एक कश्मीरी पत्रकार का खुला पत्र: क्या आप अब भी हमारी दुर्दशा पर जश्न मना रहे हैं?

भारतीय साथियों,


जब आप दिल्ली और अन्य जगहों पर अनुच्छेद 370 हटाने का जश्न मना रहे थे, मैं अवरुद्ध सड़कों और कंटीले तारों को पार करने की कोशिश कर रहा था, दूध और बच्चों के भोजन सहित खाने का ज़रूरी सामान खरीदने को किराने की दुकान खोजने के लिए संघर्ष कर रहा था, ताकि मेरा बच्चा और परिवार ज़िंदा रह सकें। मैं अकेला नहीं था। अचानक ही संचार के सभी साधनों से वंचित और दुनिया से काट दिए जाने से सैकड़ों और हज़ारों अन्य लोग पीड़ित थे जो लॉकडाउन के साथ समझौता कर जीने की कोशिश कर रहे थे।सरकार के प्रवक्ता हमारी ओर से बोलते रहे, लगभग यह कहते हुए कि यह घेराबंदी वाकई में घेराबंदी नहीं है; कि “यहाँ सब ठीक है”। बीच-बीच में वे कश्मीर के लोगों को सहयोग करने की सलाह भी देते थे – घेराबंदी के साथ! अपने भावहीन चेहरों के साथ वो हमें कहते है, “यह केवल एक सुरक्षात्मक उपाय है”, यह भी जोड़ देते है कि “लॉकडाउन केवल लोगों के भले के लिए किया जा रहा है”। हम में से कुछ ने जवाब दिया, यह तो ये कहने जैसा हो गया कि युद्ध शांति है; कि एक पिंजरे में स्वतंत्रता का आनंद लिया जा सकता है!

हमसे कहा गया कि अनुच्छेद 370 को हटाने से कश्मीर और कश्मीरी लोग भारतीय संघ के साथ “पूरी तरह से एकीकृत” हो जाएंगे और कश्मीरी हमेशा खुश रहेंगे। लेकिन यह ‘अभिन्न अंग’ अपने ही राज्य के बाकी हिस्सों से रातों-रात विघटित और विभाजित हो गया, उसके लोग कर्फ्यू के तहत बंद हो गए, ताकि क्षेत्रीय मतभेदों को उजागर कर उनका शोषण किया जा सकें, वहां के लोगों की सहमति के बिना, और अपने घटक भागों को सूचित तक किए बिना।

वह विघटन आपके जश्न का कारण कैसे है? आप भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीने जाने का जश्न कैसे मना सकते हैं? लोग घेराबंदी के साथ सुलह कैसे कर सकते हैं? आप इस बात से खुश क्यों हो रहे है?

माफ़ कीजिये, आप यहां के निवासियों के बारे में परवाह किए बिना, यहां जमीन खरीद कर इस क्षेत्र को हथियाने के बारे में कैसे सोच सकते हैं? इस तरह से भारतीय राज्य के साथ कश्मीर को “पूरी तरह से एकीकृत” कैसे किया जाएगा?

इस भयानक समय में भी, मैंने पाया कि लोग अपनी दुखद स्थिति पर मुस्कुरा रहे हैं, अपनी व्यथा पर हंस रहे हैं। यह कुछ हद तक घेराबंदी को सहनीय बनाता है। हास्य की उनकी अनूठी भावना – अपने दुखद और कैद हुए अस्तित्व पर हसने की क्षमता – उन्हें घेराबंदी के एक और दिन तक जीवित रहने में मदद करता है।

“अप्रैल 2020,” एक मेडिकल स्टोर वाले ने जवाब दिया जब मैं बहुत दूर चलने के बाद उनकी दूकान पर पहुंचा और वहां मिले बेबी फूड के कुछ बचे हुए डब्बों पर एक्सपायरी डेट चेक करने के लिए कहा। “इंशाल्लाह, अगर ज़िंदे ऐस तेली,” उन्होंने एक बड़ी मुस्कान के साथ जोड़ा (अर्थात, यदि हम तब तक जीवित रहे!)। थोड़ी देर के लिए, एक मुस्कुराहट ने दुकान में हर व्याकुल, चिंतित चेहरे का तनाव कम कर दिया, जैसे कि घेराबंदी कुछ पलों के लिए गायब और अप्रासंगिक हो गई।

