यह कलेक्टर क्या बला है?
( कांकेर में हाल ही में हुए पत्रकारों व कलेक्टर के बीच विवाद के संदर्भ में सामयिक लेख )
कनक तिवारी
कलेक्टर, कमिश्नर वगैरह जनता काे सरलता से उपलब्ध नहीं हाेते। ये सम्बोधन किस बुद्धि के तहत रखे गए हैं, समझ के परे है। क्या जाे कलेक्ट (इकट्ठा) करे वह कलेक्टर और जाे कमीशन (दलाली) से जुड़ा हाे, वह कमिश्नर ? शब्दकाेष में एक अर्थ ताे ऐसा हाे ही सकता है। ‘जिलाध्यक्ष‘ और ‘आयुक्त‘ कितने भद्र सम्बोधन हैं। उनका अंग्रेजी में तर्जुमा करने से कलेक्टर और कमिश्नर तो नहीं ही हाेगा।
भारतीय संविधान में उच्च स्तरीय सेवाओं के लिए भाग चौदह में प्रावधान है। उसमें नाैकरी के बदले ‘सेवा‘ जैसे
पवित्र शब्द का इस्तेमाल किया गया है। कलेक्टर, कमिश्नर वगैरह लाेकसेवक हैं। असल में डी. एम. (जिला मजिस्ट्रेट) के बगंले से सी. एम. (मुख्यमंत्री) के जेहन से उपजी विचार
गंगा का पाथेय पी. एम. (प्रधानमंत्री) की कुर्सी में ढूंढ़ा जा सकता है।
कहने काे तो इस देश की कार्यपालिका में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, मंत्रिमंडल महान्यायवादी हाेते हैं। सत्ता
की नकेल लेकिन प्रधानमंत्री के हाथों में होती है। कहने भर को राज्य की कार्यपालिका की शक्ति राज्यपाल, मंत्रिपरिषद और महाधिवक्ता में हाेती है लेकिन ‘यस चीफ मिनिस्टर‘ के
अलावा क्या है? जिले में होंगे बड़े बड़े मनसबदार, लेकिन होता वही है, जो मंजूरे डी. एम. हाेता है।
पी. एम., सी. एम. और डी. एम. की तिकड़ी लाेकतांत्रिक आचरण का नट-प्रदर्शन है। बाकी तमाशबीन कार्यपालिक संस्थाएं तो सहयाेगी भूमिका में हैं। संसदीय लाेकतंत्र एक
प्रधानमंत्री, तीस मुख्यमंत्री और एकाध हजार नौकरशाहों के विवेकाधीन है। यह भारतीय लाेकतंत्र नहीं है । अंग्रेजी वेस्टमिन्स्टर पद्धति का भारत में विस्तार है। लोकसभा की टिकट बांटने से लेकर मंत्रिमंडल का फेरबदल करने और सर्वाेच्च नौकरशाही की नियुक्ति में प्रधानमंत्री सर्वेसर्वा तानाशाह है। इस सम्बन्ध में जब कभी काेई संवैधानिक दुविधा आती है, तो ब्रिटिश परम्पराएं और नजीरें ढूंढ़ी जाती हैं। यह नहीं देखते कि ऐसे में वशिष्ठ , काैटिल्य या मनु ने क्या सलाह दी हाेगी?
प्रदेश में तो मुख्यमंत्री का एकछत्र राज्य होता है। वह
पुष्पक विमान में विचरण करता है। जनता के धन काे अपना कहकर जनता काे ही राहत के बतौर देकर दयालु हाे उठता है। उसके मंत्री क्रिकेट के ‘नाइट वाचमैन‘ की शक्ल में ही खेल पाते हैं। नौकरशाह राताेंरात निष्ठाएं बदल लेते हैं। इस पूरे सरंजाम का सूत्रधार है कलेक्टर। वह सारे आदेशों का क्रियान्वयन करता है। जिले की राजनीति भी चलाता है। अर्थ नीति पर विशेषज्ञता हासिल करता है और लाेकनीति पर व्याख्यान देता है।
यह कलेक्टर पद क्या बला है? कलेक्टर भूराजस्व इकट्ठा करता है। आपात याेजनाएं बनाता है। बाढ़, सूखा, आगजनी हो या तूफान, उनसे निपटता है। शदियां करवाता है। उनके विवाद निपटाता है। विध्वसं के पदार्थों के लायसेंस देता है। फिर उन्हें जब्त करता है। चुनाव लड़वाता है। चुनाव रद्द करने की सिफारिशें करता है। लाठी गोली चलाने का आदेश देता है। रेडक्राॅस साेसायटी का पदेन अध्यक्ष हाेता है। सस्ते अनाज के दूकानदार तय करता है। फिर उनके ही खिलाफ कार्रवाई करता है। नहर के पानी के वितरण काे देखता है। बैंकाें से ऋण बंटवाता है। डिफाॅल्टर की कुर्कियां भी करता है। मंत्रियों के
