संसाधन बनाम संवेदना
राज्य में अब भी पैदल चलने को मजबूर मजदूर
प्रफुल्ल ठाकुर
राज्य सरकार ने राज्य के मजदूरों को उनके जिले और दूसरे राज्य के मजदूरों को राज्य की सीमा तक छोड़ने टाटीबंध चौक, बाघ नदी बॉर्डर और अन्य सीमाओं पर करीब डेढ़ सौ बसें लगाई हैं। टाटीबंध चौक में तो भारी तामझाम किया गया है। तीस-चालीस बसें तो हरदम खड़ी ही रहती हैं। इसके बावजूद अब भी मजदूर पैदल चलने या ट्रकों में जाने को मजबूर हैं। मुख्यमंत्री के निर्देश भले ही हों कि राज्य के भीतर कोई मजदूर सड़क पर पैदल नहीं चलेगा, मगर अधिकारी उन्हें अब भी पैदल चलवा रहे हैं।
दरअसल ये पूरा मामला संसाधन बनाम संवेदना का है। सरकार ने संसाधन तो जुटा दिए मगर अधिकरियों के अंदर मजदूरों को लेकर संवेदना अभी भी जाग नहीं पाई है। जब तक उनके अंदर संवेदना नहीं जागेगी, तब तक उन्हें मजदूरों का दर्द समझ नहीं आएगा और जब तक उन्हें मजदूरों का दर्द समझ नहीं आएगा, तब तक उनके अंदर मदद का भाव पैदा नहीं होगा। जब तक मदद का भाव पैदा नहीं होगा तब तक वे मदद करेंगे नहीं।
टाटीबंध में जुटा सरकारी अमला 8 घंटे की नौकरी करने आता है। उसे लगा रहता है, कब उसका टाइम हो और इस काम से मुक्ति मिले। सरकारी अमले में मजदूरों की मदद का भाव दिखता ही नहीं। उन्हें कोई फर्क ही नहीं पड़ता कि मज़दूर कब आया है, कब जाएगा, किससे जाएगा ? उन्हें तो बस अपनी 8 घंटे की ड्यूटी बजानी है।
अधिकारियों-कर्मचारियों के इस आसंवेदनशील रवैये का खामियाजा मजदूरों को भुगतना पड़ रहा है। इसका खामियाजा भुगतना तो सरकार को भी पड़ेगा, मगर इसका अहसास उसे देर से होगा। अगर, जल्द यह अहसास हो गया तो खामियाजा थोड़ा कम हो सकता है। फिलहाल आप सभी संसाधन बनाम संवेदना की कुछ कहानियां पढ़िए…
कहानी-1
मध्यप्रदेश के 25 मजदूरों का एक समूह शनिवार तड़के टाटीबंध चौक पहुंचा। सभी ओड़िसा से आये थे। मुख्यमंत्री के निदेश के मुताबिक उन्हें राज्य की सीमा तक छोड़ा जाना था। उस दल में एक गर्भवती समेत कुल 10 महिलाएं थी। चार-पांच बच्चे भी थे। उन सभी मजदूरों को शाम 4 बजे तक बैठाकर रखा गया और उनके लिए बस की व्यवस्था नहीं कि गई। अंततः मजदूरों का सब्र जवाब दे गया और वे पैदल ही निकल गए। किसी व्यक्ति ने ‘समर्थ’ और ‘वी द पीपल’ संस्था के साथियों को सूचना दी। वे सभी कुछ ही दूर पहुंचे थे कि साथी उनके पास पहुंच गए। साथियों को जो उन्होंने बताया उसके मुताबिक वे 25 लोग थे और बस 35 सीटर थी। जिस रूट से उन्हें जाना था, उस रूट के अन्य लोग नहीं थे। इसलिए पूरे दिन 25 लोगों को बैठाकर रखा गया और बस को नहीं भेजा गया। साथियों ने काफी जद्दोजहद के बाद बस का इंतजाम कराकर उन्हें आगे रवाना किया।
कहानी-2