एक और छोटी किराने की दुकान पर, जो घेराबंदी के शुरुआती सप्ताह में एक दोपहर को कुछ घंटों के लिए खोला गया था, जहां परेशान और चिंतित लोगों की भीड़ लगी थी, एक व्यक्ति ने कहा कि वह कर्फ्यू के पहले दिन से अपने बच्चे के लिए कुछ केलों की तलाश में था। आखिरकार वह कर्फ्यू के तीसरे दिन कुछ केले लेने में कामयाब रहे, जब पैदल ही लंबी दूरी तय करने पर किसी सड़क के किनारे एक फल विक्रेता मिला। “यह किस तरह का जीवन है?” उन्होंने पूछा।

लेकिन भारत में लोग, विशेषकर जो लोग सरकार की कठोर नीति को आंख बंद करके मान लेते है, वे कभी इस सवाल को नहीं समझेंगे या पूछेंगे कि : यह कैसा जीवन है? या, सोचेंगे वो कभी इस पर?

कर्फ्यू के पहले कुछ दिनों के दौरान, मैं सुबह घर से निकल जाता और घरेलू सामान व अपने वाहन के लिए कुछ अतिरिक्त ईंधन की तलाश में पैदल ही लंबी दूरी तय करता। कर्फ्यू के एक पूरे दिन के अंत में, हम घेराबंदी और कर्फ्यू में एक और दिन जीवित रहने के बारे में सोचते हैं। जब आप घेराबंदी के अधीन हैं, तो घेराबंदी के अलावा सोचने के लिए कुछ भी नहीं होता है। घेराबंदी का अगला दिन पिछले दिन के समान ही लगता है।

‘बाबा, बाबा, आंसू गैस’

एक दोपहर, पास की सड़क पर दोपहिया वाहनों के थोड़े संचलन द्वारा प्रोत्साहित होकर मैं कुछ घंटों के लिए बाहर जाने के बाद घर लौट रहा था। मुझे कई रास्ते बदलते हुए, कुछ भीतरी गलियों और सड़कों से होकर चलना पड़ा ताकि कंटीली तारों और सैनिकों से बचते हुए एक दुकान तक पहुंच सकूं जहाँ मुझे घर के लिए कुछ आवश्यक सामान मिल सके। बहुत संघर्ष के बाद, मुझे एक छोटी सी दुकान मिली, जिसका आधा शटर बंद था। कुछ किराने का सामान लाने के बाद, जब मैं अपने घर के करीब था, हमारे मोहल्ले की हवा में आंस गैस की तीखी गंध आ रही थी। पुलिस और सीआरपीएफ ने हमारे घर के करीब एक सड़क पर कुछ प्रदर्शनकारी युवाओं को तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस के गोले दागे थे।

आंसू गैस हमारे घर में भी घुस चुका था। मैंने अपनी पांच साल की बेटी को, जो कमरे के एक कोने में छिपने की कोशिश कर रही थी, उसके छोटे हाथों से अपने मुंह को ढकते हुए देखा। वो खांस रही थी। उसने मुझे भी आंसू गैस के धुएं को अंदर लेने से बचने के लिए ऐसा करने की सलाह दी।

अगले दिन, जब उसने फिर से पास की सड़क पर आंसू गैस के गोले दागे जाने की आवाज़ सुनी, तो वह कमरे के कोने में चली गई, फिर से अपने हाथों से मुंह और नाक को ढंकते हुए। “बाबा, बाबा,” वह दहशत में चिल्लायी, “आंसू गैस”। अगली सुबह, जब वह उठी, मेरे पास आई और बोली “बाबा, मैंने एक सपना देखा”। मेरी गोद में बैठते हुए उसने कहा, “पुलिस आंसू गैस दाग रही थी, धुआं हमारे घर में घुसा..और मैं भाग गई…”

