भगतसिंह का जीवन प्रकाश की तरह उजला और सूरज के ताप की तरह उष्ण था
28 – सितंबर भगत सिंह की जयंती पर विशेष
क्रांतिकारियों के सिरमौर चंद्रशेखर आजाद से भी ज्यादा लोकप्रिय भगतसिंह पंजाबी, संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी के लेखक-विचारक थे। माक्र्सवाद से पूरी तौर पर प्रभावित होने के बावजूद उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बनना स्वीकार नहीं किया। भगतसिंह ने कांग्रेस और क्रांतिकारियों के लोकप्रिय नारे ‘वन्दे मातरम्‘ की जगह माक्र्सवादी नारा ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ भारतीयों के कंठ में क्रांति का प्रतीक बनाकर इंजेक्ट किया। धार्मिक आस्थाओं के आह्वान ‘अल्लाह ओ अकबर‘, ‘सत श्री अकाल‘ वगैरह नारे उछालने में उन्होंने कभी विश्वास नहीं किया।
भगतसिंह के निर्माण के सहयोगी नेशनल काॅलेज लाहोर के प्राचार्य छबील दास, द्वारका दास लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन राजाराम शास्त्री, महान पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी और उनके मित्रों भगवतीचरण वोहरा, चंद्रशेखर आजाद, सोहनसिंह जोश, सुखदेव, विजयकुमार सिन्हा, शचीन्द्रनाथ सान्याल आदि रहे हैं। आश्चर्य की बात है कि भगतसिंह लेखन में विवेकानंद का कोई उल्लेख नहीं है, जबकि मार्च, 1927 में भगतसिंह द्वारा स्थापित ‘नौजवान सभा‘ में लाहौर में बंगाल के क्रांतिकारी नेता और विवेकानंद के भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त को ‘पश्चिम में युवा आंदोलन‘ विषय पर व्याख्यान और समझाइश देने के लिए बुलाया गया था। बंगाल के क्रांतिकारी और कांग्रेस के बड़े नेता तिलक, गोखले, नेहरू और सुभाष बोस आदि विवेकानंद से प्रभावित थे।
भगतसिंह पर सबसे अधिक असर अपने चाचा अजीत सिंह का था। बगावत करने की वजह से उन्हें अंग्रेजों ने लगभग पूरे जीवन के लिए देश निकाला दे दिया था। सरदार अजीत सिंह, पिता किशन सिंह, लाला लाजपत राय, प्राचार्य छबीलदास, लाइब्रेरियन राजाराम शास्त्री के समर्थन और गांधी के आह्वान पर पढ़ाई छोड़कर स्वाधीनता आंदोलन में भगतसिंह के कूद पड़ने के बावजूद कांग्रेस के सरकारी प्रस्तावों ने उनके साथ न्याय नहीं किया। भगतसिंह की फांसी के मुद्दे पर पूरी कांग्रेस लगभग आधे आधे में विभाजित हो गई थी। गांधी के भगतसिंह को अंगरेजी सरकार का विरोध नहीं करने के प्रस्ताव को बहुत मामूली बहुमत के साथ पास किया जा सका। भगतसिंह ने ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन‘ नामक क्रांतिकारी संगठन के नाम में ‘सोशलिस्ट‘ नाम का शब्द इस आशय के साथ जोड़ा कि भारत को जो स्वतंत्रता मिले उसका आर्थिक उद्देष्य समाजवाद भी होना चाहिए। कोई पांच दशक बाद हिन्दुस्तान के संविधान में एक संशोधन के द्वारा यही ‘समाजवाद‘ शब्द जोड़ा गया।
