समकालीन भारत में शिक्षा की दुर्दशा
अंबानी-बिड़ला रिपोर्ट से पैदा हुए आर्थिक-यंत्रमानव (होमो-इकॉनॉमिकस)
यह लेख खासतौर से 18-20 साल के उन युवाओं के लिए है जो जेएनयू के आंदोलनकारियों से पूछ रहे हैं कि तुमने पूरे देश के बाकी विश्वविद्यालयों के लिए आवाज़ क्यों नहीं उठाई ।
बिल्कुल उसी शिकायती तर्कणा शैली में कि तुमने तब क्या किया, 70 साल में क्यों नहीं बोला, फलांने को क्यों नहीं टोका, ढिमकाने को क्यों नहीं बोला इत्यादि।
तो बात ऐसी है कि अप्रैल 2000 में जब आप पैदा भी नहीं हुए थे या कि एल्फाबेट या ककहरा ही सीख रहे थे, तभी 43 साल के मोटाभाई मुकेश अंबानी जी और 33 साल के छोटाभाई कुमारमंगलम बिड़ला जी आपकी जनम-कुंडली के शिक्षा वाले चतुर्थ स्थान में शनि महाराज को स्थायी रूप से बिठा रहे थे।
ऐतिहासिक इलाहाबाद विश्वविद्यालय जैसे सरकारी विश्वविद्यालय से ‘तरंग विज्ञान’ में हिन्दी माध्यम में अपनी पीएचडी थिसिस लिखनेवाले महान धर्मध्वजी जोशी जी उस समय केन्द्र में शिक्षा मंत्री थे।
अंबानी-बिड़ला द्वारा शिक्षा का पूर्णतः निजीकरण करने की अनुशंसा वाली रिपोर्ट के विरोध में उस दौरान दिल्ली के इन्हीं तीनों प्रमुख विश्वविद्यालयों (डीयू, जेएनयू और जामिया मिलिया) के छात्रों ने संयुक्त रूप से संसद भवन का घेराव करने के लिए विशाल मार्च निकाला था।
इन पंक्तियों का लेखक भी उस मार्च का हिस्सा था। तब भी हमारा नारा यही था— ‘शिक्षा पर जो खर्चा हो, बजट का दसवाँ हिस्सा हो’।
इसलिए आप जान लें कि देश और दुनिया के ऐसे मुद्दों पर भारत में लंबे समय से केवल ये ही विश्वविद्यालय अपनी आवाज़ बुलंद करते रहे हैं। और ये आंदोलन अन्य दलों की परवर्ती सरकारों के दौर में भी चलते रहे हैं।
डॉ. मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री रहते हुए जेएनयू आए थे, तब भी उनकी नव-उदारवादी नीतियों के खिलाफ जेएनयू में ‘मनमोहन सिंह गो बैक’ के नारे गूंजे थे और वहाँ की सड़कें इस नारे से रंगी पड़ी थीं।
अंबानी-बिड़ला रिपोर्ट ने खुले तौर पर सरकार से कहा था कि वह उच्च शिक्षा से अपने हाथ पूरी तरह खींच ले और इसकी जगह वह केवल एजुकेशन लोन की वित्तीय गारंटी प्रदान करने का काम करे। (रिपोर्ट की लिंक नीचे दी जा रही है।)
इस रिपोर्ट ने यह भी कहा था शिक्षा पूरी तरह से बाजारोन्मुखी होनी चाहिए। यानि छात्रों को ठोक-पीट कर केवल सेठों, राजनेताओं और कॉरपोरेटों की गुलामी करने लायक ऐसे दासों के रूप में तैयार करना चाहिए, जो कोई सवाल नहीं पूछता हो।
इस रिपोर्ट ने एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी विधेयक लाकर निजी विश्वविद्यालयों को बढ़ावा देने की सिफारिश भी खुलकर की थी। ऐसे निजी विश्वविद्यालय जो कालांतर में लुटेरे और ठगवा ही साबित हुए हैं।
आज जब दिल्ली की केजरीवाल सरकार या बिहार की नितीश कुमार की सरकार कहती है कि हम छात्रों को पढ़ने के लिए 4 लाख तक का लोन बिना किसी जमानत के देंगे, तो लोगों को खुशी होती है। क्योंकि धीरे-धीरे कुछ चीजें घोड़े के मुँह में लगाम की तरह इतनी सामान्य होती जाती हैं कि हम उनके बारे में सोचना तक बंद कर देते हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक के मुताबिक फरवरी 2017 में भारतीय छात्रों पर बकाया एजुकेशन लोन 720 अरब रुपये का था। फरवरी 2018 में 2 प्रतिशत गिरावट के साथ यह 705 अरब रुपये हो गया। इनमें से 95 फीसदी लोन सरकारी बैंकों का था।
