गुमियापाल के फर्जी मुठभेड़ को सही ठहराने पुलिस अब करने लगी षड्यंत्र
जान बचा कर भागे भीमा को बताया आत्मसमर्पित, पहले ही दिन से पुलिस कस्टडी में रह रहे घटना के चश्मदीद अजय तेलाम से कहलवाया कि वह खुद नही जाना चाहता गांव
कमल शुक्ला
दंतेवाड़ा । “हम पांच लोग गांव के स्कूल में रात को 9:00 बजे दारु पी रहे थे , हममें से एक पोदिया ज्यादा पी लेने से सामने के घर में जाकर सो गया था , तभी अचानक से वे आए, उनमें मड़कामरास का *पोदिया* और मदाड़ी का *भीमा* भी था , उनमें से दो-दो ने हममें से एक-एक को जबरदस्ती अपने साथ ले जाने लगे । उन्होंने सामने वाले घर में जाकर पोदिया को भी उठाया और उसे भी खींच कर ले गए । हमारे में से एक हिड़मा तो यही स्कूल के पास से ही उनका हाथ छुड़ाकर भाग निकला और मैं भी आधे रास्ते में उन को चकमा देकर भाग निकला उसके बाद वो लोग अजय, पोदीया और लच्छू को लेकर आगे निकल गए “
यह बयान है गोमियापाल के उस युवक *भीमा* का है जो 13-14 की रात पुलिस के हाथों मारे जाने से बच गया था । यह बयान उसने गांव वालों के बुलावे पर फेक्ट-फाइंडिंग के लिए गांव पहुंचे प्रसिद्ध समाजशास्त्री बेला भाटिया और बस्तर की जननेता सोनी सोरी तथा स्थानीय पत्रकारों के सामने दिया । ज्ञात हो कि 14 सितंबर को दंतेवाड़ा पुलिस ने दो नक्सलियों के मुठभेड़ में मारे जाने की बात प्रसारित की थी तब गुमियापाल के लोगों ने कई पत्रकारों और समाजसेवियों को सूचना देकर गांव बुलाया कि यह मुठभेड़ फर्जी है और गांव के युवकों को पकड़ कर मारा गया है ।
ध्यान रहे कि यह घटना दंतेवाड़ा चुनाव संपन्न होने के ठीक 9 दिन पहले घटी । लोकसभा चुनाव में पिट चुके सत्तासीन कांग्रेस पार्टी पर चुनाव जीतने के दबाव के साथ ही आदिवासियों के साथ वादा खिलाफ़ी के आरोप से बच निकलने का भी दबाव था । ज्ञात हो कि कांग्रेस सरकार बनने के बाद फर्जी गिरफ्तारी और मुठभेड़ के लिए सबसे ज्यादा बदनाम दंतेवाड़ा जिला ही रहा है । ग्रामीण जन प्रतिनिधि काफी समय से यह आरोप लगा रहे हैं कि नंदराज पहाड़ को फर्जी तरीके से अदानी को दिए जाने के खिलाफ आंदोलन में शामिल कार्यकर्ताओं को पुलिस द्वारा लगातार गिरफ्तारी का डर दिखाया जा रहा है और नक्सली मामलों में गिरफ्तार कई आदिवासी इसी आंदोलन से जुड़े रहे हैं ।
पुलिस ने इस मामले में भी बेला भाटिया, सोनी सोरी के साथ उसी हीरोली गांव के सरपंच के पति को भी आरोपी बनाया है जहां 2014 में फर्जी ग्रामसभा कर बैलाडीला के नीचे निक्षेप 13 को अदानी को सौंपा गया था। इस व्यक्ति की नंदराज आंदोलन में प्रमुख भूमिका थी । यह सच भी है कि पुलिस ने जितने भी आदिवासियों को इन 3 माह के दौरान गिरफ्तार किया है और मुठभेड़ में मारा है उनमे से अधिकांश उन्ही गांव के लोग हैं जिन्होंने इस आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया था ।
चुनाव के अलावा पुलिस और सरकार पर एक दूसरा बड़ा दबाव इस मामले में सोनी सोरी और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त समाजसेवी बेला भाटिया का सक्रिय होना भी था । इसी हड़बड़ाहट में दंतेवाड़ा पुलिस ने एक और बड़ी गलती, इस फर्जी मुठभेड़ के खिलाफ ग्रामीणों के साथ रिपोर्ट दर्ज कराने थाने पहुंचे बेला भाटिया और सोनी सोरी के खिलाफ उल्टे रिपोर्ट कर पूरे देश का ध्यान इस फर्जी मुठभेड़ के लिए खींच लिया । अब बस्तर पुलिस के पास अपनी करतूतों को छिपाने के लिए तरह तरह के षड्यंत्र करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा।
