यह कानून लागू हुआ तो 20 करोड़ से भी अधिक वनवासियों के अधिकार हो जाएंगे दफन
नया कानून बनने के बाद वनवासियों व राजस्व भूमि के मालिक किसानों की भूमि भी सरकार द्वारा वन क्षेत्र के विस्तार के लिए जनहित के नाम पर अधिग्रहित की जा सकेगी। यह कानून एक ऐसे पुलिसिया राज की तरफ कदम है, जिसमें देश के 20 करोड़ से भी अधिक वनवासियों के अधिकार दफन होकर रह जाएंगे….
वन अपराधों को रोकने के नाम पर पुलिस व वन विभाग के अधिकारियों को दिये जा रहे असीमित अधिकार, वन अपराध रोकने के लिए उन्हें किसी भी व्यक्ति को गोली मारने का होगा अधिकार और जान लेने वाले अपराधी अधिकारी के खिलाफ सरकार की अनुमति के बगैर नहीं दर्ज कराया जा सकेगा मुकदमा…
मुनीष कुमार, स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता
देश की मोदी सरकार वनों को लेकर आर्म्स फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट (अफस्पा) जैसा एक काला कानून लाने जा रही है। यह कानून न केवल वन, पुलिस व राजस्व विभाग के अधिकारियों को जनता के दमन-उत्पीड़न का एक नया औजार देता है, बल्कि इससे वनों एवं वन भूमि पर रह रहे करोड़ों लोगों की बेदखली का नया रास्ता भी खुल जाएगा।
भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने देश की सभी राज्य सरकारों को भारतीय वन अधिनियम 1927 के स्थान पर वन अधिनियम 2019 बनाए जाने के सम्बंध में प्रस्ताव भेजा है। विगत 7 मार्च को देश के सभी राज्यों को भेजे गये नये वन कानून के प्रारूप पर 7 जून, 2019 तक सभी राज्य सरकारों को अपनी राय केन्द्र को देनी है।
127 पृष्ठों वाले इस प्रस्तावित कानून में पूर्व के वन अधिनियम 1927 की प्रस्तावना ही बदल दी गयी है। प्रस्तावित कानून, दुनिया में हो रहे पर्यावरणीय बदलाव व अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के नाम पर लाया जा रहा है।
इस कानून के आने के बाद सरकार को यह अधिकार होगा कि वह नये वन क्षेत्र बढ़ाने के नाम पर भू अधिग्रहण अधिनियम 1894 के तहत देश में कोई भी भूमि अधिग्रहित कर सकेगी। वनाधिकार के कानून के तहत भूमि पर मालिकाना हक प्राप्त कर चुके वनवासियों व राजस्व भूमि के मालिक किसानों की भूमि भी सरकार द्वारा वन क्षेत्र के विस्तार के लिए जनहित के नाम पर अधिग्रहित की जा सकेगी।
यह कानून एक ऐसे पुलिसिया राज की तरफ कदम है जिसमें देश के 20 करोड़ से भी अधिक वनवासियों के अधिकार दफन होकर रह जाएंगे। वन अपराधों को रोकने के नाम पर पुलिस व वन विभाग के अधिकारियों को असीमित अधिकार दिये जा रहे हैं। वन अपराध रोकने के लिए उन्हें किसी भी व्यक्ति को गोली मारने का अधिकार होगा। किसी को जान से मार देने का अपराधी अधिकारी के खिलाफ सरकार की अनुमति के बगैर मुकदमा नहीं दर्ज कराया जा सकेगा।
इस तरह का दमनकारी कानूनी अधिकार सरकार ने अफस्पा के तहत कश्मीर व मणिपुर जैसे राज्यों में सुरक्षा बलों को दिये हुए हैं।
पुलिस व वन विभाग के अधिकारी वन अपराध करने के नाम पर किसी को भी बगैर वारन्ट के गिरफ्तार कर सकेंगे तथा वन दरोगा व उससे ऊपरी रैंक के अधिकारी को अपने कार्य क्षेत्र में किसी भी जगह की तलाशी लेने का अधिकार होगा। वन क्षेत्र में फसलों को नष्ट करने, निर्माण को ध्वस्त कर देने व वाहनों को सीज कर देने जैसे अधिकार वन व पुलिस अधिकारियों को देने का प्रस्ताव इस कानून में है।
वन अपराधों को रोकने के लिए बुनियादी ढांचा मजबूत किए जाने के तहत बंदी गृह (कअप), वाहन हथियार बेटन आदि जुटाए जाएंगे तथा वन अपराध से सम्बंधित मामलों की सुनवाई के लिए जिला न्यायालय के अंतर्गत कोर्ट रेंजर नियुक्त किए जाने की बात कही गयी है।
बगैर अनुमति के पशु चराने पर पशु को जब्त कर लिया जाएगा। मामूली सी राशि का भुगतान करके सरकार वन संरक्षण के नाम पर जनता के वनों में जाने पर रोक लगाकर, उसे उसके परम्परागत हक-हकूक से वंचित कर सकती है।
मामूली वन अपराधों में सजा को बढ़ाकर 6 माह से लेकर 5 वर्ष तक कर दिया गया है तथा जुर्माने की राशि एक लाख रुपए तक बढ़ा दी गयी है। लकड़ी काटने पर 3 वर्ष की सजा व 5 से 25 हजार जुर्माने की बात प्रस्तावित कानून में दर्ज की गयी है।
