मोदी जी, लेकिन आदिवासियों की मौत पर आपकी चुप्पी बता रही है कि आपके लिए राष्ट्र का मतलब जमीन का टुकड़ा है, जिसे आप आदिवासियों से छीनकर पूंजीपतियों के हवाले करना चाहते हैं।
नुलकातोंग जनसंहार और सरकार की जिम्मेवारी
– सुनील कुमार
भारत के ‘प्रधान सेवक’ ने 72 वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से देश को सम्बोधित करते हुए शुरूआत में ही आदिवासियों-नौजवानों को याद किया और कहा कि ‘‘दूर-सुदूर जंगल में जीने वाले नन्हे-मुन्ने बच्चों ने एवरेस्ट पर झंडा फहरा कर तिरंगे की शान बढ़ा दी है’’।
मैं ‘प्रधान सेवक’ से जानना चाहता हूं कि सुकमा जिले के ग्राम पंचायत मेहता के गोमपाड़ गांव के सोयम सीता, सोयम चन्द्रा (गोमपाड़ का वार्ड पंच), कड़ती आड़मा, माड़वी नन्दा, कड़ती आयता (एक साल पहले तीसरी कक्षा का विद्यार्थी), माड़वी देवाल, नुलकातोंग गांव के सोड़ी प्रभु, मड़काम टिकू, ताती हुंगा, मुचाकी हिड़मा, मुचाकी देवाल, मुचाकी के मुक्का, वेलपोस्सा गांव के वंजाम हुंगा, किल्द्रेम गांव के मडावी हुंगा, एटेगट्टा गांव के माड़वी बामून की गिनती भी इन आदिवासी नौजवानों में करते हैं या नहीं ?
6 अगस्त, 2018 के उगते हुए सूरज को देखने से पहले ही भारत सरकार के ‘बहादुर सिपाहियों’ ने इन नौजवानों को मार दिया। इनमें से कम से कम पांच-छह को गांव वाले नाबालिग बता रहे हैं, जिनमें से कई अपने परिवार के इकलौते सहारा थे।
‘प्रधान सेवक’ जी तिरंगे की शान की बात कर रहे थे। उनको गोमपाड़ की लक्ष्मी, जो कि दो साल से के दिए हुए तिरंगे को सम्भाल कर रखी थी, से पूछना चाहिए कि उनकी बेटी मड़कम हिड़मे को कब न्याय मिलेगा।
मड़कम हिड़मे को 14 जून, 2016 को पुलिस वालों ने सामूहिक बलात्कार करने के बाद फर्जी मुठभेड़ में मार दिया था। हाईकोर्ट के आदेश पर हिड़मे का दोबारा पोस्टमार्टम जगदलपुर में कराया गया, लेकिन आज तक दोषियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई।
आदिवासियों को न्याय और उनके अधिकार दिलाने के लिए सोनी सोरी ने 8 अगस्त, 2016 को दंतेवाड़ा से तिरंगा पदयात्रा शुरू कर 180 कि.मी. दूर गोमपाड़ गांव में 15 अगस्त, 2016 को झंडा फहराया था। सोनी सोरी के तिरंगा यात्रा का 24 संगठनों ने समर्थन किया था, जबकि सरकार द्वारा पोषित अग्नि संगठन ने विरोध किया था। अग्नि संगठन सलवा जुडूम और सामाजिक एकता मंच का ही छद्म संगठन है, जिसकी बैठकों में प्रशासनिक और डीआईजी रैंक के अधिकारी भी सम्मिलित हुआ करते हैं।
न्याय की आशा
लक्ष्मी ने कहा कि उनकी बेटी को अभी तक इंसाफ नहीं मिला बल्कि उनके ही गांव के 6 लोगों की पुलिस ने हत्या कर दी। लक्ष्मी का कहना है कि जिस दिन उसे इंसाफ मिलेगा वह अपने हाथों से तिरंगा फहरायेगी। लेकिन इस व्यवस्था से इंसाफ मिलने की उनकी उम्मीद धूमिल होती जा रही है।
