जीवाश्मी इस्पाती ढाँचा और श्रेष्ठ भारत का सपना

सुरेश वर्मा

” उम्मीद नहीं है कि भारत में गूगल और एप्पल जैसी बड़ी कम्पनियां तैयार हो सकती है। यहाँ जॉब करना और मर्सिडीज खरीद लेना ही सफलता है। क्रिएटिविटी कहाँ है?

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उपरोक्त बड़ी गम्भीर बात हाल ही में एप्पल के को-फाउंडर स्टीव वोज्नियाक ने भारत के बारे में कही है।

इसका बड़ा गहरा अर्थ है देश के अतीत तथा वर्तमान से। और, बहुप्रतीक्षित श्रेष्ठ और स्वर्णिम भारत का भविष्य भी इन्हीं दो विरोधी शब्दों के समीकरण से तय होना है।


श्रेष्ठ भारत का सपना देख रहे अधिकांश जनता को इस श्रेष्ठ भारत के निर्माण स्तम्भ जिसे इस्पाती ढाँचा के नाम से जानते हैं,के जर्जर हालत का पता ही नहीं है।

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आज भी भारत उस सामंती मानसिकता से पूर्णतः बाहर नहीं आ पाया है जहाँ सृजनात्मकता से प्राप्त नौकरी से ज्यादा एक अदद बाबूगिरी वाले सरकारी नौकरी को तवज्जो दिया जाता है। आईएएस, आईपीएस या बाबूगिरी वाला कोई नौकरी मिल जाये बस सब वहीं इतिश्री हो जाती है। क्रिएटिविटी की तो बात ही कौन करता है?पैसा,लड़की और सामाजिक प्रतिष्ठा डंडेवाली डरावनी नौकरी में ही है वरना आईएएस जैसे सामान्य दिमाग से चलने वाली जॉब में आईआईटीअन, एम्स वाले क्यों कूदते भला? अब भी हम सबकी नशों में सामंती सोच है इसलिए इस तरह की नौकरी पसन्द है सभी को। जाईये ना नासा,इसरो में शोध कीजिये ना! यूपी,एमपी,बिहार,राजस्थान वाले बोलेंगे की आईएएस नहीं बन पाया होगा इसलिए इंजीनियर वाला नौकरी कर रहा है। बढ़िया से पूछेंगे भी नहीं लोग! वहीं एक बीडीओ, एसडीओ, डीएसपी बन जाईये

ना लोग फूल माला से गला भर देंगे और शादी के लिए लड़की वाले पैसा से मुँह भर देंगे। क्योंकि यह नौकरी अब भी सामंती सोच,अकूत अवैध सम्पत्ति और अकूत सत्ता केंद्र को परिलक्षित करता है। हालांकि कुछ अधिकारी रचनात्मक भूमिका निभा रहे हैं मगर वे अत्यल्प हैं, नगण्य हैं। सब फाइलों में खो गए हैं।


वैसे भारत को जोड़ कर रखने में इस इस्पाती ढाँचा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मगर यह भारत में नए सामंती पद को सुशोभित करता है। अंग्रेज जमाने वाली “छोटी सरकार, बाबू सरकार जैसी स्थिति के बरकरार रहने के कारण आज भी तेज तर्रार युवा इसके गिरफ्त में आ ही जाते हैं जिससे अंततः देश को इन युवाओं से अपेक्षित नवाचार को तिलांजलि देना पड़ता है। और, अंततः इसका खामियाजा देश को उठाना पड़ता है। अपेक्षित नवाचार ना होने के कारण भारत आज भी मूलभूत जरूरतों को पूरा नहीं कर पाया है।

