है। सन् 2015 के मर्स-संक्रमण का लैंगिक अनुपात फिर पुरुषों की ओर झुका हुआ था। तीनों कोरोनावायरस किन्तु , एक-से लैंगिक रुझान वाले नहीं। क्यों ?
समस्या लैंगिक अनुपात निकालने वाले वैज्ञानिकों में नहीं है , समस्या उनके आधार पर पुरुषों अथवा स्त्रियों को शक्तिवान् अथवा शक्तिहीन कहने वालों में है। शरीर की शक्ति को बहुधा लोग ठीक से समझ ही नहीं पाते। पारम्परिक सोच ऊँचे कद , चौड़ी काठी , भरी हुई मांसपेशियों और भारी हड्डियों को स्वास्थ्य का मानक मानती है ; जो तथाकथित प्रगतिशील सोच का परिचय देना चाहते हैं , वे इन मानकों का भंजन करके दूसरा पाला बना लेते हैं।
इम्यून सिस्टम की सेहत को लम्बे-छोटे होने , मोटे-पतले होने , कसरत करने-न करने , स्त्री या पुरुष होने से तय करना सतही अवधारणा रखना है। प्रतिरक्षा-तन्त्र बहुआयामी है , इसके सुचारु स्वास्थ्य और विकृत रोग , दोनों के पीछे अनेक ज्ञात एवं अज्ञात कारण व कारक उत्तरदायी हैं। हर संक्रमण भिन्न है , हर कैंसर अलग। हर मनोरोग जुदा है , हर ऑटोइम्योन बीमारी में अन्तर है। ऐसे में साधारण मामूली सोच से यह कैसे कह दिया जाए कि अमुक व्यक्ति पुरुष होने के कारण सुरक्षित या असुरक्षित है अथवा स्त्री होने के कारण ?
रोगों की लैंगिकी को समझने का अर्थ किसी भी पाले में न खड़ा होना है। यह जानना है कि अनेक रोगों में पुरुषों के बीमार पड़ने की आशंका अधिक होती है , अनेक में स्त्रियों की। अनेक संक्रामक रोग पुरुषों में अधिक मिलते हैं , अन्य संक्रामक रोग स्त्रियों में। सड़क की दुर्घटनाएँ पुरुषों में अधिक मिलती हैं , ऑटोइम्यून रोग महिलाओं में। अनेक कैंसरों में भी लैंगिक अनुपात भिन्न-भिन्न मिला करते हैं।
किसी भी बीमारी के सन्दर्भ में स्त्री अथवा पुरुष होने के क्या मायने हैं ? क्या स्त्री अथवा पुरुष की आनुवंशिक लैंगिकी ( जेनेटिक सेक्स XX अथवा XY ) उन्हें ख़ास रोग से बचाती है अथवा आशंका बढ़ाती है ? अथवा क्या स्त्री-हॉर्मोन ईस्ट्रोजेन या फिर पुरुष-हॉर्मोन टेस्टोस्टेरॉन किन्हीं रोगों से स्त्रियों या पुरुषों की रक्षा करते हैं ? या फिर स्त्रियों और पुरुषों का सामाजिक जीवन ( नौकरी करना- न करना , किस प्रकार का काम करना , किस तरह के घर में रहना कैसा खानपान खाना ,कैसे संसाधनों का प्रयोग करना ) भी उनकी रोगी होने या नीरोग होने में भूमिका निभाता है ?
वर्तमान कोविड-19 में पुरुषों की मृत्यु-दर स्त्रियों से अधिक है , इससे क्या अर्थ निकाला जाए ? पुरुषों की जेनेटिक्स को उत्तरदायी ठहराया जाये , उनके हॉर्मोनों को अथवा उनके रहनसहन को ? क्या इतना कहना काफ़ी होगा कि पुरुषों का इम्यून सिस्टम कमज़ोर होता है ? इम्यून सिस्टम के कमज़ोर या मज़बूत होने के क्या मायने हैं ? क्या स्त्रियों का इम्यून सिस्टम मज़बूत होता है ? यदि हाँ , तो फिर उन्हें कई अन्य संक्रमण व ऑटोइम्यून रोग क्यों अधिक होते हैं ?
क्या केवल पुरुष होने से किसी महामारी के दौर में लापरवाह होने का मनमाना बेपरवाह जोखिम उठाया जा सकता है ? या फिर कोई स्त्री केवल लैंगिक अनुपात को आधार मानकर बिना मास्क के हाथ न धोकर सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ उड़ा सकती है ? क्या सांख्यिकी के सामूहिक आँकड़ों से व्यक्तिगत डूज़-डोंट्स का चुनाव करना सही है ?
ऐसे ढेरों प्रश्नों के निश्चित उत्तर विज्ञान को नहीं पता। वह उत्तर खोजने में लगा है , उत्तररदायित्व की ओर बढ़ रहा है। लेकिन जो प्रश्न अनुत्तरित या अन्शोत्तरित हैं , उनमें अपनी मर्ज़ी से कुछ भी घटाना-बढ़ाना ठीक नहीं।विज्ञान के नतीजों से सामाजिक स्थापनाओं का मण्डन या भंजन दोनों सोच-समझ कर करना चाहिए। महामारियों की रोकथाम के उपायों को चुनते समय लैंगिक पहचान को सुरक्षा मानना बहुत बड़ी नादानी होगी।
— स्कन्द।