कोरोना काल का मजदूर
आज की कविता
लहू पीती सड़कों पर चला हूँ ,
अब मैं गांव की ओर चला हूँ।
पेट पालने आया था शहर ,
अब निराश हो चला हूँ।
क्या कहूं कैसे दिन बिताये ,
संक्रमण काल में ,
कोई पूछने भी ना आये ,
इस विपत अकाल में ,
भुख से बिलखते बच्चे
कांधे पर लिये चला हूँ ।
अब निराश हो चला हूँ…..
गर कुचला गया सड़क पर ,
बेमौत मारा जाऊंगा ,
पर अब शहर में रहकर ,
जी भी ना पाऊंगा।
जीवन मरण के बीच ,
पीसता चला हूँ।
अब निराश ….
अगरचे पहुंच गया गांव ,
तो खैर मनाऊंगा ।
अपने ही बचपन को ,
बचपन की सैर करवाऊंगा।
बस इतनी ही आस लिये चला हूँ।
अब मैं गांव की ओर चला हूँ ।।
— किरीट ठक्कर ।