कोरोना वायरस : सोशल डिस्टेंसिंग पर अमल के लिए क्या प्रधानमंत्री वाकई गंभीर है?
आलेख : संजय पराते
कोरोना वायरस यदि विश्वव्यापी महामारी का जनक है, तो उससे लड़ने के लिए किसी भी देश के पूरे संसाधनों को झोंक देना चाहिए। भारत के लिए भी यही होना चाहिए। विभिन्न देशों ने इससे लड़ने के लिए सैकड़ों अरबों डॉलर : मसलन अमेरिका ने 850 अरब डॉलर, यूनाइटेड किंगडम ने 440 अरब डॉलर (जीडीपी का 15%), स्पेन ने 220 अरब डॉलर, कनाडा ने 82 अरब डॉलर, फ्रांस ने 50 अरब डॉलर (जीडीपी का 2%) और स्वीडन ने 30 अरब डॉलर झोंक दिए हैं, ताकि स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाया जा सके और अर्थव्यवस्था में पहले से चली आ रही मंदी के ऊपर से आई इस विपदा की जो मार आम जनता के जीवन पर पड़ रही है, उससे अपने देश के नागरिकों को राहत दी जा सके। इस वायरस के हमले का सीधा संबंध शरीर की प्रतिरोधक क्षमता से है और यह जरूरी है कि इस संकटकाल में न केवल किसी व्यक्ति के शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बनाकर रखा जाए, बल्कि इस क्षमता को बढ़ाने की भी जरूरत है। कोरोना वायरस का मुकाबला भी तभी किया जा सकता है।
लेकिन प्रधानमंत्री मोदी का संदेश आश्वस्तिदायक नहीं है कि वह अपने देश के नागरिकों की प्रतिरोधक क्षमता को बनाए रखने और उसे बढ़ाने के प्रति कतई चिंतित है। इस महामारी से निपटने के लिए किसी भी आर्थिक डोज के पक्ष में वह नहीं है और आम जनता को उसके हाल पर केवल ‘संकल्प और संयम’ के भरोसे छोड़ देना चाहते हैं।
अब यह सर्वज्ञात वैज्ञानिक तथ्य है कि इस बचाव का सबसे बेहतर और कारगर उपाय सोशल डिस्टेंसिंग है। जब तक कोरोना का प्रभाव हमारे देश में खत्म नहीं होता, लोग अधिकतम समय अपने घरों में बंद रहे और सामाजिक मेल-मिलाप और भीड़ में जाने को यथासंभव टालें। यही कारण है कि कोरोना-प्रभावित मरीज और उनके संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को आइसोलेशन में रखा जाता है। सवाल यही है कि हमारे जैसे विकासशील देश में इस उपाय को अमल में कैसे लाया जाए, जहां की जनता का 90% हिस्सा अपनी रोजी-रोटी की समस्या से रोज जूझता हो।
भारत में करोड़ों लोग हैं, जिनका कोई स्थाई ठिकाना नहीं है और रात की नींद भी उन्हें सड़क किनारे आसमान की चादर ओढ़ कर लेनी पड़ती है। करोड़ों किसान हैं, जो अर्ध-सर्वहारा की श्रेणी में पहुंच गए हैं और रोजगार की खोज में उन्हें 50 किलोमीटर की दूरी रोज तय करनी पड़ती है। करोड़ों लोग हैं, जिनके साल का आधा समय बंधुआ मजदूर के रूप में ठेकेदारों के तंबू में गुजरता है और बदले में वे केवल जिंदा रहने लायक मजदूरी पाते हैं। लाखों घरेलू कामगारनियां हैं। असंगठित क्षेत्र में कम से कम 10 करोड़ मजदूर परिवार हैं, जो रोज कमाने-खाने वाली जिंदगी ही जी पाते हैं। कुल मिलाकर 130 करोड़ की आबादी में 20 करोड़ परिवार ऐसे होंगे, जिनके लिए सोशल डिस्टेंसिंग के उपाय पर अमल करना आसान नहीं होगा।
प्रधानमंत्री मोदी के भाषण में इस तबके के लिए ऐसा क्या है, जिसके बल पर यह विशाल तबका सोशल डिस्टेंसिंग पर अमल कर लें? क्या केवल एक दिन के ‘जनता कर्फ्यू’ से सोशल डिस्टेंसिंग का मकसद पूरा हो जाएगा और कोरोना महामारी हार जाएगी?