जनसंपर्क दौरों में उपस्थित रहता है। सबके सामने मंत्री उसे साहब कहते हैं।
दंगा होने पर जांच अधिकारी नियुक्त करता है। पेड़ तक काटने से राेक सकता है। जंगल कट जाने पर उन्हें वनभूमि से अलग कर सकता है। कलेक्टर वह हातिमताई है जिसके वष में हर जिन्न है।
दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं हाेगा, जहां भारतीय कलेक्टराें से ज्यादा अधिकार सम्पन्न नौकरशाही हो। जिलाबदर करना, राष्ट्रीय सुरक्षा काननू में धर दबोचना, सम्पत्ति राजसात कर लेना कलेक्टर की कुछ दिलचस्प हठमुद्राएं हैं। जबसे भारतीय प्रशासनिक सेवा आई है, नाैजवान कलेक्टराें का देश में माैसम खिल गया है । रिटायर्ड कलेक्टरों के मुख्यमंत्री और केन्द्रीय मंत्रियाें तक के औहदाें पर आने से इस सेवा की विश्वसनीयता में इजाफा ही हुआ है। संविधान वर्णित कार्य पालिका अभी उसी कलेक्टरी अंदाज में ही चल रही है।
अंग्रेजाें के समय जिले में चार बंगले बनते थे-कलेक्टर (डिपुटी कमिष्नर) पुलिस अधीक्षक (कप्तान साहब) सिविल सर्जन (बड़े डाॅक्टर) और चीफ इंजीनियर। कलेक्टर के अतिरिक्त बाकी तीनों की अपनी स्वायत्तता थी। निजीकरण के इस दाैर में बाकी सेवा कम्पनियां दरक गई हैं। कलेक्टर के बंगले के मुकाबले उनकी स्वायत्तता का अब वह आलम नहीं है। नगरपालिक, पंचायत और सहकारी संस्थाओं के कानूनों में इतने पेंच हैं कि हर लाेकतांत्रिक यात्रा कलेक्टर की ड्यौढ़ी से कहीं न कहीं हाेकर गुजरती ही है। असल में कलेक्टर का घर ही दीवाने आम होता है। सुबह पौ फूटने से लेकर ‘गुडनाइट‘ तक के पर्व जनता काे वहीं मनाने पड़ते हैं। श्रेष्ठ कलेक्टर भी हुए हैं। उनके समय काे लोग आज भी याद करते हैं। ये श्रेष्ठ लाेकतंत्रीय उदाहरण हैं। इनका जीवन ही दीवाने आम था। ये मंत्रीगणों से डरकर आदेश नहीं करते थे। वे अपनी कुर्सियों पर पहिए लगवाकर प्रदेश के जिलों में घूमते रहते थे।
बिहार से आए एक कलेक्टर कहते थे कि यदि देश के सारे कलेक्टर ठान लें कि भ्रष्टाचार नहीं हाेगा तो वह चूं नहीं कर सकता। अब बिहार के कलेक्टर दहेज के बाजार में कराेड़पति हाेते हैं। संविधान नई गीता है। उसके तहत आईएएस अधिकारियों के बहुत से अधिकार छीने जाएं। उनका विकेन्द्रीकरण किया जाए। चिकित्सा, सिंचाई , भवन निर्माण, पर्यावरण जैसे तकनीकी मामले कलेक्टर काे कहां समझ आते हैं? उसे बैंकाें के ऋण, पंचायती और नगरपालिक संस्थाओं के पचड़ाें से जाेड़ने की क्या जरूरत है? बन्दकू , पिस्तौल का लाइसेंस पुलिस अधीक्षक क्यों नहीं दे सकते? खदानों से हीरा निकालने का काम खनिकर्म विभाग तक ही सीमित क्याें नहीं हाे सकता? शादियां न्यायपालिका क्यों नहीं करवा सकती? तलाक ताे वही करवाती है। जंगल कट रहे हैं, सूख
रहे हैं। कलेक्टर ‘साहब‘ ताे कम्प्यूटर पर ही बैठे हाेते हैं। साक्षरता के काम काे शिक्षा विभाग क्यों नहीं करता? बात असल में संस्थाओं के लाेकतांत्रिकीकरण की है, विकेन्द्रीकरण
की है। कलेक्टराें काे आवश्यक सेवा का उपकरण बनाए जाने के बदले संवेदनशीलता के मरहम के रूप में विकसित किया जाने की जरूरत है।
(लेखक कनक तिवारी देश के प्रसिद्ध अधिवक्ता, विचारक व लेखक हैं )