मोदी जी, आप चाहे लाल किले से तिरंगे को लेकर जो भी राय गढ़ लें, लेकिन सुदूर क्षेत्र में रहने वाली जनता तिरंगे को किस तरह से देखती है उसका जीता-जागता सबूत दो साल बाद तिरंगा की वापसी है।
गोमपाड़ा गांव के नौजवान का कहना है-
‘‘इंसाफ के नाम पर गांव वालों को ही परेशानी उठानी पड़ती है। हिड़मे का मारा जाना और दोबारा पोस्टमार्टम के लिए कब्र से निकाला जाना- इन सबसे हम गांव वाले ही परेशान हुए और हमें न्याय भी नहीं मिला। हम खेत में जाते हैं तो पुलिस आती है। उसे सीधा अपने रास्ते जाना चाहिए तो वह हमारे पास आकर मार-पीट करती है। वे हमें पढ़ने नहीं देते। बाजार जाने पर पकड़ लेते हैं। गांव में आकर हमारे अनाज, मुर्गा-मुर्गी खा जाते हैं। पुलिस वालों की माओवादियों से दुश्मनी है तो उनसे लड़े, हम गांव वालों को क्यों मारते हैं? हम आदिवासियों के पास ये हथियार कहां से आए, जिसको पुलिस दिखाती है। नुलकातोंग में हमारे गांव के छह लोगों को मार दिया।’’
गोमपाड़ गांव में यह कोई पहली घटना नहीं है, इससे पहले भी यह गांव समाचार की सुर्खियों में रह चुका है। यह गांव सलवा जुडूम के समय भी जलाया जा चुका है। उस समय करीब पांच साल के लड़के के हाथों की उंगली काट दी गई थी और उसकी मां की बलात्कार कर हत्या की गई थी।
इसी गांव की सोदी सोढ़ी के पैर में गोली मारी गई थी, जिसका मामला सुप्रीम कोर्ट तक चला। उसे भी सही न्याय नहीं मिल सका और वह गांव छोड़ कर चली गई।
हिड़मे का मामला अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक उठा लेकिन उस मामले में भी कुछ नहीं हुआ।
इसी गांव के रामे मछली पकड़ने गया था, उसको गोली मार दी गई और घायल अवस्था में उसे पकड़कर जेल में डाल दिया गया। इस गांव की मरू लुकमा (20) की मां ने बताई कि मई, 2018 में मरू लुकमा आंध्र प्रदेश के एरगमपेट्ट बाजार जा रहे थे तो पुलिस ने पकड़ लिया और वह दंतेवाड़ा जेल में बंद है।
मई से अभी तक वह अपने बेटे से मिलने और कागजी कार्रवाई में 6,000 रू. खर्च कर चुकी है। मरू लुकमा के पिता की मृत्यु 2007 में डायरिया के कारण हो गई थी और अपनी बुजुर्ग मां का सहारा लुकमा ही था, जो कि जेल में बंद है।
मरकान योगी बताती हैं कि उनके पति मरकम कोसा (40) को दिसम्बर 2017 में पुलिस उनको घर से पकड़ कर ले गई, उस समय से वह दंतेवाड़ा जेल में बंद हैं। वह तीन बार पति से मिलने दंतेवाड़ा जेल जा चुकी है और अभी तक अपने पति से मिलने और कानूनी मद्द के लिए 10,000 रू. खर्च कर चुकी है। इन लोगों को दंतेवाड़ा तक की यात्रा करना भी इतना आसान नहीं है। पहले उनको 20 कि.मी. पैदल चलकर कोंटा जाना पड़ता है, उसके बाद सुकमा और दंतेवाड़ा बस से जाते हैं, जिसके लिए कम से कम दो दिन का समय और पैसे चाहिए।