सोशल मीडिया में भक्तों द्वारा प्रधानमंत्री-आहूत जनता कर्फ्यू को एक ऐसे क्रांतिकारी कदम के रूप में पेश किया जा रहा है, जो सोशल डिस्टेंसिंग के लक्ष्य को पूरा करके हमारे देश को वायरस मुक्त कर देगा। इसे प्रधानमंत्री की ऐसी वैज्ञानिक दूरदर्शिता के रूप में चाटुकारों द्वारा फैलाया जा रहा है, जिसके बारे में दुनिया का कोई वैज्ञानिक अभी तक नहीं सोच पाया और जिसका आविष्कार करने का श्रेय आर्यभट्ट के शून्य की तरह नरेंद्र मोदी को ही जाता है। एक ओर प्रधानमंत्री इसे लाइलाज बीमारी बता रहे हैं, वहीं दूसरी ओर भक्तों की टोली गौमाता के प्रसाद के रूप में आम जनता को गौ-मूत्र पिलाने का अभियान चला रही है।
यदि जनता कर्फ्यू सोशल डिस्टेंसिंग का विकल्प होता, तो इन तीन दिनों के भीतर पूरी दुनिया इस नायाब खोज या आविष्कार को ले उड़ी होती, क्योंकि अभी तक प्रधानमंत्री ने इसके पेटेंट का दावा नहीं किया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इस वायरस से निपटने के लिए भारत की तैयारियों की आलोचना करते हुए कहा है कि रेंडम सैंपलिंग से वायरस का संक्रमण नहीं रोका जा सकता और आईसीएमआर ने चेतावनी दे दी है कि बहुत जल्दी ही भारत महामारी के तीसरे चरण कम्युनिटी ट्रांसमिशन (सामुदायिक संक्रमण) में पहुंचने वाला है।
जब इस स्तर तक महामारी पहुंच गई हो, तो जनता कर्फ्यू का आईडिया दुनिया में भारत की जगहंसाई ही कर सकता है, क्योंकि कोरोना वायरस एक जगह तो बैठे नहीं रहते कि 14 घंटे की वीरानी के बाद फिर उस जगह मिलेंगे ही नहीं! यह तो पूरी दुनिया में देश-काल की भौगोलिक और राजनीतिक सीमाओं के पार जाकर हमला कर रहे हैं। थाली और ताली बजाने से डरकर कोरोना वायरस यदि मर जाते, तो इस आइडिया को आए अब तक 72 घंटे बीत चुके हैं।
स्पष्ट है कि जनता कर्फ्यू का आईडिया एक राजनैतिक आईडिया तो हो सकता है, लेकिन कोरोना संकट से निपटने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग की शर्त को पूरा नहीं करता। तो फिर वही सवाल कि क्या किया जाए। इसका जवाब भी वही कि देश के संसाधनों का उपयोग इस तरह से हो कि जो लोग ‘वर्क फ्रॉम होम’ के दायरे में नहीं आते, उन्हें रोजी-रोटी कमाने के लिए घर के बाहर जाने की मजबूरी ना रहे और कम से कम एक-दो माह तक वे इस चिंता से मुक्त रहें और अपने स्वास्थ्य की देखभाल करें। लेकिन इसके लिए करना वही होगा, जिसे मोदी का अर्थशास्त्र इजाजत नहीं देता।
पूरी दुनिया के सकारात्मक अनुभव और हमारे देश की जरूरतों के आधार पर निम्न कदम सोशल डिस्टेंसिंग पर अमल के लिए उठाए जाने चाहिए :
एक : सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को मजबूत करने और मुफ्त में जांच की सुविधा के विस्तार, अस्पतालों की सुविधाओं, आइसोलेशन वार्डस और वेंटिलेटर्स की व्यवस्था के लिए स्वास्थ्य के क्षेत्र में व्यय में बढ़ोत्तरी की जानी चाहिए, ताकि अधिकतम लोगों की जांच, खासकर उनकी जिनमें सर्दी, बुखार और खांसी जैसे लक्षण दिखाई दे रहे हैं, संभव हो सके। करोना-संदिग्धों को निजी अस्पतालों से लौटाए जाने को देखते हुए उन्हें भी कोरोना वायरस के मरीजों की मुफ्त इलाज के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजीकरण की नीतियां अपनाए जाने के बाद सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का जो खचड़ा बैठा है, उसके मद्देनजर यह कदम बहुत जरूरी है।इस समय देश में कोरोना जांच के लिए केवल 1.5 लाख किट ही उपलब्ध है, जो कि चिंताजनक है। इससे सभी प्रभावितों को आइसोलेशन में रखने का उद्देश्य ही पूरा नहीं हो पायेगा। अतः इस किट का बड़े पैमाने पर आयात करना होगा।