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भारत जैसी विशाल जनसंख्या वाले देश जहाँ आज भी मूलभूत सुविधाओं का अभाव है जैसे शुद्ध पेयजल, शौचालय, मकान, भोजन। इन समस्याओं का समाधान हमलोग हमेशा सरकारों को बदलने से जोड़ कर देखते हैं। यह उसी तरह की उम्मीद है जहाँ छेद पड़े नाव को बदलने की जगह हम लोग नाविक को बदलकर आत्मसन्तोष कर लेते हैं। हम सब देश के तंत्र को बदले बिना ही केवल ऊपरी स्तर पर सर बदलकर सभी चीजों की निजात की उम्मीद करते हैं। देश का दुर्भाग्य है कि आज भी पढ़े-लिखे होने का मतलब आईएएस है,बाबू वाला जॉब है। जो भारत में व्याप्त मूलभूत समस्याओं को भी समाप्त नहीं कर पाया है। यह इस्पाती ढाँचा भी दिशाहीन व दूरदर्शिताविहीन राजनीति के नावँ में सवार होकर ना केवल अपनी प्रतिष्ठा में बढ़ोतरी की है बल्कि अपने को अकूत सत्ता का केंद्र बना रखा है। ऐसा मैं स्वंतत्रता के करीब 70 साल बाद भी मूलभूत सुविधाओं से जुझते भारत की तस्वीर देख कर कह रहा हूँ। निश्चित रूप से इस इस्पाती ढाँचा ने देश की एकता व अखंडता को सुरक्षित रखने में भूमिका निभाई है मगर विकास व दूरदर्शी नीति के निर्माण व उसका समयबद्ध पालन में दोनों असफल रहे हैं। यह इस्पाती ढाँचा सरकार व जनता के बीच उदासीन बनी रही। निरंतर बदलते समय के अनुसार सृजनात्मकता व प्रशासनिक नेतृत्व क्षमता दोनों इन सेवाओं ने नहीं दिखायी। जरूरत थी कि सृजनात्मकता को प्रशासन बढ़ावा देता ताकि भारत आज बेहद मूलभत सुविधाओं से वंचित नहीं रहा होता। निश्चित रूप से भारत को अच्छे प्रशासक की भी जरूरत है मगर उससे भी ज्यादा सृजनात्मक सोच रखने वाले सख्शियतों कि आवश्यकता है जो अपने नवाचार से सस्ती,टिकाऊ, सर्वसुलभ तकनीक, यंत्र, तरीके, प्रणाली का विकास कर सके जिससे भारत में व्याप्त मूलभूत समस्याओं को दूर कर सके। अंततः देश और प्रशासन को रचनात्मकता पर सर्वाधिक ध्यान देना ही होगा। हम कब तक दूसरे देश से तकनीक आयात करते रहेंगे। मोह त्यागना ही होगा डंडे वाली, हाई -प्रोफाइल जॉब से । सच बताऊं तो ये बड़ी -बड़ी नौकरियां अब ‘बड़े टैग वाला बाबू ‘ की नौकरी बन कर रह गया है। सृजनात्मकता कहाँ है उनमें? विकिपीडिया के अनुसार- नवाचार अर्थशास्त्र, व्यापार, तकनीकी एवं समाज शास्त्र में बहुत महत्व का विषय है। नवाचार (नव+आचार) का अर्थ किसी उत्पाद, प्रक्रिया या सेवा में थोडा या बहुत बडा परिवर्तन लाने से है। नवाचार के अन्तर्गत कुछ नया और उपयोगी तरीका अपनाया जाता है, जैसे- नयी विधि, नयी तकनीक, नयी कार्य-पद्धति, नयी सेवा, नया उत्पाद आदि। नवाचार को अर्थतंत्र का सारथी माना जाता है।

किसी संस्था के संदर्भ में नवाचार के द्वारा दक्षता, उत्पादकता, गुणवता, बाजार में पकड आदि के सुधार सम्मिलित हैं। अस्पताल, विश्वविद्यालय, ग्राम-पंचायतें आदि सभी संस्थायें नवाचारी हो सकती हैं। जो संस्थायें नवाचार नहीं कर पातीं वे नाश को प्राप्त होती हैं। उनका स्थान नवाचार में सफल हुई संस्थायें ले लेतीं हैं। नवाचार में सबसे महत्वपूर्ण चुनौती प्रक्रिया-नवाचार तथा उत्पाद-नवाचार में सामंजस्य बैठाना होता है।”