6 अगस्त की सुबह मारे जाने वालों में कड़ती आयता भी है, जो एक साल पहले कोंटा पोटा केबिन में तीसरी कक्षा का विद्यार्थी था। जब गांव में पुलिस आई तो वह भी डर कर नुलकातोंग भाग गया। कड़ती आयता के एक कॉपी उसके घर में है। शहरी बच्चों की तरह उसके लिए अलग-अलग कॉपी नहीं है। एक ही कॉपी पर घड़ी का चित्र, कुछ सवाल और कुछ कविताएं लिखी हुई हैं-
‘‘खट्टी इमली माटी ईख
चरती बकरी वन के बीच।
चलो पपीता खाएं हम,
तबला खूब बजाएं हम।
सूरज उगा हुई अब भोर,
हुआ उजला चारों ओर।
चिड़ियां लगीं चहकने खूब,
बच्चे भी करते हैं शोर।
रंग-बिरंगी प्यारी तितली,
सबके मन को भाती हैं।
बैठ फूल पर जब रस लेती,
सबका मन-ललचाती है।’’
कड़ती आयता की कविताओं से लगता है कि उसको प्रकृति से बहुत प्यार था। उसे लाल रंग से भी बहुत प्यार रहा होगा, क्योंकि उसकी कविताएं, सवाल सभी लाल पेन से लिखे हुए हैं। कड़ती आयता इस दमनकारी व्यवस्था के दमन का शिकार हो गया और सूरज देखने से पहले चिड़ियों की चहचाहट में आयात की आवाज को पुलिस ने शान्त कर दिया।
माड़वी नन्दा के घर में उनकी पत्नी माड़वी हुंगी (24) और दो बच्चे नन्दा (5) और मसे (8) हैं। नन्दा के घर पर उसकी मां और पिता आए हुए हैं। नन्दा की मां और पत्नी तेज आवाज में रो रही हैं। नन्दा के एक रूम में तेन्दुपत्ता के सिवाय और कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। नन्दा की पत्नी हुंगी ने बताई कि उनके पास तीन एकड़ खेत है और वह सुबह खेत को गया था। वापसी में नन्दा का मृत शरीर घर में आया। हुंगी ने बताई कि पुलिस वाले उनके घर में रखा महुआ का शराब भी पी गये। नन्दा का घर सलवा जुडूम में जला दिया गया तो वह अपने पिता के पास दोरनापाल गये। लेकिन उनके पैतृक जगह पर सलवा जुडूम वाले कैम्प बना रखे थे तो वह वापस गोमपाड़ आकर अपने घर को ठीक-ठाक करके रहने लगा। नन्दा की पत्नी को चिंता सता रही है कि अब घर की खेती कौन करेगा, बच्चे भी छोटे हैं। नन्दा का राशन कार्ड दुकानदार ही अपने पास रखता है, जिस पर नन्दा का भी नाम है।
सोयम चन्द्रा, जिसके आधार कार्ड पर 13 मई, 1997 का जन्मदिन दर्ज है, की एक एक साल की बेटी है। सोयम चन्द्रा अपने गांव के वार्ड पंच थे। पुलिस ने जब फायरिंग करना शुरू किया तो सोयम ने हाथ खड़ा करके बताने की कोशिश की कि वह गांव के वार्ड पंच हैं, ताकि ‘लोकतंत्र’ में आस्था रखने और संविधान की शपथ लेने वाले पुलिस वाले गोली नहीं चलायेंगे। लेकिन हत्यारी पुलिस ने सबसे पहले सोयम को गोली मारने के बाद कुल्हाड़ी से भी काट डाला। गांव वालों ने बताया कि मारे गये लोगों के कपड़े उतार कर फोर्स द्वारा अपनी फौजी टी-शर्ट को लोगों को पहना दिया गया।
नुलकातोंग गांव वालों का कहना है कि अलग-अलग गांवों में फोर्स आने के कारण लोग डर से नुलकातोंग गांव (जो आंध्र प्रदेश की सीमा से 9 कि.मी. दूर है) की तरफ आ गए थे। 6 अगस्त की सुबह-सुबह पुलिस ने आकर इन लोगों पर गोली चलाई, जिसमें नुलकातोंग गांव के छह लोग भी मारे गए (जिनमें से चार 13-17 साल उम्र के थे)। हमलोगों से बात करने के लिए एक 8-9 साल का लड़का एक नेत्रहीन व्यक्ति (मुच्चा का लुकमा) को डंडा पकड़ा कर ला रहा था। वह व्यक्ति आते ही कंधे पर सिर रख कर जोर-जोर से रोने लगे। रोते-रोते उन्होंने बताया कि उनके बेटे मुच्चा के हिड़मे (14-15 साल) को पुलिस ने 6 अगस्त, 2018 को मार दिया, जो कि घर-परिवार को देखने वाला अकेला था। उनका एक लड़का लगभग 9 साल का बच्चा है।