बस्तर की पुलिस कहानियां रचने और षडयंत्र गढ़ने में कितना माहिर है यह बात तो राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग तक ने स्वीकार कर लिया है वहीं स्थानीय न्यायालयों में तो आए दिन पुलिस के खिलाफ इस तरह की टिप्पणियां होती रहती है आज भी बस्तर की पुलिस तत्कालीन कुख्यात अधिकारी की कार्यशैली अपना रही है । षडयंत्र कर फर्जी मामलों में आदिवासियों को फंसाया जाने और फर्जी मुठभेड़ कर निर्मम तरीके से मार दिए जाने के कई मामले अभी भी माननीय न्यायालय में विचाराधीन है ।
इस मामले में भी दंतेवाड़ा पुलिस की भूमिका शुरू से संदिग्ध रही । गांव वाले को अनुसार जिस अजय को पुलिस के लोग पकड़ कर अपने साथ ले आए थे उसे 3 दिन से ज्यादा समय तक छुपाए रखा, उसकी कोई जानकारी गांव वालों को और उसकी मां को उन्होंने नहीं दी फिर 3 दिन बाद अचानक दंतेवाड़ा के पत्रकारों को पुलिस ने अजय का वीडियो जारी कर दिखाया कि वह गांव नहीं लौटना चाहता । यह तो आसानी से समझा जा सकता है कि पुलिस के किसी थाने में 3 दिन बिताने के बाद किसी से भी क्या न बुलवाया जा सकता है । पूरी सच्चाई देखिए इस वीडियो में -:
*जिस भीमा ने 15 सितंबर को फैक्ट फाइंडिंग टीम के सामने बयान दिया था उस बयान के फेसबुक में ओपन होते ही पुलिस ने उसे भी उठा लिया और मतदान के 2 दिन पहले आत्मसमर्पण घोषित कर उसका ” खुशी से मतदान ” करते हुए खुद ही बनाए हुए वीडियो को 21 सितम्बर को पत्रकारों को वितरण किया गया । देखिए सच्चाई -:*
बेला भाटिया और सोनी सोनी के साथ स्थानीय पत्रकारों सहित मैं खुद भी 15 सितंबर को गुमिया पाल गांव जाकर वहां के ग्रामीणों से मिला था । तब वहां बहुत गमगीन माहौल था दो अलग-अलग घरों में पोस्टमार्टम के बाद वापस आई क्षत-विक्षत लाश पड़ी हुई थी । लाशों की स्थिति बहुत हृदय विदारक !! इतना कि उसका फोटो भी यहां नहीं डाला जा सकता । हालांकि अगर सही में कोई जांच हो तो यह फोटो उनको उपलब्ध कराया जा सकता है । जिसकी उम्मीद तो कम है क्योंकि आज तक इस तरह के मामलों में पिछले 32 साल से पत्रकारिता करते हुए मैंने कभी भी उचित जांच होते नहीं देखा । इन मामलों में ना तो कभी फॉरेंसिक जांच होता है ना लोगों को बयान देने के लिए जांच आयोग या टीम के पास पहुंचने दिया जाता है । पोदिया के शरीर में तो जगह-जगह किसी तेज धार वाले हथियार भोंके जाने के ही निशान थे पर लच्छू को सीने में एक गोली मारी गई थी । शायद नजदीक से मारी गई थी इसीलिए पीछे की ओर काफी बड़ा छेद करते हुए निकल गई , इसके अलावा उसके शरीर पर भी जगह-जगह किसी तेज धार वाले हथियार भोंके जाने के निशान थे । वैसे पुलिस किसी को नक्सली मनती भी है तोह भी उसे सीधा हत्या करने का अधिकार हमारे न्याय व्यवस्था ने नही दिया है ।
आज तक किसी भी मामले में पुलिस ने पत्रकारों को पुलिस कार्यालय में ही बुलाकर पत्रकार वार्ता कर या प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से माओवादी पर कार्यवाही की सफलता की कहानी सुनाते रही है पर कभी भी पत्रकारों को फील्ड में ले जाने की कोशिश नहीं करती । कोई पत्रकार अगर ऐसा करता भी है तो उसके खिलाफ आज तक फर्जी मामले बनाए जाने के कई मामले सामने है । इस मामले में भी ऐसा ही हुआ किसी पत्रकार को फील्ड जाकर मुठभेड़ स्थल नहीं दिखाया गया जंगल में गोली चलेगी तो पेडों पर भी तो लगेगी , गोली के खोखे भी तो मिलना चाहिए ?
