पत्रकारों को साधने में राज्यपाल ने पछाड़ा भूपेश बघेल को

आंदोलनकारियों को मुख्यमंत्री ने दिखा दिया राजभवन का रास्ता

दीपक पचपोरे

पिछले करीब एक हफ्ते से चल रहा छत्तीसगढ़ के पत्रकारों का आंदोलन आज कमल शुक्ला द्वारा अनशन खत्म कर देने के साथ चाहे समाप्त हो गया हो, लेकिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की इस मामले में बड़ी राजनैतिक चूक साफ नज़र आ रही है। करीब एक पखवाड़ा पहले (26 सितम्बर) कांकेर में पत्रकार कमल शुक्ला और सतीश यादव पर हुए हमले के बाद चले विरोध प्रदर्शनों और आंदोलन में शामिल पत्रकारों से मुख्यमंत्री ने संवाद न कर इस मामले को अपने हाथ से फिसल जाने दिया।
इस आंदोलन से निपटने में हुई गलतियों की शुरुआत तो उसी दिन से हो गयी थी जब कांकेर के पुलिस स्टेशन परिसर में ही दोनों पत्रकारों के साथ कुछ लोगों ने मारपीट की। इसमें कमल को ज्यादा चोटें आईं। इसके बावजूद हमलावरों के खिलाफ मामूली धाराएं लगाई गयीं।

इस हमले के खिलाफ 2 अक्टूबर को प्रदेश भर के पत्रकारों ने गांधी मैदान से मुख्यमंत्री निवास जाने के लिये मोर्चा निकाला लेकिन आकाशवाणी चौक पर उन्हें पुलिस द्वारा रोक दिया गया। लम्बे इंतज़ार के बाद जब बघेल मिले ही नहीं तो पत्रकारों ने उनके नाम पर तैयार मांग पत्र को वहीं जला दिया। अगले दिन से ही कमल शुक्ला आमरण अनशन पर बैठ गये। छह तारीख की रात उनका स्वास्थ्य ठीक रहने के बाद भी पुलिस वालों ने उन्हें उठाकर जबरिया अस्पताल में भर्ती करा दिया। कमल पुलिस पहरे में भर्ती तो रहे परन्तु उन्होंने अपना अनशन जारी रखा। इधर बूढ़ा तालाब पर पत्रकारों का धरना भी चलता रहा।

बार-बार अनुरोध करने पर भी सीएम ने पत्रकारों से मिलना उचित नहीं समझा। 9 अक्टूबर को मुख्यमंत्री के राजनैतिक सलाहकार विनोद वर्मा और मीडिया सलाहकार रुचिर गर्ग उनसे मिलने अस्पताल भी पहुंचे परन्तु मांगों पर कोई बात नहीं हुई। अलबत्ता, सलाहकारों ने इसे निजी भेंट बताया और कमल से अनशन तोड़ने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। उल्लेखनीय है कि दोनों ही (वर्मा एवं गर्ग) स्वयं लम्बे समय तक अखबारनवीसी के पेशे में रहे हैं और पत्रकार के रूप में दोनों के नाम बेहद सम्मान से लिये जाते हैं। यह आश्चर्य की ही बात है कि पत्रकारों के बीच उनकी पहुंच और पैठ का इस्तेमाल भूपेश बघेल ने नहीं किया।

बहरहाल, पत्रकारों का धरना बूढ़ा तालाब में और कमल का अनशन अस्पताल में चलता रहा। उनकी तीन मांगें थीं- आरोपियों के खिलाफ़ धारा 307 लगाई जाये, पुलिस अधिकारियों पर कड़ी कार्रवाई हो एवं कांकेर के कलेक्टर को हटाया जाये जिन्होंने कथित रूप से जान-बूझकर मामले को बिगड़ने दिया। तीनों ही कानून-व्यवस्था से जुड़े मुद्दे हैं और उस प्रशासकीय दायरे में आते हैं जो बघेल द्वारा आराम से सलटाये जा सकते थे।

