क्या बस्तर में भी सीरिया जैसे हालात हैं??
अब आप सोच रहे होंगे कि बस्तर की तुलना सीरिया से क्यों कर रहा हूँ। असल मे बीते दिनों मेरे साथ हुए एक वाकिये ने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया। दोपहर का समय था मैं और हमारे बड़कऊ बोले तो रितेश भईया हम दोनों ही लोग मेरी गाड़ी से कोंटा की ओर जा रहे थे। बारिश की वजह से घने जंगलों में धुंध थी और सड़क सुनसान।
रितेश भईया फोटो खींचने के शौकीन हैं तो उन्होंने अपना डीएसएलआर कैमरा हाँथ में ले रखा था और कुछ अलग सी तस्वीर की तलाश में थे। तभी अचानक उनकी नज़र एक छोटी सी बच्ची पर गई जो उस सुनसान सड़क के किनारे पर अकेली बैठी थी। रितेश भईया ने अचानक गाड़ी रोकने को कहा और कैमरा लेकर नीचे उतर गए। उन्होंने जैसे ही फोटो खींचने के लिए कैमरा ताना बच्ची जोर जोर से रोने लगी। बच्ची का रोना देख भईया रुक गए और मुझे भी आगे बढ़ने से रोक दिए, दरअसल इस घटना से वे भी डर गए और दुखी भी हुए। इसी बीच मैंने बच्ची से उसकी भाषा मे बात करना शुरू किया मतलब हल्बी में, जिससे बच्ची थोड़ी सहज हुई। पास पहुंचा तो देखा बच्ची बांस के कोपल जिन्हें बास्ता कहा जाता है, जिसकी स्वादिस्ट सब्जी भी बनती है बेच रही थी। कुछ देर बच्ची को पुचकार कर हमने उसका पूरा बास्ता खरीद लिया। अब बच्ची पूरी तरह हमसे घुलमिल गई थी और खुद की फोटो देख कर हंस रही थी। बहुत बार रोने का कारण पूछने पर उसने बताया कि उसने हमें पुलिस वाला समझा और कैमरे को बंदूक।
बच्ची का डरना भी लाज़मी था क्योंकि जिस जगह वो खड़ी थी उसी स्थान में कुछ साल पहले बीच सड़क पर पंद्रह जवानों और एक आम आदमी की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी, जिसका गवाह यह पूरा इलाका हुआ करता है। आपको याद होगा कुछ समय पहले सीरिया में एक फोटोग्राफर जिनका नाम नाडिया अबुशबान है, ने एक बच्चे की फोटो ली थी जो पूरे विश्व मे चर्चा का विषय बनी। उसमें भी वाक्या यही था कि जब फोटोग्राफर ने बच्चे की फोटो लेनी चाही तो बच्चे ने कैमरे को हथियार समझ दोनो हाँथ ऊपर कर दिए थे।
मुझे लगता है बस्तर में बच्चों की मानसिक स्थिति बहुत डरावनी है, इसपर सरकार को काम करना चाहिए और बच्चों को मानसिक रूप से मजबूत करने कोई सार्थक पहल होनी चाहिए।