मुच्चा का मुक्का का उम्र 16 साल के करीब था, जिसको पुलिस ने मार दिया। मुच्चा के मुक्का का छोटा भाई छठवीं कक्षा में पढ़ता था। मुक्का अपने बुर्जुग मां-पिता के साथ खेती में हाथ बंटाने के लिए पढ़ने नहीं गया। मारे गये मड़काम टिकू की मां भी नेत्रहीन हैं जो अपने बेटे को याद करते हुए रोने लगी।
2008-09 में सलवा जुडूम के समय मुचाकी बिमला को मार दिया था। अब उनके नाबालिग पुत्र मुचाकी मुक्का को मार दिया गया। मुचाकी मुक्का की मां का कहना है कि वह अपने पति के कातिलों को सजा दिलाने के लिए देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट तक गई लेकिन न्याय नहीं मिला। वहं एक बार फिर अपने बेटे को न्याय दिलाने के लिए लड़ने के लिए तैयार हैं।
गांव वालों का कहना है कि पुलिस दो-तीन दिन से अलग-अलग गांव में डेरा डाले हुई थी, जिसके डर से पांच-छह गांव के पुरूष 40-50 की संख्या में नुलकातोंग में आये थे। ये लोग डर से गांव में नहीं रूक कर गांव से बाहर सोरी अंदा के खेत की झोपड़ी में रूके हुए थे। पुलिस को नुलकातोंग में रूकने का पता चला गया और उसने सुबह-सुबह वहां पहुंच कर बिना चेतावनी के लोगों पर गोली चलानी शुरू कर दी, जिसमें 15 लोगों की जान चली गई और कुछ लोग घायल हो गये। पुलिस ने चार लोगों को पकड़ कर मुठभेड़ को असली दिखाने का प्रयास किया। उनमें से दो लोगों- अंदा और लकमा को छोड़ दिया, जो कि डर से अब अपना गांव छोड़ कर चले गए हैं। घायल दूधी और बुधरी को जेल में डाल दिया गया है। इसी गांव के लकमा को तीन-चार माह पहले डरमपली (आंध्रा) बाजार से पकड़ कर जेल में डाल दिया गया है।
गांव वालों ने बताया कि मृतक शरीर को पोस्टमार्टम के बाद कोंटा से मुकेश सर के ट्रैक्टर में लाकर बोंडा में छोड़ दिया गया और गांव वालों से कहा गया कि इससे आगे तुम लोग लेकर जाओ। गांव वालों ने 15 शवों को चरपाई से 9-10 कि.मी. पैदल चलकर अपने-अपने गांव ले गये। इससे दुनिया के सबसे बड़े ‘लोकतांत्रिक’ देश की सरकार की संवेदनहीनता का पता चलता है।
मोदी जी, आपने स्वतंत्रता दिवस के सम्बोधन में कहा कि ‘‘हमारा संविधान कहता है -गरीबों को न्याय मिले, जन-जन को आगे बढ़ने का अवसर मिले’’। क्या आप इन आदिवासियां/मूलवासियों को न्याय दिला पायेंगे? क्या नेत्रहीन पिता मुच्चा के लुकमा को न्याय मिल पायेगा? क्या अपने पति और बेटे को खो चुकी मुचाकी मुक्का के मां को न्याय दिला पायेंगे? क्या इन मूलवासी नौजवानों को आगे बढ़ने का अवसर मिल पायेगा?