निराश पत्रकारों ने राजभवन का दरवाजा खटखटाया। इस तरह से मुद्दा राज्यपाल अनुसूइया उइके के हाथ में पहुंच गया। उन्होंने रविवार की शाम को पत्रकारों के प्रतिनिधिमंडल से बात की। रायपुर प्रेस क्लब के उपाध्यक्ष प्रफुल्ल ठाकुर के अनुसार राज्यपाल ने उनकी मांगों को सही बताया। उनके अनुसार बघेल सरकार द्वारा इस मामले में संवेदनहीनता बरतने की बात करते हुए राज्यपाल ने कहा कि ऐसा व्यवहार पत्रकार के साथ तो क्या, किसी भी नागरिक के साथ नहीं होना चाहिये। उन्होंने आश्वासन दिया कि पत्रकारों की मांगों के अनुरूप इस प्रकरण में कार्रवाई की कोशिश की जायेगी और वे राज्य सरकार से इस पर विस्तृत रिपोर्ट मंगाएंगी।

एक तरह से देखा जाये तो भूपेश बघेल ने यह मामला खुद ही सुलझाने की बजाय उसे राज्यपाल के हाथों में सौंपकर बड़ी राजनैतिक भूल कर दी है। उनके पत्रकारों से अच्छे संबंध रहे हैं अतः वे पत्रकारों से सीधे वार्ता कर पत्रकारों को राजभवन तक जाने से रोक सकते थे। बात यहीं तक नहीं रूकी, राज्यपाल ने कमल से फोन पर बात कर अनशन तुड़वाने का श्रेय भी लूट लिया जबकि वे आज वैसे भी अपना अनशन समाप्त करने वाले थे।

कुछ मामलों में पहले भी भूपेश सरकार एवं सुश्री उइके में टकराव की नौबत आती रही है, लेकिन यह मुद्दा तो चलकर राज्यपाल की टेबल पर जा पहुंचा है, जिसका पूरा लाभ राज्यपाल को इस मायने में मिलेगा कि वे एक संवेदनशील और कुशल प्रशासक की तरह देखी जायेंगी। मुख्यमंत्री को इस मामले को बेहतर ढंग से हैंडल करना चाहिये था। फिलहाल दो संदेश चले ही गये हैं- पहला तो यह कि सीएम के लिये मारपीट करने वाले लोग पत्रकारों से अधिक अहमियत रखते हैं, और दूसरा यह कि प्रदेश में उनकी बजाय राज्यपाल से मिलना अधिक सुगम है। आंदोलनकारियों को राजभवन का मार्ग उन्होंने दिखला दिया है।

जांच दल की रिपोर्ट से पत्रकार असंतुष्ट: प्रफुल्ल ठाकुर बतलाते हैं कि मामला बिगड़ता देखकर जनसम्पर्क विभाग की ओर से एक जांच दल बनाया गया था, जिसकी रिपोर्ट शनिवार को दी गयी। इसमें अनेक तरह की खामियां हैं। मसलन, रायपुर के पत्रकारों की कमेटी ने रायपुर में ही कमल से बात करने की बजाय उन्हें कांकेर आमंत्रित किया जबकि वे अस्पताल में भर्ती थे। पत्रकारों ने इसे फुसफुसी रिपोर्ट बताते हुए इसके प्रति पूर्णतः नाउम्मीदी जताई है। उनका कहना है कि यह कानून-व्यवस्था का मामला है अतः इसका गठन गृह मंत्रालय द्वारा करना चाहिये था। जो भी हो, सरकार इस रिपोर्ट पर क्या निर्णय लेती है, यह देखना होगा।

टीआई को लाईन अटैच करने में भी राहुल गांधी का निर्देशः बात यहीं तक नहीं रूकती। इस दिशा में एकमात्र कार्रवाई यह हुई है कि कांकेर के पुलिस अधिकारी को लाईन अटैच किया गया है। लोग इसे इसलिये परिहास के रूप में ले रहे हैं क्योंकि बात कुछ इस तरह फैल रही है कि यह कार्रवाई भी कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी के हस्तक्षेप करने पर की गयी है। क्या एक टीआई को लाईन अटैच करने में भी राहुल का निर्देश चाहिये?

दीपक पचपोरे छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं

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