संवाद की परंपरा को नष्ट करने की कोशिश हो रही है. इसलिए मैं जेएनयू के साथ हूं

गिरजेश वशिष्ठ

हम में से बहुत से ऐसे हैं जो सारी जानकारियां कही सुनी बातों. बहस मुबाहिसों और सोशल मीडिया टिप्पणियों से लेते हैं. कुछ लोग अखबार पढ़ते हैं और टीवी देखते हैं. टीवी में भी दूसरों की बहस सुनकर वो अपनी जानकारी बढ़ाते हैं. बहुत कम लोग किताबें पढ़ते हैं और उनसे जानकारी लेते हैं.
सवाल उठता है कि आप ऐसा क्यों करते हैं. क्यों नहीं कोई नेता कोई बयान देता है और मान लेते हैं. क्यों नहीं जो किताब में लिखा मिलता है उसे पत्थर की लकीर मान लेते हैं क्यों आप इधर उधर से मिला ज्ञान गड्डम गड्ड करके मंथन करते हैं और ज्ञान बढ़ाते हैं?
ये आजकल की बात नहीं है. दस बीस साल पुराना फैशन भी नहीं है. आज़ादी के बाद का नया चलन भी नहीं है. अपना भारत इस परंपरा का पुराना वाहक है. हमारे यहां विद्वान शास्त्रार्थ किया करते थे. मेरी दूर के रिश्ते की एक मामी बचपन में ही शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित कर चुकी थीं. स्वयं शंकराचार्य ने उस शास्त्रार्थ के बाद उनकी तारीफ की और कहा कि इस बच्ची के जिव्हा पर सरस्वती विराजती है.


हमने कभी ऐसा हुआ ही नहीं कि भिड़े न हों, बहस न की हो और उसके जरिए नयी जानकारियां पैदा न की हों. हमने रामके हाथों शंबूक के वध पर हमेशा बहस की. हम सीता को त्यागने के राम के फैसले पर बहस करते रहे. अर्जुन ने श्री कृष्ण का आदेश होने भर के कारण महाभारत में हथियार नहीं उठा लिये. दोनों तरफ से ज्ञान का समंदर उंडेला गया. तब जाकर अर्जुन को कृष्ण की बात समझ में आई.
ये सब बातें मैं इसलिए कह रहा हूं कि आपको समझा सकूं कि बहस करने संवाद करने . तैयारी के साथ आकर नये तर्क रखने से नये ज्ञान का सृजन होता है. पाठशालाओं में जो किताबों से रटा दिया जाता है उसे कॉपी में लिखकर नंबर कमा लेना और बाद में डिग्री पा जाना ज्ञान का सृजन नहीं करता. ज्ञान मंथन, मनन और चिंतन से निकलता है. किसी भी अच्छे विश्वविद्यालय को मान , सम्मान इसलिए मिला क्योंकि वो ज्ञान का मंथन करते थे.
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ज्ञान का एक बहुत बड़ा और विश्व का जाना माना केन्द्र है. वहां विद्यार्थी भारतीय राजनीति से लेकर विश्व के घटनाक्रमों पर संवाद करते हैं. बहस करते हैं. वो राजनीतिक विज्ञान को आंदोलनों और सक्रियता के जरिए वैसे ही प्रेक्टिकल तरीके से सीखते हैं जैसे नीले लिटमस पर छार डालकर या मेंढक का डिसेक्शन करके विद्यार्थी सर्जरी सीखते हैं. जेएनयू में ज्ञान देने और लेने की परंपरा सिर्फ वहां के विद्यार्थियों तक सीमित नहीं है बल्कि इस परंपरा का हिस्सा हज़ारों भारत के बड़े बड़े शिक्षाविद, राजनेता और समाज विज्ञानी रहे हैं. वो जेएनयू जाते रहे हैं. और अपनी जानकारी देते और लेते रहते हैं. उन्हें वहां से विचारों की खुराक मिलती है. यही कारण है कि जेएनयू की सामाजिक विज्ञान की रिसर्च को पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा सम्मानजनक स्थान दिया गया है.
जेएनयू में बहस का कोई आयोजन नहीं किया जाता बल्कि जब रात को नौजवान रेव पार्टियां करके या सड़क पर बाइकर्स के स्टंट दिखाकर जान जोखिम में डालने वाले काम कर रहे होते हैं जो जेएनयू में पढ़ने वाले छात्र गर्मागर्म बहस के ज़रिए दिन भर किताबों से छानकर निकाला ज्ञान एक दूसरे पर उंडेलकर उसका मंथन कर रहे होते हैं. ज्ञान के सही और गलत होने की जानकारी और जो सही है उसे हमेशा के लिए दिमाग में बसा लेने की लियाकत इन बहस को आयोजनों से आती है. टीवी आने से पहले हम के बड़े कभी चौराहों पर जुटा करते थे और हर छोटे बड़े शहर की नुक्कड़ पर एक छोटा जेएनयू लगा करता था.
अब 11 बजे के बाद छात्रों के हॉस्टल से निकलने पर रोक लगाई जा रही है. विश्वविद्यालय को पाठशाला बनाया जा रहा है. संवाद की परंपरा को नष्ट करने की कोशिश हो रही है. इसलिए मैं जेएनयू के साथ हूं.

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