दो : सभी नागरिकों की प्रतिरोध क्षमता बनाये रखने के लिए उन्हें महीने भर का राशन मुफ्त दिया जाए। इसके लिए केवल एक करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी, जबकि देश के सरकारी गोदामों में 7.5 करोड़ टन अनाज पड़े-पड़े सड़ रहा है। खाद्यान्न का यह विपुल भंडार अभी नहीं, तो और कब काम आएगा? इसी के साथ महीने भर का पानी और बिजली भी मुफ्त देना चाहिए। कालाबाज़ारी से निपटने रोजमर्रा की सभी आवश्यक वस्तुओं को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे में लाना पड़ेगा। इसी तरह स्कूलों की छुट्टियों के चलते मध्यान्ह भोजन की जगह बच्चों के घरों/परिवारों में राशन किट पहुंचाने की जरूरत है।
तीन : गरीब ग्रामीण रोजगार की खोज में शहरों में न भटके, इसके लिए उन्हें गांवों में ही काम उपलब्ध कराना होगा। मनरेगा और ‘काम के बदले अनाज’ योजना का प्रभावी क्रियान्वयन इसमें मददगार हो सकता है।
चार : ये समय किसानों की फसल का बाजार में आने का है। सरकार को आश्वस्त करना होगा कि महामारी का प्रकोप खत्म होने के बाद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर इसे खरीदने की जिम्मेदारी सरकार लेगी। लेकिन फसल बिक्री में देरी से साहूकारों व बैंकों का दबाव किसानों पर पड़ेगा। इन कर्ज़ों की वसूली पर भी सरकार को रोक लगानी होगी। अगले मौसम के लिए खेती-किसानी के काम के लिए नए ऋण भी उन्हें उपलब्ध करवाना होगा।
पांच : इस आपदा से प्रभावित सभी क्षेत्रो के लिए वित्तीय पैकेज लाया जाए। यह वित्तीय सहयोग इस शर्त पर होना चाहिए कि ये कंपनियां और संस्थान अगले तीन महीने तक अपनी ईकाईयों में तालाबंदी नहीं करेंगे और किसी को भी रोजगार से नहीं हटाएंगे। जो मजदूर-कर्मचारी कोरोना वायरस के चलते काम पर नहीं जा पा रहे हैं, उन्हें सवैतनिक बीमारी की छुट्टी भी देनी पड़ेगी। सारे खुदरा व्यापारियों और छोटे मंझोले उद्यमों के बैंक कर्जों में वसूली को एक साल का स्थगन दे दिया जाए।
छह : इस महामारी के चलते अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और गरीब किसानों की जिंदगी पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों का मुकाबला करने के लिए एक कोष की स्थापना की जानी चाहिए। फिलहाल समस्त जनधन खातों और बीपीएल लाभार्थियों के खाते में 5000 रूपये डाले जाएं और राज्य सरकारों को यह राशि केंद्र सरकार दे।
लेकिन इन उपायों की कीमत क्या होगी? एक गणना के अनुसार, एक-दो लाख करोड़ रुपये ही, जो हमारे देश की जीडीपी का मात्र एक-डेढ़ प्रतिशत ही होगा। केरल सरकार ने अपने राज्य के लिए इस महामारी से निपटने 20000 करोड़ रुपयों का पैकेज घोषित किया है, तो केंद्र सरकार जिसके हाथ में देश के सारे वित्तीय संसाधन है, इतना आर्थिक पैकेज क्यों नहीं दे सकती? जब देश के 130 करोड़ लोगों की जिंदगियां दांव पर लगी हो और आर्थिक गतिविधियां ठप्प होने का खतरा सामने हो, तो देश के समस्त संसाधन देश को बचाने में लगने चाहिए।
मोदीजी, थाली और ताली बजाने की प्रतीकात्मकता से बाहर आईए। इससे कोरोना वायरस भागने वाले नहीं है। यह खतरा खत्म होगा सोशल डिस्टेंसिंग के मकसद को पूरा करने से, जिसके लिए इस देश को एक बड़े आर्थिक पैकेज की जरूरत है और जिसके लिए इस देश में पर्याप्त संसाधन मौजूद भी है।
संजय पराते
Great post.