सामाजिक स्थिति
गोमपाड़ गांव तहसील कोंटा से 20 कि.मी. दूर है, जहां पर पहुंचने के लिए जंगल, नदी, नाले को पार कर पैदल ही जाना पड़ता है। गोमपाड़ा में 35 गोंड आदिवासी के घर हैं, जिसकी जनसंख्या 220-230 के करीब है। गांव के लोग खेती करते हैं और जंगल उत्पाद से कुछ पैसे इकट्ठे करते हैं। इसके अलावा कोंटा या आंध्र जाकर मजदूरी करते हैं, जहां पर उन्हें 100 से 300 रू. लेकर मजदूरी करना पड़ता है। गांव के लोग बताते हैं कि वे कोंटा मजदूरी करने नहीं जाते क्योंकि वहां पर मजदूरी कम है। बाजार और सरकारी राशन की दुकान कोंटा में है, जिसके लिए उनको कोंटा जाना पड़ता है। लेकिन वहां पर उनके गिरफ्तार होने की संभावना रहती हैं जिसके कारण महिलाएं ही 20 कि.मी. दूर चलकर राशन के लिए ज्यादातर जाती हैं। पुरुष आंध्र में जाकर बाजार करना कोंटा से ज्यादा सुरक्षित मानते हैं। गांव में विकास के नाम पर सरकारी तीन हैण्डपम्प हैं जो कि करीब 10 साल पहले गांव में लगाये गये थे। गोमपाड़ा गांव के लोग स्कूल के लिए एक स्थान का चयन किये हैं जहां पर गुरूजी आने वाले हैं। गुरूजी के लिये लोगों ने बाजार से खाने-पीने का सामान भी खरीद कर लाये हैं लेकिन गुरूजी अभी तक आये नहीं। कभी कहते हैं कि जगदलपुर में हूं तो कभी सुकुमा होने की बात बताकर गांव आने के दिन को टाले जा रहे हैं। गांव के बाहर एक तालाब है जिसके एक तरफ मिट्टी डाल कर गांव वालों ने खुद एक रास्ता बनाया है। बारिश होने के कारण तालाब के किनारे डाली गई मिट्टी कीचड़ में बदल गई है, जिसके उपर से गांव में जाने पर पैर धंस जाता है।
नुलकातोंग गांव बंडा पंचायत में आता है जो कि गांव से 8-9 कि.मी. दूरी पर है। गांव में 47 घर हैं। पहले 50 घर हुआ करते थे, लेकिन कुछ लोग डर से अपना घर छोड़कर आंध्रा चले गये हैं। गांव में विकास के नाम पर 4 हैंडपम्प हैं जिनमें से तीन खराब हैं और एक से ही पूरा गांव पानी की आवश्यकता को पूरा करता है। इस गांव में 2002-03 में एक सरकारी स्कूल बना था, जिसे सरकार ने 2007-08 में तोड़ दिया। खेतों में नाले को पार करने के लिए गांव वालों ने खुद बांस के पुल का निर्माण किया है। गांव में आंगनबाड़ी सेविका हफ्ते में एक बार आती है या कभी-कभी आती है तो हफ्ते भर रूक जाती है। इस गांव के कुछ लड़के-लड़कियां कोंटा में पढ़ते हैं।
इन गांवों में स्वास्थ्य की कोई भी व्यवस्था नहीं है। उनको थोड़ी-बहुत दवा माओवादियों द्वारा मुहैय्या करायी जाती है। गांव में बुजुर्ग कम ही दिखते हैं, क्योंकि यहां पर जीने की औसत आयु कम है। डायरिया जैसे बीमारियों में लोगों की जान चली जाती है। इन गांव वालों से बात करने से पता चलता है कि ज्यादातर घरों में 5-7 साल में कोई न कोई बीमारी या पुलिस की गोली से मरा है। गांव के लोग बाहर काम करने जाते हैं तो वहां भी उनको उचित पैसा नहीं दिया जाता है। उनको बंधक बनाकर काम कराने की बातें भी समाने आई हैं। दुर्मा के 10 लोग (8 पुरुष और 2 महिला) भद्राचलम काम करने गये थे। वहां से ठेकेदार ने उनको अपने साथ कार में बैठा कर दूसरी जगह काम पर यह कहते हुए ले गया कि वहां पर ज्यादा मजदूरी मिलेगी। वहां जाने के बाद उन लोगों का आधार कार्ड रख लिया और बंधक बनाकर उनसे काम करवा रहा है। दो लोग किसी तरह से वहां से भाग कर अपने गांव दुर्मा पहुंचे हैं, लेकिन 8 लोग (जिनमें से 2 महिलाएं हैं) तीन माह से उस ठेकेदार के बंधक में हैं।
मोदी जी नार्थ ईस्ट के अंतिम गांव तक बिजली पहुंचाने का दावा करते हैं, लेकिन मध्य भारत के इन गांवों में ढिबरी की रौशनी तक नहीं पहुंच पायी है। डिजिटिल इंडिया तो दूर की बात है, यहां पर किसी गांव में आपको नेटवर्क नहीं मिलेगा। विकास के नाम पर इनको कुछ मिलता है तो अत्याधुनिक रायफलों की गोलियां, जो इनके शरीर को छलनी कर देता हैं। मोदी जी ने लाल किले के सम्बोधन में कहा था कि इस बार लोकसभा और राज्यसभा की बैठकें सामाजिक न्याय को समर्पित थीं। लेकिन इन आदिवासियों को सामाजिक न्याय कब मिलेगा? कब इनको बिजली, उज्ज्वला योजना, आयुष्मान योजना की सुविधायें मिलेंगी? कबतक उन बेटियों, मां-बहनों के साथ बलात्कार होता रहेगा जो इस जंगल में रहती हैं? इनके लिए कब बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के नारे सार्थक होंगे?
