भूमि अधिग्रहण के लिए अब बघेल ने तानी बंदूक
संजय पराते
कांग्रेस ने पिछले विधान सभा चुनाव के दौरान भाजपा सरकार द्वारा टाटा के लिए अधिग्रहित जमीन की वापसी का वादा किया था. यह वादा भी आदिवासियों को अपने साथ लाने के लिए राहुल गांधी ने किया था, भूपेश बघेल ने नहीं. इसलिए बस्तर में आदिवासियों की जमीन वापस की गई है, तो सरगुजा, कोरबा, रायगढ़, रायपुर व अन्य जगहों के आदिवासी मुगालते में न रहे. विपक्ष में रहते कॉरपोरेटों को गाली देने वाले भूपेश की राह भी वही है, जो रमनसिंह की थी.
इसीलिए मदनपुर और लगे गांवों में कल फौज-फाटा मय बंदूकों के उतार दिया गया. भूपेश भी अडानी के कोल ब्लॉक के लिए आदिवासियों को उजाड़ना चाहते हैं. भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही ग्राम सभा के उन प्रस्तावों के आधार पर शुरू कर दी गई है, जो कभी हुई ही नहीं. ग्राम सभा ही नहीं हुई, तो कोल ब्लॉक के लिए अधिग्रहण की सहमति या असहमति का प्रश्न ही नहीं उठता. लेकिन कलेक्टर के हाथों में ग्राम सभा की सहमति के प्रस्ताव हैं और इन प्रस्तावों पर अंगूठों के निशान हैं. प्रशासन मासूमियत से पूछ रहा है कि यदि ग्राम सभा नहीं हुई, तो सहमति के प्रस्तावों पर अंगूठों के निशान कैसे लग गए? उसे पिछले कई सालों से वह प्रतिरोधी संघर्ष नहीं दिख रहा है, जो कह रहा है कि वे अडानी या किसी कारपोरेट की तिजोरी भरने के लिए अपनी जमीन देने के लिए तैयार नहीं है. वे प्रशासन पर फ़र्ज़ी ग्राम सभाएं आयोजित करने और फ़र्ज़ी अंगूठे लगाने के आरोप लगा रहे हैं.
प्रशासन का फर्जीवाड़ा साफ है. यदि ग्रामीण अडानी को जमीन देने के लिए सहमत हैं, तो अधिग्रहण की कार्यवाही बंदूकों के साये में करने की जरूरत ही नहीं पड़ती. यदि ग्रामीण अडानी के साथ रहते, तो अधिग्रहण के खिलाफ इतना जबरदस्त प्रतिरोध नहीं होता कि प्रशासन को अपने पैर ही वापस खींचने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता. गांवों से बंदूकधारी प्रशासन वापस जरूर चला गया है, लेकिन इस चेतावनी के साथ कि वे वापस आएंगे लोकसभा चुनाव निपटने के बाद! लोकसभा के बाद अपनी जमीन कैसे बचाते हो, देखते हैं!!
मुख्यमंत्री का बयान है कि अडानी को गैर-कानूनी काम नहीं करने दिया जाएगा. उन्हें पूरा विश्वास है कि अडानी कोई गैर-कानूनी काम कर ही नहीं सकता. गैर-कानूनी काम तो वे लोग कर रहे थे, जो पुलिस की बंदूकों के खिलाफ अपनी लाठियां तानकर खड़े हो गए थे. उन्हें इस सरकार को धन्यवाद देना चाहिए कि उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गई.
उद्योगमंत्री जयसिंह अग्रवाल ने पहले ही दलाली की भाषा बोल दी है कि टाटा मामले के बाद अब किसी की जमीन वापसी का सवाल नहीं है. भले ही भूमि-अधिग्रहण कानून कहता हो कि जिस परियोजना के लिए जमीन ली गई है, यदि वह 5 साल के भीतर पूरी नहीं होती, तो मूल भूस्वामी को जमीन वापस की जाएगी और सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया है कि ऐसी स्थिति में मुआवजा भी लौटाया नहीं जाएगा. लेकिन सरकार को कानूनों से कोई मतलब नहीं. इन कानूनों से दलालों के हित पूरे नहीं होते. यदि इस कानून के अनुसार जमीन वापसी का रिवाज चल पड़ा, तो छत्तीसगढ़ में एक लाख हेक्टेयर जमीन वापस करना पड़ेगा, जो धन-कुबेरों के सेहत के लिए ठीक नहीं है.
बहरहाल पूरे देश मे भूपेश सरकार की किरकिरी होनी थी, सो हुई. लेकिन यदि जल-जंगल-जमीन का सौदा करना है, चुनाव के लिए कॉरपोरेट फंड जुटाना है, तो ऐसी छोटी-मोटी बाधाएं तो आएंगी ही. रमन ने भी परवाह नहीं की थी, भूपेश भी नहीं करेंगे. तू चोर-तू चोर का खेल तो चलता ही रहेगा.
सो, लोकसभा के बाद आने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए जनपक्षधर सभी ताकतों को कमर कस लेना चाहिए. जो लोग भूपेश और कांग्रेस से मोह लगाए बैठे हैं, उनका भ्रम भी तेजी से टूट रहा है, टूटेगा. यथार्थ की कड़ी धरती पर किसानों के हंसिये और मजदूरों के हथौड़े ही काम आएंगे. आने वाला समय संघर्षों के होगा — नव उदारवादी नीतियों के खिलाफ संघर्षों का. यह संघर्ष ही शोषण और विस्थापन के दुष्चक्र पर रोक लगाएगी.
छतीसगढ़ किसान सभा ने कांग्रेस सरकार की जबरन भूमि अधिग्रहण के प्रयासों की तीखी निंदा की है और आने वाले समय मे विस्थापन के खिलाफ, किसानों के भूमि अधिकार और आदिवासियों के वनाधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष तेज करने के लिए और ग्रामीण जन-जीवन से जुड़े ज्वलंत मुद्दों पर साझा संघर्ष विकसित करने के लिए कृत संकल्पित होने का दावा किया है.
इधर दो दिन पहले ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इस मामले में पूछे जाने पर कहा था कि छत्तीसगढ़ में किसी को भी मनमानी करने नही दिया जाएगा । उन्होंने इस मामले पर अपने जवाब को ट्वीट भी किया था ।