प्राइवेट वित्तीय संस्थाएं गरीब छात्रों को लोन भी नहीं देतीं। वे केवल कुछ ही सीमित कोर्स और संस्थानों तक लोन सीमित रखती हैं जहां केवल एक खास वर्ग के छात्र ही महंगी फीस देकर बाद में अच्छा आर्थिक रिटर्न देनेवाली शिक्षा हासिल करते हैं।
आज भारत में निजी विश्वविद्यालयों, इंजीनियरिंग कॉलेजों तथा प्रबंधन संस्थानों ने कुछ तो कालेधन का इस्तेमाल कर और बाकी बैंकों से ऋण लेकर विशाल दिखावटी और आकर्षक इंफ्रास्ट्रक्चर खड़े कर लिए हैं।
इनमें से कुछ तो घाट-घाट का पानी पीकर इतने उस्ताद हो चुके हैं कि छवि-निर्माण के लिए ऊपर-ऊपर से तमाम लोकोपकारी और क्रांतिकारी प्रपंच भी परोसते रहते हैं। और अच्छे-भले समझदार लोग भी इनके मायावी लपेटे में आकर इनका प्रचार करते रहते हैं।
घटिया गुणवत्ता वाली निकम्मी शिक्षा देनेवाली ये संस्थाएं उस ऋण की भरपाई के लिए छात्रों से ही महंगी फीस वसूल रहे हैं और छात्रों को सलाह दे रहे हैं कि आपको आसान शर्तों पर जितना चाहिए एजुकेशन लोन मिल जाएगा।
इन्हीं के हाथों बिक चुकी मीडिया द्वारा यह भी बहुप्रचारित किया जाता है कि सस्ती उच्च शिक्षा देकर टैक्सपेयर के पैसे का दुरुपयोग किया जा रहा है।
भारत की भोली जनता से यह बात बड़ी चालाकी से छिपाई जाती है कि भारत का हर नागरिक टैक्सपेयर है, क्योंकि गरीब से गरीब नागरिक भी सुई से लेकर माचिस तक खरीदते हुए अप्रत्यक्ष करों के रूप में टैक्स भरता है। और इसलिए भरता है कि उसके बच्चों को उस पैसे से निःशुल्क शिक्षा और स्वास्थ्य मिले।
और यह भी कि जब बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानों को टैक्स में हज़ारों करोड़ की राहत दी जाती है तो वह देश के हर आम करदाता नागरिक का ही पैसा होता है।
आज भारत का निरीह युवा स्नातक की डिग्री हासिल करते-करते लाखों के ऋण तले दब जाता है। बाद में रोजगार नहीं मिलने पर कुछ भी करने को बाध्य होता है। उसका आत्मविश्वास पूरी तरह टूट चुका होता है।
अगर वह निम्न-मध्यवर्गीय परिवार से हुआ तो उसपर परिवार की उम्मीदों-अपेक्षाओं और अनिवार्य जरूरतों का बोझ भी होता है। ऐसे लाखों युवाओं की कहानियां न तो हमें टीवी और सिनेमा में दिखाई जाती हैं और न मीडिया ही उसे सामने लाता है।
एक पूरी-की-पूरी पीढ़ी मानसिक रूप से इतना टूट चुकी है, असुरक्षित हो चुकी है या अपनी जरूरतों में घिर चुकी है कि व्यवस्था से कोई ठोस सवाल पूछने लायक आत्मविश्वास और निर्भीकता उसमें बची ही नहीं है।
बल्कि केवल लोभ-लाभ के वातावरण में हुई परवरिश और गुलामी वाली शिक्षा पाने की वजह से उसमें तार्किक रूप से सोचने-समझने की शक्ति भी विकसित नहीं हो पाई।
आज इस उम्र का अधिकांश युवा अपने अधकचरे भाषा-ज्ञान की वजह से न तो शुद्ध-शुद्ध हिंदी या अन्य कोई भारतीय भाषा लिख सकता है, और न अंग्रेजी ही। अपनी बात को ठीक-ठीक अभिव्यक्त न कर पाने की कुंठा की वजह से भी वह प्रतिक्रियावादी होता जा रहा है और जो मर्जी में आए बकता रहता है।
स्वयं को तुष्ट करने के लिए और अपनी स्वतंत्रता साबित करने के लिए यथास्थिति या व्यवस्था के पक्ष में ही जोर-शोर से जो-सो बोलता रहता है। इसलिए वह कोई घृणा या दुत्कार का पात्र नहीं है। शर्तरहित प्रेम, सहानुभूति और करुणा का पात्र है।
जाहिर है कि एक पूरी पीढ़ी को होमो-इकॉनॉमिकस या आर्थिक-यंत्रमानव बनाने की जो साहूकारी दुर्योजना थी, वह इन बीस सालों में पूरी तरह सफल रही है।
अंबानी-बिड़ला की पूरी रिपोर्ट यहाँ पर-
http://ispepune.org.in/PDF%20ISSUE/2003/JISPE403/2038DOCU-3.PDF