अपने सम्बोधन में प्रधानमंत्री ने कहा कि बापू के नेतृत्व में, क्रान्तिकारियों के नेतृत्व में आजादी पाने के लिए लोगों ने जिन्दगी को न्यौछावर कर दिया, जेलों में काट दिया, जान की बाजी लगा दी-क्योंकि जुल्मों-सितम बहुत हो चुके थे। जालियांवाला बाग की घटना वीरों के त्याग, बलिदान की प्रेरणा देती है। मैं आपके विचारों से 100 प्रतिशत सहमत होते हुए कहना चाहता हूं कि आज भी आदिवासी अपनी जीविका के साधन जल-जंगल-जमीन के लिए लड़ रहे हैं ताकि उनकी आजादी बचे रहे। उनके जल-जंगल-जमीन पर गिद्धों (देशी-विदेशी लूटेरे) की दृष्टि लगी हुई है, जिसके चलते आये दिन जालियांवाला बाग जैसी घटनाएं घटित हो रही हैं। नुलकातोंग की घटना भी जालियांवाला बाग की घटना की तरह ही है, जहां निहत्थे नौजवानों, बच्चों पर घेर कर गोलियां चलाई गईं। इस घटना को सही ठहराने वाले अधिकारी, राजनेता जनरल डायर से कम नहीं हैं।
आपने जिक्र किया था कि कटनी में बलात्कारियों को 5 दिन में सजा दे दी गई, लेकिन मड़कम हिड़मे जैसे सैकड़ों आदिवासीं महिलाओं के बलात्कारियों की वर्षों बीत जाने पर आज तक पहचान भी नहीं हो पाई है। आपने श्री अरविन्द की जयंती को याद करते हुए कहा था- ‘‘राष्ट्र क्या है, हमारी मातृभूमि क्या है? यह केवल जमीन का टुकड़ा नहीं है। राष्ट्र एक विशाल शक्ति है, यह असंख्य छोटी-छोटी इकाईयों को संगठित ऊर्जा का मूर्त रूप देती है’’।
मोदी जी, लेकिन आदिवासियों की मौत पर आपकी चुप्पी बता रहा है कि आपके लिए राष्ट्र का मतलब जमीन का टुकड़ा है, जिसे आप आदिवासियों से छीनकर पूंजीपतियों के हवाले करना चाहते हैं।
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों को धमकी
बस्तर में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को डराने की घटना देश में सबसे ज्यादा है। यहां पर कई पत्रकारांं को झूठे केसों में फंसा कर जेलों में डाल दिया गया। सामाजिक कार्यकर्ताओं की वर्दी पहने पुलिस के जवान पुतले जलाते हैं, लेकिन उसपर कोई कार्रवाई नहीं होती है। नुलकातोंग एनकांउटर के बाद सामाजिक, नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों के जाने के बाद सुकमा एसपी मीना ने प्रेस वार्ता में आरोप लगाया कि सोनी सोरी व बेला भाटिया बार-बार नुलकातोंग व गोमपाड़ पहुचंकर जबरन गांव वालों की बैठक ले रही हैं और उन्हें पुलिस के खिलाफ झूठा बयान देने को कहा जा रहा है। एसपी मीना ने आगे कहा कि जांच के नाम पर पहुंचने वाले दलों के लिए उन्हें मुफ्त में भोजन व दूसरे इंतजाम करने पड़ रहे हैं। एसपी मीना का यह बयान मनगढ़ंत है। नागरिक समाज की जो 16 सदस्यीय टीम गई थी वह अपने भोजन की व्यवस्था खुद करके गई हुई थी। एसपी का यह बयान