बस्तर में कोहराम (3): काॅरपोरेट डकैती और सरकार
कनक तिवारी
बस्तर में आदिवासियों के पुलिसिया और उसके मुकाबिले नक्सली हत्याकांड हुए। कुछ मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के कारण हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट मामले पहुंचाए भी गए। इंसाफ की मशीनरी की गति से कहानियों वाला कछुआ भी शरमा रहा है। कई मामले गोदामों तहखानों में सड़ रहे होंगे। उन्हें जला दिया जाए तो बेहतर है। बस्तर में भी हो रहे अन्याय के खिलाफ हिम्मत करके कुछ लोग सामने आए हैं। ऐसे मानव अधिकार कार्यकर्ताओं की छत्तीसगढ़ और बाहर भी पहचान रही है। डाॅ. ब्रह्मदेव शर्मा ने बस्तर कलेक्टर और बाद में भारत के अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग के अध्यक्ष होने पर संवेदनात्मक पहल के जरिए अकूत सेवा की है। सांसद अरविन्द नेताम को बस्तर से ठेकेदारों और नेताओं की साजिश के चलते पुलिसिया पहरे में बस्तर से बाहर ले जाया गया। ब्रह्मदेव शर्मा को निर्वस्त्र कर सड़कों पर जलील किया। बस्तर सम्भाग के मुख्यालय जगदलपुर से दोनों बड़ी पार्टियों की अनारक्षित सीट के विधायक क्रमश: वैश्य समुदाय से ही होते हैं। उत्तरप्रदेश, पंजाब, आंध्र, गुजरात, तमिलनाडु वगैरह के बड़े गैरआदिवासी ठेकेदार बस्तर की वन संपत्ति के मालिक हो गए हैं। आदिवासी सांसदों, विधायकों, मंत्रियों का मलाईदार तबका अपनों के अधिकारों के लिए लड़ने के बदले उच्चवर्णीय सत्ता संगठन का बगलगीर और पिट्ठू होता रहता है। कभी कभार कोई साहसी अधिकारी उनका भी पर्दाफाश करता है। तो बस्तर में मालिक मकबूजा कांड जैसा घोटाला उजागर होता है। जब आदिवासियों की वरिष्ठ नौकरशाही की कलई खुलती है तब डींग हांकते दोनों पार्टियों के मुख्यमंत्री उनके खिलाफ मामला चलाने की अनुमति तक नहीं देते। लूट बदस्तूर जोर शोर से जारी रहती है। कई ईमानदार कलेक्टरों ने खुलकर अपने ही वरिष्ठों के खिलाफ मय सबूत शिकायतें की हैं। ऐसे अफसरों को तुरंत वहां से हटा दिया जाता है।
बस्तर राष्ट्रीय लूट, हिंसा, और जुल्म का बड़ा अड्डा बन गया है। खनिजों और वन संपत्ति पर काॅरपोरेटी गिद्ध दृष्टि है। किसी सरकार में दम नहीं इसे रोक सके। बल्कि मुकाबला है कैसे काॅरपोरेटियों के सामने जल्दी शरणागत हो जाएं। छत्तीसगढ़ का लोहा, कोयला, मैग्नीज, फ्लूरोस्पार, रेत, डोलोमाइट, वन उत्पाद सब काॅरपोरेटी गोडाउन में जाने के लिए सरकारों ने दहेज की तरह बांध दिया है। जितना रुपया कर्नाटक के भाजपाई मंत्री की बेटी की शादी में खर्च हुआ, उतने में बस्तर में आदिवासियों के इलाज के लिए कारगर इंतजाम किया जा सकता है। वहां कोई सरकारी डाॅक्टर नहीं जाता। शिक्षक पढ़ाने नहीं जाते। ज्यादातर विधायकों, मंत्रियों के निजी सचिव बन जाते हैं। मंत्री दौरा नहीं करते। वोट फिर भी कबाड़ लिए जाते हैं। वरना लोकतंत्र का धंधा कैसे चलेगा? नक्सली अतिथि नहीं हैं और न आदिवासियों के मददगार। ईमानदार सरकारें उन्हें खदेड़ सकतीं, लेकिन अरबों रुपयों के जमा खर्च का क्या होगा? मंत्री और अफसर अमीर नहीं होंगे तो लोकतंत्र की बहाली के लिए कैसे लडे़ंगे? उस जमा खर्च का कोई पब्लिक ऑडिट भी नहीं होता और न कोई श्वेत पत्र जारी हो सकता है।