कुछ साल पहले खबरों में कुछ आईएएस थे जिन्होंने इस नौकरी से इस्तीफा दे दिया यह कहते हुए की इस नौकरी में कुछ ऐसा सृजनात्मक, विशेष करने को नहीं है। उनका तर्क कमोबेश सही भी है। आज एक आईएएस का ज्यादातर समय प्रमाणपत्रों के हस्ताक्षर और जिले में चल रही सामान्य गतिविधियों को नियंत्रित करने में ही बीतता है। जो एक सामान्य बौद्धिक कार्य है। ऐसे में आईआईटी और एम्स के बेहद सृजनात्मक और ऊर्जावान मानव संसाधन का आईएएस जैसे सामान्य सेवा में पूरा व उचित उपयोग नहीं हो पा रहा है। वे ज्यादातर अच्छे घरों से होते हैं। और, इस कारण वे अपने विशेष पढ़ाई और पैसे के इस्तेमाल से आसानी से स्टार्टअप, कम्पनी, नवाचार से बने नए संगठन को खड़ा कर सकते हैं। जिससे वे ना स्वयं एक उद्यमी बन पाएंगे बल्कि साथ-साथ हजारों लोगों को रोजगार दे सकता है। वास्तव में आज देश के लोगों को रोजगार चाहिए। विशाल मात्रा में रोजगार नवाचार के बिना सम्भव ही नहीं है। और यह नवाचार तबतक सम्भव नहीं है जबतक ये विशेष बौद्धिक छात्र अपना समय शोध संस्थानों में शोध,अनुसन्धान और निर्माण पर समय और ऊर्जा ना दें। हालाँकि चूँकि यह एक ऐसा कार्य है जो लंबा वक्त लेता है और वीआईपी कल्चर वाला ट्रीटमेंट नहीं मिल पाता इसलिए ये विशेष योग्यता वाले भी आईएएस की और रुख करते हैं। जिससे भारत को सम्भवतः अच्छा प्रशासक तो मिल जाता है मगर अच्छा निर्माणकर्ता नही मिल पाता है। जिससे अंततः छोटे-छोटे तकनीक को भी अन्य देश से आयात करने पड़ता है जिससे हमारे देश का बहुत बड़ा राजस्व गवाना पड़ता है। वित्त की कमी और विशाल जनसंख्या से जूझ रहे देश को सबसे ज्यादा जरूरत है नवाचार युक्त शासन- प्रशासन की ताकि यह इस्पाती ढाँचा बदलते वक्त के साथ अपनी प्रसांगिकता साबित कर सके।


ऐसा मैं एक खुद के अनुभव से कह रहा हूँ की कैसे यह इस्पाती ढाँचा जीवश्मी बन चुकी है। मैं एक अतिपिछड़े व नक्सल प्रभावित झारखन्ड के गिरिडीह जिले से आता हूँ। बचपन से सामाजिक कार्य हेतु मेरा झुकाव रहा है। इसलिए मैं सेवा में चयन के बाद अपने इस अतिपिछड़े जिले में सकारात्मक परिवर्तन हेतु सोच बनाई। इसी सोच के तहत मैंने वहाँ के एक विश्व प्रसिद्ध स्थल पारसनाथ में अहिंसा के अनुयायी 23वें जैन मुनि के नाम पर एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय स्थापना का प्रस्ताव रखा जिसे वहाँ के आम जनता से लेकर सभी बुद्धिजीवियों का समर्थन मिला। इस प्रस्तावित विश्वविद्यालय के अहिंसा, शांति व शिक्षा के उद्देश्यों के विस्तारण हेतु मैंने इस जिले में किसी भी तरह का प्रथम महोत्सव, पार्श्वनाथ महोत्सव, मैंने स्वयं व कुछ नागरिकों के सहयोग से शुरु किया। इस महोत्सव के बाद वक नागरिक संगठन ने एक नदी के नाम पर एक महोत्सव मनाया। तब जाकर प्रशासन जागा इस जिले में कुछ करने के लिए। मगर, जिला प्रशासन सदियों से छोटानागपुर की पहचान रहे विश्व प्रसिद्ध जैन निर्वाण भूमि पारसनाथ के नाम शुरू किए गए पार्श्वनाथ महोत्सव में सहायता देने के बजाय एक नागरिक संगठन द्वारा शुरू किए गए नदी महोत्सव के नाम में ‘तट’ लगाकर ‘नदी तट महोत्सव’ मनाया जिसमें सरकारी वित्त को पानी की तरह बहाया गया। बेहतर होता कि वहाँ की सांस्कृतिक पहचान के नाम शुरू किए गए महोत्सव को सहायता देते। एक जिम्मेदार नागरिक ने मुझे बताया कि जिला प्रशासन 2 दशकों से भी अधिक समय से इस जिले में कुछ करना चाहती थी मगर किसी ने इस ओर कभी नहीं सोचा। यह तभी सम्भव है जब हम केवल सरकारी नौकरियों के पीछे ना भाग कर देश को उन्नत तकनीक,नवाचार दे सकें।
पूर्व राष्ट्रपति ए. पी.जे.अब्दुल कलाम ने भी यह कहा था कि आज नौकरी की तलाश वाले युवा की देश को जरूरत नहीं है बल्कि ऐसे युवाओं की जरूरत है जो लोगों के लिए रोजगार सृजन कर सके। ऐसे में इस जंग लगी इस्पाती ढाँचा हेतु सृजनशील छात्रों का इस ओर झुकाव भारत को किस ओर ले जाएगा। यह वक़्त ही बताया।

सुरेश वर्मा
( लेखक गृह मंत्रालय में अधिकारी हैं। वे दिल्ली विवि के छात्र रह चुके हैं। यह लेखक का निजी विचार है।)

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