दोनों मृत ग्रामीणों के शरीर में जगह-जगह चाकू से गोदने के निशान पुलिस की दरिंदगी की कहानी कह रही है । कुछ साल पहले जब खुलेआम मारे गए कथित नक्सलियों की लाश पुलिस पत्रकारों को दिखाया करती थी, तब कई बार यह बात सामने आया था कि गोली लगने के बाद भी कपड़ों में छेद नहीं है या की मुठभेड़ के बाद भी कपड़े की क्रीज भी खराब नहीं हुई है ( गोमपाड़ मड़कम हिड़मे प्रकरण ) यह बात संभवत: बंदूक और सत्ता के दबाव में हुए पोस्टमार्टम में आ भी ना पाए । अब तो अक्सर सर्चिंग के लिए अंदर जाते समय पुलिस की सबसे अनिवार्य जरूरत भारी मात्रा में पॉलिथीन होता है जिसमें मारे गए कथित नक्सली अथवा ग्रामीण की लाश बांध कर लाई जा सके । वैसे भी लाश जलाई जा चुकी है मगर अभी भी अगर ईमानदारी से जांच की जाए फॉरेंसिक जांच हो तो शायद घटना की सच्चाई सामने आ सकती है ।
हम लोगों ने उस स्थान को भी देखा जहां गांव के पांच युवक मनोरंजन करने के लिए बैठे थे वहां बियर और एक शराब की बोतल मौके पर पड़ा हुआ था । भीमा के अलावा बाकी कई ग्रामीणों ने भी उन पुलिस वालों में से मड़कामरास के *पोदिया* और मदाड़ी के *भीमा* को पहचाना था । ग्रामीणों ने यह भी बताया कि डीआरजी के जो जवान गांव आए थे, वे 8 मोटरसाइकिल में आए थे और यहां से जाते समय अजय तेलाभ की मोटरसाइकिल भी साथ ले गए थे । अब अगर गांव के स्कूल में मनोरंजन कर रहे हैं 5 युवा में से कोई भी नक्सली रहता तो क्या इन 8 मोटरसाइकिल के आने की आवाज के बाद भी अपने पकड़े जाने के लिए बैठा रहता ?
गांव वालों ने जिस मड़कामरास के *पोदिया* और मदाड़ी के *भीमा* को पहचाना था, इन्होंने साल भर पहले ही पुलिस के पास आत्मसमर्पण किया था । ग्रामीणों के अनुसार बाकी पुलिस वालों में से अधिकांश भी आत्मा समर्पित नक्सली ही थे इस मामले में एक चौंकाने वाला मामला यह भी है कि एक *पोदिया* मरने वाले का भी नाम था और पुलिस से बच कर आए युवक का भी नाम *भीमा* ही था ? मतलब एक ही नाम के इसी क्षेत्र के रहने वाले दो नक्सली पहले भी इनामी बनकर आत्मसमर्पण कर चुके हैं । अब पुलिस चूंकि इस पूरे घटना को जंगल में हुई मुठभेड़ बता रही है और इनके पास से हथियार भी बरामद हुआ दिखा रहे हैं तो फिर उन्हें यह भी बताना चाहिए कि साल भर के भीतर कितने भीमा और कितने पोदिया पर उन्होंने ही ईनाम रख छोड़ा है ?
राहुल गांधी और भूपेश बघेल ने चुनाव के पूर्व बस्तर और संपूर्ण छत्तीसगढ़ के कई सभाओं में घोषणा किया था कि आदिवासियों के साथ अन्याय अब नहीं होने दिया जाएगा और फर्जी मामलों में फंसाए गए हजारों आदिवासी जो जेल में बंद है उनको छोड़ने के लिए भी नीति बनाई जाएगी । पर स्थिति यह है कि सरकार बनने के बाद अब नौ महीना होने जा रहे हैं और इन 9 महीनों के दौरान ही लगभग 100 से ज्यादा आदिवासियों को फिर से फर्जी तरीके से फंसाकर जेल भेज दिया गया है और 500 से ज्यादा लोगों के खिलाफ थानों में अपराध पंजीबद्ध कर दिया गया है जिन्हें कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है।