संरक्षित वन में बिना अनुमति के पशु चराना, वहां से वन उत्पाद लाना, पेड़ काटना व उन्हें नुकसान पहुंचाना, खेती करना, किसी भी प्रकार का कच्चा-पक्का निर्माण करना बाउन्ड्री आदि को नुकसान पहुंचाना, कूड़ा फेंकना, मछली लाना व वाहनों को लापरवाही के साथ चलाना गैर जमानती श्रेणी के अपराध घोषित कर दिये गये हैं।
वन अपराधों में दर्ज मुकदमे सरकार जनहित के नाम वापस नहीं ले पाएगी, उसका उल्लेख भी प्रस्तावित कानून में किया गया है। वन अपराध में सजा काट रहे व्यक्ति को अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, 1958 के अंतर्गत सजा पूरी किए बगैर रिहा नहीं किया जा सकेगा।
वन विभाग के अधिकारी के समक्ष दिया गया बयान व अपराध की स्वीकारोक्ति न्यायालय में स्वीकार्य मानी जाएगी। वनाधिकारियों को और अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए उनकी न्यायिक ताकत में भी बढौत्तरी की गयी है।
नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त का उल्लंघन करते हुए मुकदमा दर्ज करने, जांच करने, गिरफ्तार करने व जुर्माना लगाने का अधिकार भी वनअधिकारियों को दिये जाने का प्रावधान प्रस्तावित कानून में है।
किसी व्यक्ति के पास वन उत्पाद पाए जाने व वन भूमि पर बसे होने के कारण मुकदमा कायम किया गया है, तो वह व्यक्ति के जिसके खिलाफ मुकदमा कायम किया गया है, यह उस व्यक्ति की जिम्मेदारी होगी कि वह पाए गये वन उत्पाद व वन भूमि पर अपना मालिकाना हक साबित कर बताए कि इस अधिनियम के तहत उसने अपराध नहीं किया है।
पिछले वर्ष 2018 सरकार द्वारा वनाधिकार कानून 2006 के अंतर्गत वन भूमि पर मालिकाने हेतु प्राप्त 42 लाख दावों में से लगभग 20 लाख दावे सरकार खरिज कर चुकी है। इस कानून के पारित हो जाने के बाद न केवल इन 20 लाख दावेदारों पर बेदखली की तलवार लटक जाएगी, बल्कि जिन लोगों के दावे स्वीकृत कर लिए गये हैं उन्हें भी मुआवजा देकर वनों व उनके पैतृक निवास से बेदखल करने का अधिकार सरकार व अधिकारियों के पास आ जाएगा।
वनों से आने वाले उत्पादों तथा सिंचाई व उद्योंगो के लिए पानी के इस्तेमाल आदि पर सरकार 10 प्रतिशत की दर से वन विकास कर वसूलने का प्रावधान भी प्रस्तावित कानून में किया गया है। वसूली गयी उक्त राशि का विशेष तौर पर वनों को सुदृढ़ करने व नये वनों को लगाने में ही इस्तेमाल किया जा सकेगा अन्य विकास कार्यों में नहीं।
प्रस्तावित वन कानून 2019 वनों के निजीकरण की ओर भी कदम है, जहां इसके द्वारा वनों के परम्परागत निवासियों को वनों से बाहर निकालने की तैयारी की जा रही है वहीं दूसरी तरफ सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि वह वन उपज के उत्पादन को बढ़ाने के नाम पर संरक्षित, आरक्षित व अवर्गीकृत वन को निजी क्षेत्र को दिये जाने हेतु अधिसूचना जारी कर सकती है।
आजादी से पहले अंग्रेजों ने वनों के संरक्षण के नाम पर जनता को जंगलों से अपनी जरूरत की वस्तुएं लाने से प्रतिबंधित कर दिया था, परन्तु 1863 से 1878 के मध्य अंगेजों ने टिहरी रियासत के यमुना वन क्षेत्र से 13 लाख साल, देवदार व टीक के वृक्ष काटकर रेलवे स्लीपरों के निर्माण के लिए यूरोप भेजे थे। नया वन कानून भी इसी तर्ज पर काम करेगा। आम वनों पर निर्भर आम देशवासी वनों से बेदखल किए जाएंगे और देशी-विदेशी पूंजीपति जमकर वनों का दोहन करेंगे।
प्रचंड बहुमत से पुनः सत्ता में आयी मोदी सरकार के लिए इस कानून को संसद में पारित कराना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं होगा। बीते अप्रैल-मई माह में लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान किसी भी दल ने जंगल के इस काले कानून को अपना चुनावी एजेन्डा नहीं बनाया है, जबकि 20 करोड़ से भी अधिक लोग सीधे-सीधे इस काले कानून से प्रभावित हो रहे थे। इससे पुनः स्पष्ट है कि नीतियों के मामले में भाजपा-कांग्रेस क्या अन्य विपक्षी दल एक हैं। अतः इस दमनकारी कानून से देश को बचाने की पहल जनता व जन संगठनों को करनी पड़ेगी।
(मुनीष कुमार समाजवादी लोक मंच के सहसंयोजक हैं।)
साभारः जनज्वार. कॉम