नहीं होने देंगे लोकतंत्र को जिंदा जमींदोज!
अगर यही सब करना था तो फिर चुनाव कराने की जरूरत क्या थी? सीधे खुद को पीएम घोषित करवा लेते। ईवीएम को लेकर जो रिपोर्ट आ रही हैं वो 70 साला इस लोकतंत्र के लिए बेहद शर्मिंदा करने वाली हैं। कहीं यहां ईवीएम मिल रही है। तो कहीं वहां ईवीएम से भरी गाड़ी घूम रही है। कहीं अधिकारी साथ हैं। तो कहीं पुलिस वाले मदद कर रहे हैं। बिहार के सारण से लेकर हरियाणा के पानीपत और यूपी के चंदौली से लेकर गाजीपुर तक यही कहानी है। पूरे उत्तर भारत में राह चलते ईवीएम मशीनें पकड़ी जा रही हैं।
नजारा कुछ 80 के दशक में होने वाले उन चुनावों का है जब मतदान के दौरान बूथों पर कब्जे होते थे और मतपेटियों के लूट की घटनाएं होती थीं। मतपेटियों को मतगणना स्थलों तक पहुंचाने के क्रम में कभी उनके किसी नदी तो किसी नाले या फिर सड़क पर आए जाने की खबरें आती थीं। लेकिन टीएन शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त बनने के बाद आयोग के मुंह में आए दांत और जनता की जागरूकता ने इन सारी चीजों को इतिहास का विषय बना दिया था। लेकिन अब वही सारी चीजें एक बार फिर तब सामने आ रही हैं जब देश का लोकतंत्र बेहद परिपक्व हो चुका है।
एग्जिट पोल सामने आने के बाद मैंने अपने पहले ही लेख में इस बात की आशंका जतायी थी कि इसके जरिये जनमानस को तैयार किया जा रहा है और फिर ईवीएम या मतगणना में हेरा-फेरी के जरिये उन नतीजों को हासिल करने की कोशिश की जाएगी। और इस काम को इन्हीं तीन दिनों के भीतर अंजाम दिया जाएगा। 19 मई को जतायी गयी ये आशंका उसके अगले ही दिन सही साबित होनी शुरू हो गयी। जब जगह-जगह से स्ट्रांग रूम में ईवीएम मशीनों के बदलने की कोशिशों की खबरें आने शुरू हुईं। कई जगहों पर विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं ने इसको पकड़ा। लेकिन इस प्रक्रिया में बहुत सारे ऐसे भी स्थान हो सकते हैं जहां शायद किसी दल या फिर उसके नेता की निगाह ही नहीं गयी हो।
लेकिन अब यह बात साफ हो चुकी है कि मोदी चुनाव आयोग से मिलकर किसी भी तरीके से सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं। और इसके लिए उन्हें जिस भी स्तर पर नंगा होना पड़े उसके लिए तैयार हैं। यह चुनाव भारतीय लोकतंत्र के लिए काला अध्याय साबित होने जा रहा है। चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पहले ही समाप्त हो चुकी है। एक दूसरे चुनाव आयुक्त अशोक लवासा के हवाले से सामने आयी चुनाव आयोग के भीतर की गतिविधियों ने तस्वीर को पहले ही साफ कर दिया था। लिहाजा आयोग निर्लज्जता की हद तक जाकर मोदी की मदद करने के लिए अब तैयार है।
यह बात उसी समय समझ में आ गयी थी जब मोदी के खिलाफ चुनाव आचार संहिता के लगे 6-6 पुख्ता आरोपों में उसने किसी एक में भी कार्रवाई करने की जहमत नहीं उठायी। और सभी में मोदी को क्लीन चिट दे दी। जबकि फुल कमीशन की बैठक में अशोक लवासा ने उस पर अपना एतराज जताया था। यहां तक कि उनके डिसेंट नोट को भी मिनट्स में दर्ज नहीं किया गया। लिहाजा इस बात में कोई शक नहीं है कि पूरा आयोग अब मोदी के इशारे पर नाच रहा है। वैसे भी ऐसे मुख्य चुनाव आयुक्त से आशा भी क्या की जा सकती है जो एक दौर में नीरा राडिया जैसी दलाल के लिए काम कर चुका हो। लिहाजा साख के पैमाने पर वह पहले ही पाताल क्षेत्र के वासी रहे हैं। उनसे किसी न्याय की उम्मीद करना भी अब बेमानी है।