कुछ हफ्ते पहले, श्रीनगर के बाहरी इलाके में हमारे पड़ोस में एक बूढ़े व्यक्ति को एक तेज़ रफ्तार से आ रही कार ने टक्कर मार दी थी, जब वे एक मस्जिद में शुक्रवार की नमाज़ अदा करने के लिए सड़क पार कर रहे थे। शुक्रवार को लगाए गए सख्त प्रतिबंधों के बीच, कुछ पड़ोस के लोग उन्हें एस.एम.एच.एस अस्पताल लेकर जाने लगे, तो उनके वाहन को सरकारी बलों द्वारा अस्पताल के करीब स्थित एक बैरिकेड पार करने की अनुमति नहीं दी गई। “मैंने उनसे कहा कि हम एक लगभग मृत बूढ़े व्यक्ति को ले जा रहे हैं, जिसे आपातकालीन उपचार के लिए जल्द अस्पताल पहुंचने की जरूरत है,” एक पड़ोसी जो उस वाहन में था, उसने मुझे बताया। “लेकिन उन्होंने हमारी दलीलों को नहीं सुना और हमें एक और चक्कर लगाना पड़ा जिससे अस्पताल पहुँचने में अधिक समय लगा।”

उन वृद्ध व्यक्ति ने, जिन्को कई फ्रैक्चर हुए थे, बाद में अस्पताल में दम तोड़ दिया। संचार-बंदी का मतलब था कि उनका परिवार उनकी दुखद, असामयिक मृत्यु के बारे में अपने सभी रिश्तेदारों को फोन पर सूचित तक नहीं कर पाए। अगले दिन, उनके अंतिम संस्कार में ज़्यादातर पड़ोसी और कुछ रिश्तेदार ही शामिल थे जिनको किसी तरह समय पर सूचना मिल पाई। उन्हें दक्षिणी कश्मीर के शोपियां जिले में अपने पैतृक कब्रिस्तान में दफनाया नहीं जा सका।

भौतिक घेराबंदी अस्थायी हो सकती है, जैसा कि सरकार चाहती है की हम मानें, लेकिन यह एक स्थायी छाप छोड़ती है, हमारे बच्चों के जीवन और उनकी यादों पर रेंगती हुई। घेराबंदी उनके सपनों में भी प्रवेश कर गई है। घेराबंदी एक अस्थायी चरण या एक सुरक्षात्मक उपाय नहीं है; घेराबंदी स्थायी निशान छोड़ जाती है। घेराबंदी का अंत सामान्य स्थिति की शुरुआत नहीं है। घेराबंदी के बाद सामान्य स्थिति नहीं लौटती है।

घेराबंदी हमेशा मौजूद रहती है। घेराबंदी का मकसद पहले से ही पीड़ित लोगों पर एक और प्रहार करना है, विरोध करने की उनकी इच्छा को तोड़ना और एक सामान्य जीवन के उनके विचार को बाधित करना। लेकिन घेराबंदी लोगों को अधिक मज़बूत भी बनाती है, और घेराबंदी के बाद तक जीवित रहने के लिए दृढ़ बना देती हैं। घेराबंदी लोगों को एक साथ भी लाती है, जिससे वे संकट के समय में एक दूसरे के लिए परवाह करते है, अधिक चिंतित होते हैं। हम सिर्फ घेराबंदी के पीड़ित नहीं हैं। हम ज़िंदा है, और पिछले घेराबंदियों को भी जी कर जीवित निकलें हैं।

दशकों से, कश्मीर में सैन्य घेराबंदी को सामान्य और लोकतंत्र के हिस्से के रूप में चित्रित किया गया है। लेकिन घेराबंदी के वो निशान – सैकड़ों और हज़ारों सैनिक, असंख्य बंकर, सैन्य शिविर, कंटीली तारों से अवरुद्ध सड़कें – कश्मीर में हर जगह और हर किसी को दिखने के लिए साफ़ है।

लोगों के बुनियादी मानव और राजनीतिक अधिकारों को छीनकर शांति नहीं लाई जा सकती और लोगों को ‘मुख्यधारा’ में आत्मसात नहीं कर सकती, या उनके दिल और दिमाग को जीत नहीं सकती। यह कभी नहीं हुआ है; यह कभी नहीं होगा। अगर आप कहीं और के लोगों के मौलिक अधिकारों की इस तरह की उपेक्षा से ठीक हैं – जैसे कश्मीर में – और यहां तक कि इस पर सवाल भी नहीं करते हैं, एक दिन वे निश्चित रूप से आपके पीछे भी आएंगे। और, तब तक, आपके लिए बोलने वाला कोई नहीं होगा।

माजिद मकबूल श्रीनगर, कश्मीर में स्थित एक लेखक और पत्रकार हैं। यह लेख नेशनल हेराल्ड में 21 सितम्बर 2019 को छपा था।

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