बस्तर में गोंडी गाने का नक्सली कनेक्शन बताकर किया दुकानदार को गिरफ्तार
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा के बचेली पंचायत में रहने वाले मोहम्मद फ़िरोज़ को छत्तीसगढ़ पुलिस ने यह कहते हुए गिरफ़्तार कर लिया कि वह स्थानीय लोगों के मोबाइल में ‘नक्सली गाने’ डाउनलोड करता है.
अफरोज आलम साहिल @ भूमकाल
यह आरोप इसलिए भी अजीबो-गरीब है क्योंकि इन विवादित गानों की भाषा ‘गोंडी’ है, लेकिन फ़िरोज़ व उसके परिवार वालों को गोंडी भाषा की कोई जानकारी नहीं है. फ़िरोज़ और उनका परिवार बिहार के औरंगाबाद जिले से ताल्लुक रखता है लेकिन रोज़ी-रोटी कमाने के ख़ातिर छत्तीसगढ़ में रह रहा है.
32 साल के मोहम्मद फ़िरोज़ के डेढ़ साल और चार साल के दो बच्चों के पिता हैं. फ़िरोज़ के पिता मोहम्मद अय्यूब का पांच साल पहले इंतकाल हो चुका है. अय्यूब बचेली की एक मस्जिद में इमाम थे. फ़िरोज़ भी यहां की स्थानीय मस्जिद कमिटी के सचिव हैं. उन्हें बीते 10 अगस्त को छत्तीसगढ़ पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था.
बचेली में दर्जी का काम करने वाले फ़िरोज़ के बड़े भाई मोहम्मद सफ़दर घटना के बारे में बताते हैं, ‘10 अगस्त यानी बुधवार के दिन सुबह 11.30 बजे मेरे छोटे भाई की दुकान पर पुलिस आयी. उस समय फ़िरोज़ दंतेवाड़ा किसी काम से गया था. दुकान पर मेरा भतीजा बैठा हुआ था. पुलिस ने अचानक लैपटॉप उठाकर भतीजे को भी साथ चलने को कहा. इससे वो काफी डर गया. उसने मुझे फोन किया तो मैं तुरंत फ़िरोज़ की दुकान पर पहुंचा. पुलिस मुझे अपने साथ थाने लेकर गई. वहां लैपटॉप खोलकर जांच की और एक गाना चलाकर बताया कि यह नक्सली गाना है. मुझे कुछ समझ में नहीं आया कि मैं क्या करूं क्योंकि वो गाना गोंडी में है और मेरे पूरे परिवार में किसी को भी गोंडी नहीं आती. फ़िरोज़ भी गोंडी नहीं जानता है.’
सफ़दर बताते हैं कि उसके बाद पुलिस ने उन्हें छोड़ दिया और कहा कि कल वे फ़िरोज़ को अपने साथ थाने लेकर आएं.
सफ़दर के मुताबिक़ अगले दिन सुबह वो खुद इलाक़े के कुछ व्यापारियों के साथ फ़िरोज़ को लेकर पुलिस थाना पहुंचे. वहां पुलिस ने फ़िरोज़ की एक बात सुने बग़ैर पकड़ कर लॉकअप में डाल दिया. उसके बाद उसके ख़िलाफ़ केस बनाकर उसे दंतेवाड़ा जेल भेज दिया गया. अभी फ़िरोज़ दंतेवाड़ा जेल में ही है.
सफ़दर बताते हैं कि इस घटना के बाद से उनका पूरा परिवार सदमे में हैं. उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा है कि वे क्या करें?
इस अधिनियम की जानकारी रखने वाले सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट अली मोहम्मद माज़ बताते हैं, ‘फ़िरोज़ पर लगी हुई धारा सख़्त है. इसके अंतर्गत किसी भी गैर-क़ानूनी गतिविधि का प्लान बनाना भी अपराध है. इसके साबित होने पर सात साल की सज़ा का प्रावधान है. हालांकि इस धारा को कोर्ट में साबित करना मुश्किल है, लेकिन पुलिस इस धारा का दुरूपयोग आसानी से कर सकती है. इसी साल मई महीने में जेएनयू के तीन प्रोफेसरों पर भी इसी अधिनियम के तहत बस्तर में आदिवासियों को नक्सलवादियों की सहायता के लिए भड़काने का आरोप लगाया गया है.’
‘ये नक्सली गाना क्या होता है?’ इसके बारे में स्थानीय लोगों का कहना है कि यह पुलिस ही बेहतर बता सकती है. वैसे बताया जा रहा है कि यह नक्सली गाना पुलिस वालों के ख़िलाफ़ है, इसमें पुलिस वालों को गाली दी गई है. एक स्थानीय पुलिसकर्मी अपना नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताता है कि फ़िरोज़ के लैपटॉप में पाया गया गाना लोगों को शासन के विरुद्ध भड़काने वाला था.