लोकतंत्र शासन का वह तरीका है जिसमें खोपड़ियां गिनी जाती हैं तोड़ी नहीं जातीं। बस्तर में जिस्मफरोशी और जिबह हो रही है। गरीब और मध्य वर्ग के सुरक्षाकर्मी नौजवान पूरे भारत से आकर नक्सलियों द्वारा कत्ल हो जाते हैं। लाशें शहादत के बावजूद कचरा ढोने वाली गाड़ियों में भेजी गई हैं। दोनों तरफ गरीब हैं। पुलिस के सिपाही भी और आदिवासी भी। काॅरपोरेटी, नक्सली और राजनेता उनकी कुश्तियां देखते हैं जैसे चोंच में छुरी फंसाकर मुर्गे और तीतर लड़ाए जाते हैं। इस अय्याशगाह को भी बस्तर कहते हैं।
कभी कभार अपवाद के रूप में कुछ अच्छे लोग आ जाते हैं। मसलन योजना आयोग का एक दल जिसने बेहतर सिफारिशें कीं। सरकारें उन्हें रद्दी की टोकरी में डाल देती हैं। लोकतंत्र में ठसका इतना है कि एक तरफ आदिवासी अवाम को गोलियों से भूंजा जा रहा है। दूसरी ओर सरकारी बगलगीर ढिंढोरची प्रवक्ता जनता को लोकतंत्र का फलसफा पढ़ाते हैं। थीसिस गढ़ते हैं। कोरोना महामारी के पहले दौर में लाखों सड़कों पर तबाह हो गए। प्रधानमंत्री का मुंह नहीं खुला। छत्तीसगढ़ में बार बार कत्लेआम होता है लेकिन अमूमन मुख्यमंत्री देर तक खामोश रहे हैं। सरकारी संपत्ति बेचने के फैसले उनके स्तर पर ही होते हैं। सरकार की सफाई में प्यादे खड़ेे किए जाते हैं।
केन्द्र सरकार का एक और नया विधेयक जंगलों को तबाह करते आदिवासियों को डसने संसदीय बांबी में फुफकार रहा है। कभी भी बाहर आ जाएगा। वह जंगल की पूरी संपत्ति निजीकरण करते काॅरपोरेट को दे देना चाहता है। विरोध करने पर जंगल के अधिकारियों को गोली मारने की इजाजत भी होगी। प्रबंधन का मुख्य हिस्सा कलेक्टर की मुट्ठी में होगा। कई मसलों पर केवल केन्द्र सरकार की चलेगी। बस्तर के जंगलों में अंबानी नगर, अदानीपुर, वेदांता संकुल, एस्सारपुरी और टाटा निलयम उग जाएंगे तो आदिवासी कहां रहेंगे?
बेला भाटिया, ज्यां द्रेज, हिमांशु कुमार, सोनी सोरी, सुधा भारद्वाज, संजय पराते, आलोक शुक्ला, मनीष कुंजाम, बृजेन्द्र तिवारी जैसे कई नाम हैं। वे मोर्चे पर डटते हैं। लेकिन बस्तर इतना नामालूम पाताललोक क्यों है कि वहां की खबरें नरेन्द्र मोदी, राहुल गांधी, अमित शाह, सीताराम येचुरी, ममता बनर्जी, शरद पवार, तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव रामचंद्र राव, जगन रेड्डी और राकेश टिकैत जैसे लोगों को सूचनातंत्र नहीं देता हो। बस्तर जल रहा हैै।
कनक तिवारी