बस्तर में कोहराम (5): भयावह भविष्य छत्तीसगढ़ में है
कनक तिवारी
भौंचक और आशंकित मौजूदा इतिहास भारतीय सत्ता के करतब देख रहा है। खेत ही बाड़ को खा रही है और खेत को कराहने का भी अधिकार नहीं देना चाहती। यह अचरज, संदेह और घबराहट का फलसफा है। जिनकी रक्षा के सियासी ठनगन किए जाएं, उनसे पूछा ही नहीं जाए। बल्कि उन्हें प्रशासनिक तुनक में जिंदगी से बेदखल भी कर दिया जाए। सुनने में कम लेकिन सोचने में ज्यादा घबराहट होती है कि इक्कीसवीं सदी का यह दशक आगे ऐसी सामाजिक दुर्घटना की ओर बढ़ रहा है। उसकी भयावह कल्पना उन्हें भी नहीं हुई होगी, जिन्होंने इस देश को आजाद कराया है। भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा मजहब, जातियां, बोलियां, भाषाएं, सांस्कृतिक आदतें, दस्तूर, रूढ़ियां और अंधविश्वास भी हैं। यह अहंकार दो कौड़ी का है कि हमारा देश दुनिया में सबसे ज्यादा वैचारिक, प्रगतिशील और मनुष्य-समर्थक है।
समाज के सबसे पिछडे़े अछूत कहलाते दलित वर्ग के लोग मोटे तौर पर शहरी सभ्यों के साथ दैनिक आधार पर सम्पर्क में होने से जातीय अनुकूलन की थ्योरी के तहत बहुत धीरे धीरे सही वर्गविहीनता लाए जाने का कारक बन सकते हैं। कथित उच्च वर्णों के कई गरीब भी वे व्यवसाय करते मजबूत होंगे फिलहाल जो उनके लिए खारिज माने जाते हैं। गरीबी तो मजहबी कूपमंडूकता और जातीय विषमताओं को तोड़ने का सामाजिक हथियार भी बन रही है। बुद्धि से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय और शोषण में वैश्य वृत्ति के पंडिताऊ इतिहास को खोजने अब भी पीढ़ियां बर्बाद क्यों की जा रही हैं? इस व्यापक परिघटनात्मक संदर्भ में देश के मूल निवासी आदिवासी अपने अस्तित्व की लड़ाई वक्त के बियाबान की आखिरी खंदक में लड़ रहे हैं।
करीब आठ दस करोड़ आदिवासी अपनी अस्मिता, पहचान, जीविका, साामजिक तथा राजनीतिक उपेक्षा और दुर्व्यवहार के शिकार रहते अपनी हैसियत ही खो बैठने के मुहाने पर ला दिए गए हैं। यह कू्रर, तटस्थ और निर्मम सच जानना जरूरी है। जो संविधान सरकारों को आदिवासियों की छाती पर पुलिसिया गोली चलाने की ताकत देता है, उसी पवित्र किताब में ही पूर्वज लेखकों ने आदिवासी की जिंदगी को कुछ हुक्कामों के भरोसे भलमनसाहत में छोड़ दिया था। संविधान सभा में इकलौते आदिवासी सदस्य जयपालसिंह मुंडा ने अभिमन्यु के रथ के पहिए की तरह आदिवासी के अधिकारों के भविष्य को विचार के आकाश में उछाल दिया था। तर्क यह है कि आदिवासियों के पुश्तैनी अधिकार विन्यस्त, परिभाषित और विकसित होने थे लेकिन उन्हें एक अव्यक्त भाषा में राज्यपालों के सुपुर्द किया गया। राज्यपालों की कच्ची नौकरी का आदेश प्रधानमंत्री की कलम से निकलता है और उन्हें प्रदेशों के मंत्रियों की राय भी सुननी पड़ती है। यह संवैधानिक ठनगन कायम होकर बिसूर रहा है कि आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा हो रही है, जबकि अधिकार लगातार कम किए जा रहे हैं।
चीख चीखकर संविधान सभा में कई सदस्यों के साथ प्रो. के टी शाह ने कहा था खासतौर पर जंगलों की संपत्ति, खनिज, नदियों का पानी, पशु पक्षी और इन सबकी हिफाजत और संपत्तियों का दोहन तथा वितरण सरकार को ही करना चाहिए। कहा था शाह ने यदि निजीकरण किया गया तो काॅरपोरेटी तो खून पीते हैं। उनकी फिर भी अनसुनी की गई। गांधी, नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी वगैरह तक ही सार्वजनिक क्षेत्र बनाकर देश के बुनियादी उद्योगों को सुरक्षित करने की कोशिश की गई थी।
बीसवीं सदी के आखिरी दशक में वैश्वीकरण के राक्षस के अट्टहास से सभी लोकतंत्रों सहित भारत में आर्थिक सुधार के नाम पर पूंजीवाद की आर्थिक गुलामी का मौसम खिला है। अब उसके चालीस बरस हो चुके हैं। संविधान सभा में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने सरकारी पक्ष से दो टूक कह दिया था आदिवासी इलाकों में सरकार सब कुछ उनसे पूछकर कैसे कर सकती है? उन्हें ज्ञान ही कितना है? घाव लेकिन रिस रहे हैं। मलहम मंत्रालय में पड़ा है। सरकार को फुरसत और नीयत नहीं है लेकिन लगातार गोलियों के चलने का लोकतांत्रिक रिहर्सल संवैधानिक सरकारें अचूक निशाने के साथ कर रही हैं। कोई सिलसिलेवार देखे तो वनों की पूरी संपत्ति सरकारों के जरिए काॅरपोरेटियों की मुट्ठी में चली जा रही हैं।
तो आदिवासी कहां हैं? अचरज है आदिवासियों की नक्सलियों से रक्षा करने में सरकारें संविधान की शपथ लेकर अपने करतब इस तरह करती हैं कि फिलहाल तो नक्सली गुमशुदा की तलाश वाले काॅलम में हैं, लेकिन हर गोली पर किसी आदिवासी का नाम लिखा है, चाहे वह पुलिसिया जवान हो या बस्तर का आदिवासी। क्या दिक्कत है यदि संविधान के हुक्म के अनुसार ग्राम सभाओं से जिरह, समझाइश और मानमनौव्वल के साथ बस्तर की नक्सली समस्या के उन्मूलन का भी खाका तैयार किया जाए।
सिलगेर सहित आदिवासियों को समझ लेना चाहिए कि ताकत, एकता और धन के अभाव में जनआंदोलन हो तो सकते हैं, लेकिन उनकी भ्रूण हत्या होती रहेगी। नृतत्वशास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र वगैरह के अधुनातन रिसर्च पेपर बता रहे हैं, जिससे यह हासिल होता है। यह समझ विकसित हो रही है कि न आदिवासी इस सदी के अंत तक रह पाएंगे और न ही आदिवास। वे एक सौ पैंतीस करोड़ भारतीयों की भीड़ में गुमनाम इकाइयों की तरह धकेले जा रहे हैं। वे पूंजीवादपरस्त हो रही सत्ता की चावल की थाली में कंकड़ों की तरह दिखते सत्ता, काॅरपोरेटी गठजोड़ की आंखों में किरकिरी की तरह हैं। (समाप्त)
कनक तिवारी