मनरेगा में जात और मनुवादी एडवाइजरी
इस वर्ष के अप्रैल माह में छत्तीसगढ़ सहित पूरे देश में मनरेगा में काम करने वाले दलित व आदिवासी समुदाय से जुड़े मजदूरों के लिए भुगतान का संकट खड़ा हो गया, जबकि बाकी मजदूरों को भुगतान पहले की तरह ही हो रहा था। पूरे देश में हल्ला मचने के बाद यह पता चला कि यह अव्यवस्था नरेंद्र तोमर के अधीन ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक ऐसी एडवाइजरी के कारण पैदा हुई है, जिसके बारे में कोई चर्चा सार्वजनिक रूप से नहीं हुई थी और न ही इस एडवाइजरी पर संसद में तो दूर, इस मंत्रालय से संबंधित संसदीय स्थायी समिति तक में कोई चर्चा हुई थी। मंत्रालय के अधिकारी भी इस एडवाइजरी से अनजान थे और ‘वायर’ की रिपोर्ट के अनुसार भुगतान संकट का हंगामा मचने पर मंत्रालय की वेबसाइट से इस एडवाइजरी को चुपचाप हटा लिया गया है।
एडवाइजरी यह है कि अब इस वित्त वर्ष से Iअनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए मनरेगा फंड का आबंटन व भुगतान अलग से किया जाएगा। इस एडवाइजरी के कारण राज्यों के लिए नामित डीडीओ का काम इतना अधिक बढ़ गया है कि वर्कलोड दुगुना होने के कारण उसे एफटीओ पर अपने हस्ताक्षर करने के लिए समय कम पड़ने लगा है। भुगतान के लिए सैकड़ों करोड़ रुपये आने के बावजूद बैंक भी नए एससी/एसटी खातों के लिए पीएफएमएस मैपिंग का काम समय पर न कर पाने के कारण भुगतान करने में असमर्थ थे।
इस एडवाइजरी की जरूरत क्या है? एडवाइजरी इस पर चुप है, लेकिन यह प्रचारित किया जा रहा है कि ऐसा आदिवासी व दलित मजदूरों की वास्तविक संख्या का पता लगाने के लिए किया जा रहा है। लेकिन इसके लिए क्या वाकई मजदूरों का भुगतान अलग-अलग श्रेणियों में करने की जरूरत है? क्या यह मनरेगा की मूल मंशा के खिलाफ नहीं है?
केंद्र सरकार की ही रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में मनरेगा में काम करने वालों में 50% से ज्यादा महिलाएं और 40% से ज्यादा दलित और आदिवासी तबकों से जुड़े मजदूर हैं। केंद्र सरकार को यह सामाजिक वर्गीकरण कैसे मिला? इसलिए कि मनरेगा में काम करने वाले मजदूरों के सामाजिक वर्गीकरण का रिकॉर्ड पहले से रखा जा रहा है और इसका पता करने के लिए मजदूरी भुगतान को श्रेणीकरण से जोड़ना जरूरी नहीं है। तो फिर श्रेणीकृत भुगतान के पीछे वास्तविक मंशा क्या हो सकती है?
वास्तव में भाजपा मनरेगा के पक्ष में कभी नहीं रही तथा इस कानून का ‘मिट्टी-कुदाली वाले अधकचरे काम’ के रूप में उपहास उड़ाती रही है। लेकिन सामाजिक अध्ययन यह बताते है कि मनरेगा ने ग्रामीण मजदूरों को आर्थिक रूप से सशक्त किया है और इससे उनकी सामूहिक सौदेबाजी की ताकत बढ़ी है। मनरेगा मजदूरों की आय में 10% की वृद्धि हुई है और इस बढ़ी हुई आर्थिक ताकत के कारण अब वे गांवों के प्रभुत्वशाली तबकों के यहां बेगारी या कम मजदूरी पर काम करने से इंकार करते हैं। भाजपा की असली दिक्कत यही है कि ग्रामीण गरीब, विशेषकर इन कामों में लगे हुए पददलितों की आर्थिक ताकत बढ़ रही है। यह ताकत जितनी बढ़ेगी, गांवों के सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक और सांस्कृतिक जीवन पर कब्जा जमाए हुए इस प्रभुत्वशाली वर्ग की ताकत को उतनी ही ज्यादा चुनौती भी मिलेगी और उसी अनुपात में वे कमजोर भी होंगे।
इसीलिए भाजपा इस सार्वभौमिक रोजगार गारंटी कानून को, जो बिना किसी जातीय-धार्मिक भेदभाव के, काम चाहने वाले किसी भी ग्रामीण परिवार को न्यूनतम 100 दिनों के काम की गारंटी करता है, को कमजोर करना चाहती है तथा वह इस मांग आधारित सार्वभौमिक रोजगार गारंटी कानून को, आबंटन आधारित सीमित रोजगार योजना में तब्दील करना चाहती है — यदि फंड का आबंटन नहीं, तो काम भी नहीं। इसका सीधा असर दलित-आदिवासी समुदाय से जुड़े लोगों के रोजगार पर पड़ेगा, जिसे बताया जाएगा कि चूंकि फंड ही नहीं है या नहीं आया है, तो काम कैसे दिया जा सकता है? इसलिए ये एडवाइजरी मनरेगा की मूल संकल्पना के ही खिलाफ है।
