पिंजरा हो या चक्रव्यूह, तोड़ने के लिये खुद के प्रयास भी ज़रूरी
डा दीपक पचपोर
संसद के इस वक्त जारी सत्र में सोमवार को राहुल गांधी का भाषण कई मायनों में ऐतिहासिक था। सिर्फ इसलिये नहीं कि उन्होंने सत्ता पर जबर प्रहार किये। ऐसा तो वे पिछले कुछ समय से कर ही रहे हैं। जब वे खुद कमजोर थे तब; जब उनकी कांग्रेस पार्टी कमजोर थी तब; और जब प्रतिपक्षी गठबन्धन इंडिया का अस्तित्व तक नहीं था, तब भी। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के 44 सीटों पर सिमट जाने और 2019 में आंशिक बढ़ोतरी (52) सीटें पाने के बावजूद वे सत्ता पक्ष से सवाल करते ही रहे। 2004 में जब राजनीति में उनका प्रवेश हुआ तब भी; और जब उनकी छवि खराब करने का एक सुनियोजित व खर्चीला प्रचार किया गया, तब भी इसकी परवाह किये बिना उन्होंने भारतीय जनता पार्टी, उसकी केन्द्र या राज्य की सरकारें तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा एवं कार्यपद्धति पर हमले करने नहीं छोड़े। पिछले एक दशक से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि को वास्तविकता से बड़ा बनाने के लिये राहुल सहित अन्य नेताओं को बौना; और वैसे ही भाजपा को महान संगठन साबित करने के लिये कांग्रेस समेत बाकी सभी राजनीतिक दलों को नगण्य बना दिया गया। ऐसे माहौल में भी उपेक्षित व अपमानित होते हुए और खुद का मखौल बनते हुए राहुल ने अपनी जिम्मेदारी पूरी की- सरकार की खामियां बताने की।
2014 में तब से शुरू करें जब मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया गया था। तभी से देश के हर वर्ग का दुश्मन कांग्रेस को बताया गया। कांग्रेस की पूर्व सरकारों की आलोचना के क्रम में मोदी और उनके सहयोगी ठीक पिछले पीएम डॉ. मनमोहन सिंह से लेकर ठेठ जवाहरलाल नेहरू तक अक्सर पहुंचते रहे। समाज का ऐसा कोई भी वर्ग नहीं होगा जिसके विरोधी के रूप में कांग्रेस को निरुपित किया गया। सबसे बड़ा तो उसे हिन्दुओं का शत्रु बताया गया। यह भाजपा की ध्रुवीकरण की राजनीति थी जो रामजन्मभूमि आंदोलन के बाद पीछे छूट गयी थी। यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी ने भी जब 1999 से 2004 तक सरकार चलाई तो उन्होंने हिन्दुत्व का एजेंडा पोटली में बांधकर रख दिया था। कहने को तो मोदी के पीछे कथित गुजरात मॉडल की विरासत थी पर वह इतनी अव्याख्यायित एवं अपरिभाषित थी कि खुद मोदी जानते थे कि इसे राष्ट्रीय स्तर पर समझा पाना और लागू करना सम्भव नहीं है, क्योंकि इस मॉडल का खाद-पानी व उसका मुफीद हवामान केवल पहले से कारोबारी राज्य गुजरात में ही उपलब्ध था। आसान काम था भाजपा के पुराने विमर्श को ही सियासत के बाजार में उतारा जाये। हिन्दुत्व की बयार धीरे-धीरे ऐसी बहाई गई कि सर्वत्र यही एहसास कराया गया कि यदि कोई भाजपा का वोटर नहीं है तो वह मानों हिन्दू ही नहीं है। यहां तक कि मोदी का विरोध करना भी हिन्दुओं का विरोध करना हो गया। इसी संसद के पिछले सत्र में जब लोकसभा में राहुल ने मोदी, भाजपा व संघ के विचारों में हिंसा होने की बात कही तो मोदी द्वारा यह कहकर उसे भुनाने की कोशिश की गयी कि राहुल सभी हिन्दू समाज को हिंसक कह रहे हैं। हालांकि राहुल ने तुरंत इसका खंडन कर दिया कि मोदी, भाजपा या संघ पूरा हिन्दू समाज नहीं है।