राजनांदगांव बॉर्डर से मजदूरों को लेकर एक बस शाम को टाटीबंध चौक पहुंचती है। बस को आरटीओ और पुलिस के जवान रोकते हैं। ड्राइवर से कुछ बात करते हैं और बस को आगे जाने बोलते हैं। बस चल देती है। ‘समर्थ’ और ‘वी द पीपल’ संस्था के कुछ साथी बस के पीछे हो लेते हैं। बस को कुछ दूर आगे जाकर रुकवाते हैं। ड्राइवर से पूछने पर पता चलता है बस छत्तीसगढ़ के विभिन्न जिलों के अलावा झारखंड और पश्चिम बंगाल के मजदूरों को लेकर आ रही है। उसका अंतिम स्टॉपेज टाटीबंध चौक ही था, मगर आरटीओ और पुलिस वालों ने सबको टाटीबंध चौक से 4-5 किलोमीटर आगे छोड़ने बोला है। साथी बस को वापस टाटीबंध चौक लेकर लाते हैं। अधिकारियों से बात करते हैं तो पहले अधिकारी आनाकानी करते हैं, फिर साथियों को ही धमकाने लगते हैं। पता चला है, आरटीओ की एक महिला अधिकारी बसों के जाने का हिसाब-किताब रखती है। वह तो किसी से सीधे मुंह बात तक नहीं करती। बड़ी मसक्कत के बाद उस बस से आये राज्य के मजदूरों को उनके जिलों के लिए रवाना किया जा सका। अन्य राज्य के मजदूरों को शायद सुबह भेजा जाए।
कहानी-3
राज्य के एक जिले से झारखंड के मजदूरों को बॉर्डर तक छोड़ने के लिए एक सरकारी बस निकलती है। थोड़ी दूर जाकर ड्राइवर बस रोक देता है और प्रति व्यक्ति 500 रुपये मांगता है। सभी लोग बस से उतर जाते हैं। पैदल जाने के लिए। सूचना ‘समर्थ’ और ‘वी द पीपल’ के साथियों तक पहुंचती है। एक साथी उस जिले के एसडीएम से बात करते हैं। एसडीएम उनके लिए बस की व्यवस्था करते हैं। मगर, अपने जिले की सीमा तक के लिए ही। झारखंड का बॉर्डर अभी तीन जिलों के बाद है। साथी ने एसडीएम के ऊपर के अधिकारी से बात करते हैं। अधिकारी मजदूरों के बॉर्डर तक छोड़ने के निर्देश देते हैं। मगर परिवहन अधिकारी ने उसमें डीजल का अनुमोदन केवल अगले जिले तक के लिए किया। साथी ने फिर अलगे जिले के तहसीलदार को फोन किया। उन्होंने कहा मामला आरटीओ देखते हैं। फिर आरटीओ को फोन किया। आरटीओ ने अगले जिले तक लिए बस की व्यवस्था की। उसके बाद बॉर्डर तक उन्हें छोड़ने के अंतिम जिले के अधिकारियों से बातचीत की कोशिश देर रात तक जारी रही। सुबह अगले जिले वालों ने मजदूरों को बॉर्डर तक छोड़ने का इंतजाम किया। ये दो दिन पूर्व की घटना है।
इस कहानियों से अंदाजा लगाइए की इतने संसाधन, तामझाम का क्या मतलब, जब आपके संवेदना ही नहीं है।
अंत में….
तीन बातें
- मजदूर अब भी पैदल चलने और ट्रकों पर जाने मजबूर हैं।
- सुविधा के नाम पर सिर्फ वेवकूफ बनाया जा रहा है। टाटीबंध चौक में मजदूर जमीन पर सो रहे हैं। या तो रतजगा कर रहे हैं। पंडाल ठसाठस भरे हुए हैं।
- मुख्यमंत्री सहायता कोष में 65 करोड़ रुपये दान में आये हैं। खर्च कहां हो रहे, पता नहीं।
प्रफुल्ल ठाकुर