जन मुद्दों से प्रतिबद्धता और सत्ता प्रतिष्ठान से असहमति का साहस ही लोकतंत्र की ताकत है।
भारतीय लोकतंत्र दुनिया के अनेक लोकतांत्रिक देशों की तुलना में सबसे ज्यादा परिपक्व लोकतंत्र है। एशिया और दक्षिणी अमेरिका के अनेक देशों ने आजादी के समय लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाया था परंतु अच्छी वैचारिक समझ के बावजूद सत्ता की अनिवार्य बुराई तानाशाही की ओर बढ़ते चले गए और फिर एक बार फिसले तो वो फिसलन आज तक जारी है । लेकिन भारत में तमाम किस्म के वैचारिक असहमतियों के बीच लोकतांत्रिक प्रक्रिया बदस्तूर जारी रही।इसका बहुत बड़ा कारण रहा है वैचारिक असहमतियों का साहस। यदि आजादी के बाद के लोकतांत्रिक इतिहास पर नजर डालें तो देश में कांग्रेस, कम्यूनिस्ट पार्टी, समाजवादी धाराओं की पार्टियां, पूंजीवाद की कट्टर समर्थक स्वतंत्र पार्टी, राजतंत्र और सामंती व्यवस्था की समर्थक जनसंघ पार्टी आदि हैं
विज्ञान कहता है कि जिस तरह एक व्यक्ति के हांथ की रेखाएं दूसरे से नहीं मिलती है, ठीक उसी तरह प्रत्येक मनुष्य का मस्तिष्क अलग-अलग सोच वाला होता है और उसके एक साथ होने के लिए साझा सामाजिक उद्देश्य जरूरी है। फिर वह उत्पादन से लेकर मनोरंजन तक कुछ भी हो सकता है। इस आधार पर जब हम भारतीय लोकतंत्र का परीक्षण करते हैं तो पाते हैं कि अब तक सत्ता में बैठी पार्टियां जनता के प्रति साझा सामाजिक सरोकार के लिए प्रतिबद्ध लोगों से बनी हुई थी और जब कभी भी सत्ता प्रतिष्ठान जनता पर लोकतंत्र पर हमलावर हुआ उस पार्टी के भीतर से ही प्रतिरोध भी उभरा। नेताओं के बीच मतभेद खुले और पारदर्शी रहे। मतभेद और आगे बढ़े तो पार्टियां टूटीं ।हम देखते हैं कि जनसरोकार के लिए प्रतिबद्ध राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े हुए नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी, समाजवादी धाराओं की पार्टियां वैचारिक मतभेद होने पर अनेकों बार टूटीं परंतु उनकी नीतियां जन केंद्रित रहीं। एक पार्टी से अलग-थलग पार्टी बनाने वाले नेताओं के बीच जन मुद्दों पर साझा संघर्ष और सौहार्द्र पूर्ण संबंध बरकरार रहे। आपातकाल का यदि खुद कांग्रेस पार्टी के भीतर विरोध नहीं होता तो भारतीय लोकतंत्र किस पड़ाव में होता कह नहीं सकते। खैर तात्पर्य यह कि सत्ता में बैठी हुई पार्टी में यदि आंतरिक लोकतंत्र और असहमतियों को सार्वजनिक करने वाले लोग न हों तो लोकतंत्र कमजोर होते हुए तानाशाही के रास्ते चल पड़ता है। आज हमारे देश में यह खतरा मंडरा रहा है।
समाज विज्ञान यह कहता है कि छिपे उद्देश्य (hidden agenda) के साथ सत्ता पर काबिज होने के लिए काम करने वाले न सिर्फ षड्यंत्रकारी होते हैं बल्कि कायर भी होते हैं।पद प्रतिष्ठा के बिना वे अपने अस्तित्व की कल्पना नहीं करते और उसे बचाने चुपचाप रहते हैं।
आज आरएसएस प्रचारक नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं, आरएसएस को पहली बार केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली सरकार मिली है।हम सभी जानते हैं कि हिंदू राष्ट्र के हिडन एजेंडा के तहत सत्ता में काबिज होने आरएसएस विभिन्न तरह के षड्यंत्र और समझौते करता रहा है और अपने केडर को सभी पार्टियों के भीतर बैठाकर रखता है ताकि संस्कृति की आड़ में सत्ता की ढाल के साथ उनका षड्यंत्र जारी रहे। मोदी और अमित शाह ने मिलकर भारतीय जनता पार्टी के भीतर थोड़ा बहुत आंतरिक लोकतंत्र था उसे समाप्त कर दिया है। लेकिन उससे बड़ा दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति यह कि मोदी तमाम लोकतांत्रिक परंपराओं को तोड़ रहे, सेना धर्म जाति का खुलकर राजनीतिक इस्तेमाल कर रहे, पूरे देश के बुद्धिजीवी संस्कृति कर्मी नौकरशाह या जो भी लोकतांत्रिक परंपराओं के साथ हैं वे अपनी चिंताएं जाहिर कर रहे हैं परंतु राष्ट्रीय स्तर के एक भी बड़े नेता ने इसके खिलाफ अपना मुंह सार्वजनिक रूप से नहीं खोला। फिर चाहे आडवाणी हों मुरली मनोहर जोशी हों या अन्य जो कभी अपने को राष्ट्रीय नेता मानते रहे हैं। बहुतों को उम्मीद थी इनमें से खासकर आडवाणी बगावत का झंडा बुलंद कर बाबू जगजीवन राम, मोरारजी देसाई ,चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह, या चंद्रशेखर की परंपरा को निभाएंगे। परंतु ऐसा इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि इन सभी की प्रतिबद्धता जनता और लोकतंत्र के साथ नहीं आरएसएस के षड्यंत्रकारी हिडन एजेंडा के साथ है।
इसलिए आज सारी जिम्मेदारी जनता के ऊपर है लोकतंत्र बचाने की क्योंकि अब भाजपा पूरी तरह से आंतरिक लोकतंत्र विहीन पार्टी बन चुकी है। आइए भारतीय लोकतंत्र की गौरवशाली परंपरा को बचाने तानाशाही की पार्टी को परास्त करें। भाजपा को हराएं लोकतंत्र बचाएं
नंद कश्यप जी छत्तीसगढ़ के राजनीतिक विचारक