अयोध्या में भाजपा की हार के साथ ही हिन्दुओं ने सम्भवतः खुद को मोदी के पिंजरे से मुक्त होने की ओर पहला कदम बढ़ा लिया है। वैसे तो लोकसभा चुनाव में भी मोदी अपने वाराणसी संसदीय क्षेत्र में प्रारम्भिक चरणों में पिछड़ गये थे लेकिन उन्होंने वापसी कर ली। याद हो कि जब पिछले कार्यकाल में मोदी सरकार 3 कृषि कानून लेकर आई थी तब देश के पूरे कृषक समाज ने एक बड़ा आंदोलन किया था जिसमें लगभग डेढ़ सौ हड़ताली किसानों की जानें गयी थीं। अंततः मोदी को उन्हें वापस लेना पड़ा था। यह भी याद करें कि पिछली ही सरकार ने हिट एंड रन मामले में बहुत कठोक कानून लागू किया था जिसमें ऐसे मामलों में अत्यधिक बड़ा जुर्माना और लम्बी अवधि की सजा का प्रावधान था। इसके लागू होने के पहले ही इसके विरोध में देश के सारे बड़े वाहनों के पहिये थम गये थे। सरकार मुश्किल से तीन दिन भी वह हड़ताल झेल नहीं पायी थी और बड़ी मजबूत कहलाने वाली सरकार घुटनों पर आ गयी थी। यही पिजरे से आजादी है और उस चक्रव्यूह को तोड़ना भी, जिसका उल्लेख राहुल ने अपने भा।ण में किया था।
मोदी ने अपने उत्कर्ष काल में ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ और ‘विपक्ष मुक्त भारत’ का नारा दिया था। जनता भी मान चली थी कि देश की सारी समस्याओं की जड़ विपक्षी पार्टियां हैं। मोदी खासमखास केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ऐसा भारत बनाने के लिये दो तरीके आजमाये। एक तो विपक्ष की राज्य सरकारों को दलबदल के सहारे गिराया गया और दूसरे, विपक्षी नेताओं को साथ ले लिया। पहले उन्हें अपनी जांच एजेंसियों के जरिये डराया गया और फिर उन्हें बेबस कर अपनी पार्टी में शामिल किया। अबकी चुनाव के नतीजों से राजनीति ने ऐसी पलटी खाई है कि अब न ‘ऑपरेशन लोटस’ हो रहा है और न ही विरोधी दल के नेताओं का वैसा बड़े पैमाने पर भाजपा में विलय हो रहा है जैसा कि इस चुनाव के पहले होता रहा है। विपक्ष ने भी गुलामी की दोनों निशानियां छोड़ दीं- डरना छोड़कर वे एकजुट हो गये। अब कोई डरा हुआ सबसे अधिक नज़र आ रहा है तो वह है स्वयं मोदी, भाजपा और उसकी सरकार।
प्रतिपक्ष द्वारा खुद को भय के पिंजरे से आजाद कराने का परिणाम सामने है। यह लोकसभा कई लोगों को पिंजरे से आजाद कराने वाली नज़र आ रही है। लम्बे समय के बाद अब विपक्ष ऐसा मजबूत आया है जो कई वर्गों व समूहों को सरकार के चक्रव्यूह से आजाद कराता हुआ नज़र आ रहा है। वह छात्रों की बात कर रहा है, पिछड़े वर्गों की बात कर रहा है, अग्निवीरों की बात कर रहा है, किसानों की बात कर रहा है, मणिपुर की बात कर रहा है, मध्य वर्ग की बात कर रहा है। यहां तक कि जिन पत्रकारों को संसद भवन के परिसर में किसी भी नेता-सांसद से बात करने की मनाही थी और जिन्हें लोकसभा सचिवालय ने एक पिंजरेनुमा गलियारे में कैद कर रखा था, उसकी भी बात कर रहा है। बात की गयी तो पत्रकार भी आजाद हो गये। राहुल ने बजट पर अपनी चर्चा में उन्हें मुक्त करने की मांग की जिसे मानते हुए लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने नयी व्यवस्था की जिसके तहत अब पत्रकार पूरे परिसर में कहीं भी आने-जाने के लिये स्वतंत्र हैं।
मजेदार बात यह है कि इन पत्रकारों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा का समर्थक है। उनके मालिकों को भाजपा की ओर से खूब विज्ञापन मिलते हैं और उन्हें इस बात से कोई उज्र होता नहीं दिखता कि उन्हें ‘दरबारी’ या ‘गोदी’ मीडिया के नाम से सम्बोधित किया जाता है। राहुल ने तो साफ कहा कि मध्यवर्ग तो भाजपा का समर्थक है जिनके लिये बजट में कोई प्रावधान न कर वह अपना ही नुकसान कर रही है। राहुल सबकी ओर से बोल रहे हैं वहां तक तो ठीक है, लेकिन पिंजरा हो चक्रव्यूह, उसे तोड़ने या उससे मुक्त होने का प्रयास खुद भी करना होगा। अपनी मुक्ति का ठेका किसी को देना दूसरी गुलामी को स्वीकारना है।
लेखक श्री दीपक पाचपोर छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह लेख प्रतिष्ठित अखबार दैनिक देशबंधु सहित कई अन्य अखबारों में प्रकाशित हो चुका है