भगतसिंह के साथियों का पूरा जीवन धर्मनिरपेक्षता को परवान चढ़ाते बीता। उनका विष्वास था कि धर्म का राजनीति से कोई लेना देना नहीं होना चाहिए। भगतसिंह नास्तिक थे। उन्हें ईश्वर या धर्म की परंपराओं में विश्वास नहीं था। दलित वर्ग के लिए उनके संगठन के दरवाजे जातीय बराबरी के आधार पर खुले थे। उन्हें छुआछूत से बेसाख्ता नफरत थी। किस्सा तो यह भी मुख्तसर है कि मुसलमानों के अलग अलग रूढ़ विश्वासों के कायम रहते झटका और हलाल किस्म के मांस को एक साथ परोसकर खिलाए जाने के रोमांच के प्रयत्न भी इन क्रांतिकारियों के बीच होते रहते थे। भगतसिंह का जीवन प्रकाश की तरह उजला और सूरज के ताप की तरह उष्ण था। अध्ययन और अध्यवसाय के बिना क्रांति की कोई भी कल्पना उन्होंने नहीं की। विपरीत राजनीतिक दृष्टिकोणो के बावजूद महात्मा गांधी को लेकर उनके मन में बेहद सम्मान था। किसान मजदूर और विद्यार्थी उनके लिए क्रांति के आधार थे। भगतसिंह चाहते तो आयरलैण्ड, फ्रांस और रूस की क्रांतियों के जननायकों की अनुकृति में वैसा ही रास्ता संस्तुत कर सकते थे। शुरुआती दौर में वे आयरलैण्ड के विद्रोहियों से प्रेरणा ग्रहण करते रहे। भगतसिंह के प्रमुख राजनीतिक उद्देष्य मसलन धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और अस्पृष्यता-उन्मूलन वगैरह भारतीय संविधान में बाद में शामिल तो कर लिए गए हैं, लेकिन अमल में उनकी लचर स्थिति है। इसलिए भगतसिंह समर्पित नौजवानों की एक बड़ी टीम बनाए जाने के पक्षधर थे जो इन राजनीतिक आदर्शो के सपने को यथार्थ में तब्दील कर सके। भगतसिंह के बहुत से साथी तार्किक दृष्टि से सम्पन्न और समान घनत्व के थे। विचार और कर्म के समन्वय को ध्रुव तारे की तरह आकाश में टांक देने की भगतसिंह की बौद्धिक कुशलता उन्हें इतिहास में ईष्र्या योग्य बनाती है।
यह दुर्भाग्य है अपनी सुविधा के अनुसार एक हिंसक, क्रांतिकारी, कम्युनिस्ट या कांग्रेस के अहिंसा के सिद्धांत का विरोधी बताकर इस अशेष जननायक का मूल्यांकन करने की कोशिश की जाती है। उनका उत्सर्ग कच्चे माल की तरह रूमानी क्रांतिकारी फिल्मों का अधकचरा उत्पाद बनाकर उस नवयुवक पीढ़ी को बेचा जा रहा है जिसके सामने अपने देश में बेकारी का सवाल मुंह बाए खड़ा है। भगतसिंह का असली संदेश किताबों को पढ़ने की ललक और उससे उत्पन्न अपने से बेहतर बुद्धिजीवियों से सिद्धांतों की बहस में जूझने के बाद उन सबके लिए एक रास्ता तलाश करने का है जिन करोड़ों भारतीयों के लिए बहुत कम प्रतिनिधि-शक्तियां इतिहास में दिखाई देती है। कौम के मसीहा वे ही बनते हैं जो देश की लड़ाई या प्रगति को मुकाम तक पहुंचाते हैं और खुद अपने वैचारिक मुकाम तक पहुंचने का वक्त जिन्हें मिल जाता हैै। उनके चेहरे की जुदा जुदा सलवटें अलग अलग तरह के लोगों के काम आती हैं। वे उसे ही भगतसिंह के असली चेहरे का कंटूर घोषित करने लगते हैं। भगतसिंह की भाषा पढ़ने पर कुछ भी पुराना या बासी नहीं लगता। वे भविष्यमूलक इबारत गढ़ रहे थे। उन्होंने जो कुछ पढ़ा, अधिकांश अंग्रेजी और पंजाबी में, लेकिन जो कुछ लिखा और बोला उसका अधिकांश हिन्दी में। यह भगतसिंह की नए भारत के बारे में सोच है। इसकी डींग उन्होंने नहीं मारी।
कनक तिवारी