रानीबोदली के जंगल की पहाड़ी में मिली अद्भुत प्रतिमा :भूमकाल एक्सक्लूसिव

महिषासुर और उससे जुड़े मिथक और नए विवादित साहित्यों से देश में नई बहस शुरू हो गई है | लेकिन इन बहस से दूर हम आपको ले चलते हैं बस्तर के उस बियाबान जंगल में जहाँ मिली है; अद्भुत प्रतिमायें ! रविवार 09 अक्टूबर की सुबह हम अपने साथियों के साथ निकले थे कुटरू जमींदारी की खंडहर हो चुकी हवेली में छुपे इतिहास के राज को खोजने लेकिन ग्रामीणों से मिली जानकारी हमें चौंका गई…

 

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रानी बोदली में पहाड़ी पर स्थिति प्रतिमा

कुटरू में ग्रामीणों ने बताया कि रानीबोदली में जमीन से अपने आप कुछ दिन पहले ही मूर्तियाँ निकली है | ऐसा अक्सर सुनने को मिलता हैं कि प्रतिमायें जमीन से रातों रात प्रकट हो गई | इस उधेड़बुन में की आगे क्या होगा, हम निश्चित कर कुटरू-फरसेगढ़ मार्ग पर आगे बढे |

यह वही खुनी सड़क है, जो सलवा-जुडूम के खुनी संघर्ष के कई राज दबाये हुए हैं | कई जगह कटे सड़क को पाट तो दिया गया है किन्तु बारूदी सुरंगों का डर मन को भयाक्रांत कर देता है | सड़क किनारे टिफिन लेकर सुरक्षा-बल के जवान रास्ते में गश्त करते हुए मिले | वहीँ सड़क किनारे आदिवासी समुदाय के एक युवा को तराजू-बाट लगाकर महुआ खरीदते देख काफी सुकून महसूस हुआ |

कुछ समय पश्चात ही हम रानीबोदली गाँव पहुँच गए | रानीबोदली वही गाँव हैं जो छत्तीसगढ़ के दुसरे सबसे बड़े नक्सली हमले का गवाह है | बीजापुर जिले के रानीबोदली में 15 मार्च 2007 को पुलिस कैंप पर आधी रात को माओवादियों ने हमला किया और भारी गोलीबारी की थी | इसके बाद कैंप को बाहर से आग लगा दिया था | इस हमले में पुलिस के 55 जवान मारे गए | आज भी इस हमले के बाद का डर आम शहरी लोगों में इतना है कि वे इस खुनी सड़क पर सफ़र करने से डरते हैं |

वैसे पहले भी इस रास्ते से कई मर्तबा जाना हुआ है | लेकिन इस बार कुछ अलग था | गाड़ी सड़क किनारे खड़ी कर एक ग्रामीण से सहयोग लेकर उस पहाड़ी तक पहुँचे | पहाड़ी के रास्तों को आदिवासी ग्रामीणों ने साफ कर उपर तक चढ़ने का रास्ता बना रखा है | पहाड़ी पर उपर चढ़ने पर हमें 03 प्रतिमायें देखने को मिली | जिसे आदिवासियों ने संरक्षित कर रखा है |

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बीजापुर जिले के रानीबोदली में देव प्रतिमाओं को आदिवासियों ने संरक्षित किया और कर रहे पूजा

गाँव से दूर होने के बावजूद बिजली के पोल के सहारे प्रकाश की सुविधा भी पहुँचा दी गई है | ग्रामीणों ने बताया कि ये प्रतिमायें करीब दो-तीन साल पहले इसी पहाड़ी पर मिली थी | जिसे ग्रामीणों ने एक चबूतरा बनाकर पूजना प्रारंभ कर दिया | मासा गोटा नाम के आदिवासी पुजारी इन देव प्रतिमाओं की देखभाल एवं पूजा पाठ कर रहे है |

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