सामाजिक कार्यकर्ताओं के कामों में रूकावट डालने के लिए आया है। एसपी मीना को यह बताना चाहता हूं कि उनके बहादुर जवान 19 अगस्त की शाम को नुलकातोंग गांव में जाकर गांव वालों को गांव से भगाकर और उनके घरों पर कब्जा करके उनके घर के राशन, मुर्गा, बत्तक खा गए। गांव वालों को तीन दिन तक गांव नहीं आने की हिदायत दिए, ताकि वे नागरिक समाज के लोगों को अपने उपर हुए जुल्म की कहानी नहीं बता सकें। इसके लिए एक मनगढ़ंत कहानी गढ़ी गई कि यहां पर 500 माओवादी आए हैं और उनके साथ मुठभेड़ होने वाला है। 6 अगस्त के नुलकातोंग जनसंहार से पहले एसपी के बहादुर जवानों ने कई गांवों में बर्बर दमन और महिलाओं के साथ बलात्कार किया। इसके अलावा गर्भवती महिलाओं को भी पीटा है। एसपी को नागरिक समाज को डराने-धमकाने के जगह इस गैर संवैधानिक कार्य के लिए जवानों पर कार्रवाई करनी चाहिए। एसपी मीना को भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का वह सम्बोधन याद रखना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा कि ‘‘हमारे बीच सन्देहवादी और आलोचक होंगे, हमें शिकायत, मांग, विरोध करते रहना चाहिए -यह भी लोकतंत्र की एक विशेषता है’’।
रोज-रोज के फर्जी मुठभेड़ और गिरफ्तारियों से आदिवासियों के लिए अस्तित्व का खतरा पैदा हो गया है। आदिवासी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संगठित होकर लड़ रहे हैं, चाहे आप इनके संघर्ष को जिस नाम से पुकारें। इस लूट को बनाये रखने के लिये भारत सरकार, छत्तीसगढ सरकार जितना भी फर्जी मुठभेड़ में लोगों को मारे, महिलाओं के साथ बलात्कार करे, शांतिप्रिय-न्यायपसंद लोगों को धमकाये और उन पर हमले कराये – इससे शांति स्थापित नहीं हो सकती। भारत सरकार से अपील है कि वह तुरंत फोर्स को वापस बुलाये और आदिवासियों को उनके जीविका के साधन से जबरदस्ती बेदखल नहीं करे। यह सरकार की जिम्मेवारी है कि वह लोगों को शांति, सुरक्षा और न्याय दे। तभी जाकर आपका लाल किले का वह सम्बोधन सार्थक हो पायेगा जिसमें आपने कहा – ‘‘संविधान कहता है कि गरीबों को न्याय मिले, जन-जन को आगे बढ़ने का अवसर मिले। समाज व्यवस्था उनके सपनों को दबोचे नहीं। वह जितना फलना-फूलना, खिलना चाहे, उनके लिए अवसर हो। दलित, पीड़ित, जंगल में रहने वालों को उनकी अपेक्षाओं के अनुसार अवसर हो’’। आदिवासियों और नागरिक समाज की यही मांग है कि धनपिपाशुओं के लिए आदिवासियों की जीविका के साधन को छीनना बंद किया जाये तथा उनकी हत्या, फर्जी गिरफ्तारी और महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार को बंद किया जाये। आदिवासियों को भी गौरवपूर्ण तरीके से जीने का अधिकार मिले।
साभारः – हस्तक्षेप.कॉम