🔶 ऐसा होने की संभावना इसलिए भी बढ़ जाती है कि आज भी हमारे ग्रामीण समाज व पंचायतों पर ऊंची जातियों का ही प्रभुत्व है। यह प्रभुता मनरेगा के सार्वभौमिक रोजगार कार्यक्रम होने के बावजूद इस समुदाय के लोगों को गैर-कानूनी तरीके से काम से वंचित रखती है। समाज में व्याप्त जातिगत असमानता के विषाणु इस रोजगार गारंटी कानून को भी दूषित कर रहे हैं।
टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के नितिन धाकतोड़े ने वर्ष 2017-18 में तेलंगाना में इस संबंध में एक अध्ययन किया है। अपनी रिपोर्ट ‘कास्ट इन मनरेगा वर्क्स एंड सोशल ऑडिट’ में वे बताते हैं कि हालांकि सरकार द्वारा मनरेगा में न्यूनतम मजदूरी 202 रुपये प्रतिदिन है, लेकिन पिछड़ा वर्ग मजदूरों को औसतन 172 रुपये, अनुसूचित जाति के मजदूरों को 155 रुपये तथा धार्मिक अल्प संख्यक मजदूरों को औसतन केवल 123 रुपये प्रतिदिन ही मजदूरी मिली। तेलंगाना के बाथ मंडल की सोनाला पंचायत में मजदूरों को औसतन केवल 153 रुपये प्रतिदिन ही मजदूरी मिली और कुछ मजदूरों को तो केवल 86 रुपये ही मजदूरी मिली। समाज के जातिक्रम में जो जितना नीचे था, वह मजदूरी से उतना ही ज्यादा वंचित था।
साफ है कि यह रिपोर्ट पंचायतों में जातीय प्रभाव को स्पष्ट रूप से रेखांकित करती है। लेकिन यह वंचना किसी राज्य के किसी पंचायत तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका विस्तार पूरे देश के सभी पंचायतों तक है। प्रख्यात अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के अध्ययन के अनुसार झारखंड राज्य में मनरेगा कार्यों में एसटी-एससी समुदाय के लोगों की भागीदारी लगातार घट रही है।वर्ष 2015-16 में इन दोनों समुदायों की भागीदारी 51.20% थी, जो घटकर वर्ष 2019-20 में महज 35.79% रह गई। मोदी सरकार की यह एडवाइजरी और फंड आबंटन नीति इस वंचना को और बढ़ाएगी।
दलित मानवाधिकारों पर राष्ट्रीय अभियान के विश्लेषण के अनुसार अनुसूचित जाति के लिए वर्ष 2014-19 के बीच सरकारी खर्च केवल 3.1 लाख करोड़ रुपये ही था, जबकि इस समुदाय के लिए कुल 6.2 लाख करोड़ रुपये ही आबंटित किये गए थे। इसी प्रकार, इसी समयावधि के लिए अनुसूचित जनजाति के लिए आबंटित 3.28 लाख करोड़ रुपयों के विरुद्ध केवल 2 लाख करोड़ रुपये ही खर्च किये गए। यह है केंद्रीय स्तर पर अजा-जजा उपयोजना की स्थिति! इसलिए यह दावा कि यह एडवाइजरी दलित-आदिवासी समुदाय के हित में है, बेहद बचकाना है। संभावना यही ज्यादा है कि श्रेणीगत आबंटन के बाद फंड की कमी का रोना रोकर या फिर जान-बूझकर गैर-कानूनी तरीके से इन तबकों के मजदूरों को रोजगार से वंचित करने का खेल खेला जाएगा।
पिछले वर्ष मोदी सरकार को मनरेगा के लिए 1,11,500 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े। कोरोना महामारी और इसके कारण गांवों में अपने घर वापस पहुंचे करोड़ों अतिरिक्त लोगों को काम देने की जरूरत होने के बावजूद इस वित्त वर्ष में केवल 73000 करोड़ रुपये ही आबंटित किये गए हैं। आज भी जरूरतमंद ग्रामीण परिवारों को न्यूनतम 100 दिनों की जगह औसतन केवल 46 दिन ही काम मिल रहा है। ऐसे में श्रेणीकृत आबंटन इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा को बढ़ाएगा और किस श्रेणी के मजदूर को काम मिलेगा, यह इस बात से तय होगा कि किस श्रेणी के लिए फंड का आबंटन है। यह भारत के ग्रामीण समाज मे जातिगत असमानता को बढ़ाएगा तथा यह इस कानून की आधारभूत संकल्पना — सार्वभौमिक रोजगार गारंटी — के भी खिलाफ है। लेकिन मोदी सरकार तो ऐसा ही चाहती है, जो हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लिए एक छोटा-सा मनुवादी कदम ही है। इस एडवाइजरी से आगे अब मनरेगा की विदाई का ही रास्ता खुलता है — कानूनन न सही, लेकिन व्यवहारिक रूप से ही। इसके बाद रोजगार गारंटी कानून सवर्णों के नियंत्रण से ही संचालित होगा और दलित-आदिवासी समुदायों के लिए न रहेगा फंड, न मिलेगा रोजगार!
संजय पराते