छत्तीसगढ़ में पुलिसिया आतंक की कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. नक्सलियों की कमर तोड़ने के नाम पर पुलिस किस तरह से बस्तर के आम जनता की कमर तोड़ने पर आमादा है, इसके सबूत पूरे बस्तर के चप्पे-चप्पे में बिखरे पड़े हैं.
आलम यह है कि यहां के कपड़ा व्यापारियों को 10 मीटर से अधिक लाल कपड़ा बेचने तक पर पाबंदी है, क्योंकि पुलिस का मानना है कि 10 मीटर से अधिक लाल कपड़ा बेचने का मतलब है – नक्सिलयों का मददगार होना. इसी तरह से बिजली के तार (वायर) बेचने की भी सीमा तय कर दी गई है. अगर किसी दुकानदार को 20 मीटर से अधिक वायर बेचते हुए पकड़ा गया तो उस पर बेहद ही ख़तरनाक क़ानूनों के दायरे में कार्रवाई की जाती है. इसी प्रकार कोई दर्जी काले कपड़े की कोई पोशाक नहीं सिल सकता. कोई जूता व्यापारी अधिक संख्या में स्पोर्ट्स शूज़ नहीं बेच सकता.
ग़लती से भी ऐसा कर जाने वाले न जाने कितने बेगुनाह और सीधे-साधे आदिवासी पुलिस के मकड़जाल में फंसकर अपनी ज़िन्दगी बरबाद कर चुके हैं. यह सिलसिला अब भी जारी है.
यहां के दुकानदारों की आंखों में पुलिस व नक्सलियों का ख़ौफ़ आसानी से देखा जा सकता है. खासतौर मुस्लिम दुकानदारों के आंखों में इससे भी कहीं अधिक यहां अल्पसंख्यक होने का डर है. यहां कई स्थानीय दुकानदार फ़िरोज़ को बेगुनाह मानते हैं और पुलिस से उसे छोड़ देने की अपील भी कर चुके हैं. लेकिन पुलिस ने इनकी मांग को खारिज कर दिया.
बचेली न्यू मार्केट में ही जूते की दुकान चलाने वाले फ़िरोज़ नवाब, जो यहां के वार्ड पार्षद भी हैं, का कहना है कि फ़िरोज़ ने जान-बूझकर कुछ भी नहीं किया. उसे तो गोंडी भी नहीं आती.
वो बताते हैं, ‘हम लोग तो बारूद के ढ़ेर पर बैठे हैं. अब आप ही बताइए कि कोई आदमी आम वेशभूषा में हमारी दुकानों पर सामान खरीदने आता है तो हम कैसे पहचानेंगे कि वो नक्सली है. और अगर उसने हमसे लाल कपड़ा या 20 मीटर से अधिक बिजली के तार या अधिक संख्या में जूते की मांग कर भी लिया तो हम कैसे उसे मना कर सकते हैं. उसके सामने हम पुलिस को भी इंफॉर्म नहीं कर सकते और न ही फ़ौरन पुलिस आ सकती है. ऐसे में हम क्या करें?’
वो आगे बताते हैं, ‘हमने फैसला किया है कि यहां के सारे दुकानदार जल्द ही इस मसले को लेकर एक मीटिंग करने वाले हैं, इसमें पुलिस अधिकारियों को भी बुलाएंगें.’
बताते चलें कि छत्तीसगढ़ का राज्य प्रशासन लगातार इस बात का दावा करता है कि वह आदिवासियों व गांवों में बसने वाले आम लोगों को मुख्य-धारा में लाना चाहता है. केन्द्र सरकार ने भी इस बात का ज़ोर-शोर से ऐलान कर रखा है. लेकिन बस्तर की ज़मीन पर क़दम रखते ही इन तमाम दावों की हक़ीक़त सामने आ जाती है.
स्टेट मशीनरी यहां नक्सलियों से लोहा लेने के नाम पर चुन-चुनकर यहां के जंगलों में रहने वाली आम आदिवासी जनता का शिकार कर रही है. यहां आतंक का पूरा साम्राज्य खड़ा कर दिया गया है. पुलिस को खुली छूट है कि वह जब जिसे चाहे नक्सली का मददगार बता गिरफ़्तार कर ज़िन्दगी तबाह कर सकती है. ऐसी तबाह हो चुकी जिंदगियां बस्तर की जंगलों और गांवों में हर तरफ़ दिखती हैं.