देश के सीने पर चुभ रही है मोदी की सफेद दाढ़ी
राजकुमार सोनी
पहले वे आए कम्युनिस्टों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था.
फिर वे आए ट्रेड यूनियन वालों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था.
फिर वे आए यहूदियों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था.
फिर वे मेरे लिए आए
और तब तक कोई नहीं बचा था
जो मेरे लिए बोलता.
मोदी ने अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल में जिस ढंग से मानवाधिकार संगठनों, कार्यकर्ताओं और संवैधानिक संस्थाओं को कुचलने का काम किया है उसके बाद हिटलर के शासनकाल के एक कवि और फासीवादी विरोधी कार्यकर्ता पास्टर निमोलर की यह कविता बरबस याद आती है. देश अब लोकसभा का चुनाव देखने को तैयार है. इस बार भाजपा की यह पूरी कोशिश होगी कि उसका वोटर राम नाम की माला जपते हुए उसका बेड़ा पार लगा दें, लेकिन सरकार की कारगुजारियों से इतना संकेत तो मिलता ही है कि अब की बार… मोदी सरकार का नारा अब की बार… माफ कर दो यार में बदल सकता है. हालांकि मोदी भक्तों का संसार इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है. मोदी को कण-कण में भगवान जैसा मानने वाले मूढ़ भक्तों को लगता है कि यदि देश को मुसलमानों से बचाना है तो मोदी को लाना जरूरी है. उनको लगता है कि देश की सरहद पर मजदूर और किसान के बेटे नहीं ब्लकि मोदी का विचार एक सैनिक ( रक्षा कवच ) बनकर तैनात है और मोदी देश को सर्जिकल स्ट्राइक में झोंककर सुरक्षित रखे हुए हैं. मोदी की दुनिया को सर्वव्यापी बताने वाले विचारक यह मानने को तैयार ही नहीं है कि तिलिस्म टूट चुका है और मोदी अब एक ऐसी ढलान पर है जहां से उन्हें नीचे और नीचे ही उतरते जाना है.
बहरहाल अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल में मोदी ने जितनी ज्यादा बार झूठ का सहारा लिया है उससे कहीं ज्यादा बार उन्होंने अपनी हत्यारी करतूतों से लेखकों, पत्रकारों, कवियों, सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को डराया-धमकाया है. उनके भक्त गंदे तरीके से यह बात प्रचारित करते हैं कि मुसलमान देश को डराने के लिए दाढ़ी रखते हैं, लेकिन वे कभी नहीं कहते कि मोदी की झक सफेद दाढ़ी का एक-एक बाल आवाम और अभिव्यक्ति की छाती पर भद्दे तरीके से चूभता रहा है और अब भी चूभ ही रहा है. यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद देश को एक नए तरह के आपातकाल से गुजरना पड़ा है और यह भयावह स्थिति शायद हथकंड़ों के जरिए चुनाव के परिणामों तक बरकरार रहने वाली है.
यह कैसा राष्ट्रवाद
मोदी सरकार और उनके अनन्य भक्तों ने एक नए तरह के राष्ट्रवाद को जन्म दे रखा है. भक्त मानते हैं कि अगर कोई मुसलमान गाय को घूर लें तो गाय अपवित्र हो जाती है. और कोई हाथ फेरता हुआ पकड़ा जाए तो फिर उसकी खैर ही नहीं.अभी हाल के दिनों में अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच ने एक रिपोर्ट जारी की है जो आंख खोलने वाली है. इस रिपोर्ट में यह कहा गया है कि मोदी सरकार अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमलों को रोकने और उनकी जांच को लेकर पूरी तरह से नाकाम रही है. वर्ष 2017 में कतिपय कट्टरपंथियों ने जानबूझकर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के बारे में यह अफवाह फैलाई थीं कि वे गायों को खरीदते-बेचते हैं और फिर उन्हें मार देते हैं. इस अफवाह का नतीजा यह हुआ कि अल्पसंख्यकों को जानलेवा हमले का शिकार होना पड़ा. वर्ष 2017 में देशभर में 38 से ज्यादा हमले हुए जिसमें दस लोग मारे गए. ह्यूमन राइट्स वॉच’ का यह भी आरोप है कि सत्ताधारी दल भाजपा के कई नेताओं ने भारतीयों के बुनियादी अधिकारों की कीमत पर केवल हिंदू ही श्रेष्ठ हैं के एजेंडे पर काम किया और एक राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया जिसमें हिंसा का स्थान महत्वपूर्ण हो गया.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने 90 से ज़्यादा देशों में मानवाधिकारों की स्थिति का जायजा लेते हुए अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता के अधिकार के हनन और क़ानून व्यवस्था लागू करने के नाम पर भारत में इंटरनेट सेवाओं को बंद करने के चलन का मुद्दा भी उठाया है. रिपोर्ट बताती है कि राज्य सरकारों ने हिंसा या सामाजिक तनाव रोकने की आड़ लेकर इंटरनेंट बंद करने सहारा लिया है ताकि क़ानून व्यवस्था को कायम रखा जा सके. इंटरनेट सेवाओं को ठप करने की सबसे खराब स्थिति जम्मू और कश्मीर में बताई गई है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने निजता और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार को संविधान के मौलिक अधिकारों का दर्जा दिया था, लेकिन धरातल पर ऐसा नजर नहीं आया बल्कि हुआ यूं कि दमनकारी सरकारी नीतियों की आलोचना करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखकों, कवियों, पत्रकारों को आपराधिक मानहानि और राजद्रोह जैसे मामलों का सामना करना पड़ा.