लेकिन मसला किसी आयुक्त या फिर किसी व्यक्ति का नहीं है बल्कि इस देश के लोकतंत्र का है जो इसी संस्था द्वारा संचालित है। लिहाजा ऐसी स्थिति में दूसरा क्या कुछ विकल्प हो सकता है जरूरत उस पर विचार करने की है। इसमें सबसे पहले तो इस आयुक्त के खिलाफ महाभियोग लाकर उसे बर्खास्त करने की मांग उठनी चाहिए। दूसरे कदम के तौर पर तत्काल सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जाना चाहिए जिसमें इस बात को उसके सामने रखे जाने की जरूरत है कि मौजूदा आयोग के नेतृत्व में मतगणना का ईमानदारी पूर्वक और निष्पक्ष तरीके से संचालित हो पाना बिल्कुल नामुमकिन है। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट को इसमें हस्तक्षेप कर तत्काल कोई वैकल्पिक व्यवस्था करनी चाहिए। या फिर अपनी तरफ से कोई निगरानी पैनल बनाकर पूरे मामले को अपने हाथ में लेना चाहिए।
इसके साथ ही देश के सभी विपक्षी दलों को तत्काल एकजुट होकर लोकतंत्र को जमींदोज करने की इस कोशिश के खिलाफ उठ खड़ा होना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले देश के सभी स्ट्रांग रूमों के सामने अपने ज्यादा से ज्यादा कार्यकर्ताओं को तैनात कर देना चाहिए। साथ ही इस मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से लेकर राष्ट्रपति तक गुहार लगाकर तत्काल उसे बदलने या फिर कोई वैकल्पिक व्यवस्था करने की मांग करनी चाहिए। यह लोकतंत्र को बचाने का समय है। क्योंकि सत्ता के शीर्ष पर बैठीं अपराधी ताकतें उसे हड़पने की कोशिश में जुट गयी हैं।
जनता के जनादेश को इस तरह से अपहृत कर अगर कोई सरकार में आने की कोशिश कर रहा है तो वह लोकतंत्र को जिंदा दफन कर देने से कम नहीं है। लेकिन जिस लोकतंत्र और आजादी के लिए हमारे पुरखों ने कुर्बानियां दी हैं उसे पूरी तरह से महफूज रखने और आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी हमारे कंधों पर है। लिहाजा इस देश के हर लोकतंत्र पसंद नागरिक का कर्तव्य बन जाता है कि संकट की इस घड़ी में वह उठ खड़ा हो। और उसे एक बात और समझनी चाहिए कि अगर ऐसा करने में वह नाकामयाब होता है और दिनदहाड़े लोकतंत्र के इस तरह से अपहरण की छूट देता है तो आने वाली पीढ़ियां उसे कभी माफ नहीं कर पाएंगी।
सचाई ये है कि जनता ने अपना जनादेश दे दिया है लेकिन इन फासिस्ट ताकतों को इस बात का एहसास हो गया है कि उनकी सरकार नहीं बनने जा रही है। लिहाजा अब वह अपने नंगे फासिस्ट रूप में सामने आकर येन-केन प्रकारेण उसे हड़पने की कोशिश में जुट गयी हैं। लेकिन उन्हें पता होना चाहिए कि देश का लोकतंत्र और उसका नागरिक इतना कमजोर नहीं है। इस कोशिश में भी उन्हें मुंह की खानी पड़ेगी।