देशभर में सबसे ज्यादा बुरी स्थिति छत्तीसगढ़ की रही हैं. अब तो यहां कांग्रेस सत्तासीन है, लेकिन जब भाजपा की सरकार थीं तो उसने चुन-चुनकर पत्रकारों को निशाना बनाया. भाजपा ने कार्पोरेट जगत के अखबार मालिकों को तो बख्श दिया, लेकिन उनके यहां कार्यरत पत्रकार जेल में ठूंसे गए या फिर नौकरी से हकाल दिए गए. सत्ता के आगे मालिकों की घुटना टेक नीति के चलते छोटे-बड़े सभी तरह के पत्रकारों को रोजी-रोटी का संकट झेलने को भी विवश होना पड़ा. सर्वाधिक प्रताड़ना माओवाद प्रभावित बस्तर के पत्रकारों को झेलनी पड़ी. इसके अलावा सरकार की नीतियों के खिलाफ असहमति व्यक्त करने वाले सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता सीधे पर माओवादी घोषित किए गए. बच्चों के कुपोषण के खिलाफ काम करने वाले डाक्टर विनायक सेन माओवादियों के शहरी नेटवर्क का हिस्सा होने के आरोप में लंबे समय तक जेल में बंद रहे. पिछले साल 29 अगस्त को देश भर छापे डाले गए. छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के अधिकारों को लेकर कार्यरत रही नामी अधिवक्ता सुधा भारद्वाज सहित अन्य पांच प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी ने यह दर्शाया कि मोदी जरूरत से ज्यादा डरे हुए हैं. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जिस ढंग से प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश में शामिल होना बताया गया उससे हुआ कि पुलिस और सुरक्षा एजेंसियां किसी न किसी बहाने जन आंदोलन से जुड़े लोगों को जेल के सींखचों के पीछे धकेलकर विरोध के स्वर को कुचलना चाहती है.
फिलहाल तो सरकार असहमति रखने वालों की देशभक्ति पर सवाल उठाना आम बात हो गई है. दलितों और आदिवासियों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों को माओवादी कहकर जेल में डाल देने की प्रवृत्ति अब भी बरकरार है. जब अदालतें हस्तक्षेप करती हैं, तभी पीड़ित और प्रताड़ित लोगों को कुछ उम्मीद बंधती है, लेकिन अब अदालतों में न्यायाधीशों की चीख-पुकार भी सामने आने लगी है. पिछले दिनों देश के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की चीख-पुकार एक पत्रकार वार्ता के जरिए सामने आई थी.
यहां यह बताना लाजिमी है कि केंद्र में जिसकी भी सरकार होती है विपक्ष उसकी सीबीआई को तोता कहता रहा है. बात तोता और मैना तो ठीक थीं, लेकिन मोदी सरकार के साढ़े चार सालों के कार्यकाल में पहली सीबीआई के दो शीर्ष अफसर आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश आस्थाना के बीच अभूतपूर्व झगड़े की गूंज देशभर में सुनाई दी. इस झगड़े से राष्ट्रीय जांच एजेंसी छवि को काफी नुकसान पहुंचा. दोनों अफसरों के बीच झगड़े की शुरूआत 2017 में हुई थी जब वर्मा ने कुछ अफसरों को एजेंसी में शामिल करने की सिफारिश की अस्थाना को नई तैनाती पर आपत्ति थीं. यह झगड़ा जब बढ़ गया तो केंद्र का दखल साफ तौर पर दिखने लगा. रात के अंधेरे में कार्रवाई होने लगी. सीबीआई में जो कुछ हुआ उसे पूरे देश ने देखा. इस झगड़े के बीच सोशल मीडिया में एक टिप्पणी काफी मजेदार ढंग से लोकप्रिय हुई. हालांकि यह महज टिप्पणी है, लेकिन इसे पढ़कर लगता है कि निजी चैनल में दिखाए जाने वाले क्राइम पेट्रोल की एक नहीं ब्लकि दस-बीस स्टोरी अकेले सीबीआई को लेकर ही बनाई जा सकती है.
टिप्पणी कुछ इस तरह की है- वर्मा अस्थाना के खिलाफ हैं, अस्थाना वर्मा के खिलाफ हैं, अस्थाना शर्मा के भी खिलाफ हैं, शर्मा भी अस्थाना के खिलाफ हैं, वर्मा राव के खिलाफ हैं, राव बस्सी के खिलाफ हैं, बस्सी अस्थाना के खिलाफ हैं. यह भी देखो कि प्रधानंमत्री किसके साथ हैं और भाजपा अध्यक्ष किसके साथ हैं. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार किसके साथ हैं और प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव किसका साथ दे रहे हैं, वित्त मंत्री किसके साथ हैं और कैबिनेट सचिव किसके पक्ष में हैं.
जो भी हो… अभी तो देश का लोकतंत्र निलंबित है.
छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल की सरकार ने एक नारा दिया है- छत्तीसगढ़ में लोकतंत्र बहाल हो गया है. उम्मीद करनी चाहिए कि देश में भी लोकतंत्र निलंबित नहीं रहेगा.