राहुल के बाद कौन
–दिवाकर मुक्तिबोध
मई में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिलने की शायद उसकी उतनी चर्चा नहीं हुई जितनी कांग्रेस की अप्रत्याशित घनघोर पराजय और अब उसके भीतरखाने में चल रही क़वायद को लेकर हो रही है। राहुल गांधी के इस्तीफ़े के बाद पार्टी संगठन परिवर्तन की राह पर है और देश की निगाहें इस बात पर लगी हुई है कि कमान किसके हाथों में आने वाली है। सवाल है कि क्या कांग्रेस को वैसा ही सबल नेतृत्व मिल पाएगा जो अब तक नेहरू-गांधी परिवार से मिलता रहा है ? या क्या वह इस परिवार के आभामंडल से मुक्त होकर नए सिरे से खड़ी हो पाएगी? और क्या पार्टी में वैसा नेतृत्व मौजूद है ?
इतिहास के कुछ पन्ने पलटकर देखें। 12 नवंबर 1969 को जब अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने अनुशासनात्मक कार्रवाई करते हुए इंदिरा गांधी को पार्टी से निष्कासित कर दिया तो विभाजित दोनों धड़ों में नेतृत्व का कोई संकट नहीं था । उस दौर में कांग्रेस में एक से बढ़कर एक दिग्गज नेता थे। यह अलग बात है कि इंदिरा गांधी को बाहर का रास्ता दिखाने वाली सिंडीकेट कांग्रेस समय के साथ खुद राजनीतिक परिदृश्य से लुप्त हो गई और इंदिरा के नेतृत्व में जिस कांग्रेस का अभ्युदय हुआ वह 49 साल के अपने इतिहास में पहली बार नेतृत्व के संकट से जूझती दिखाई दे रही है। 134 वर्ष पुरानी कांग्रेस की कमान लगभग 37 वर्षों तक नेहरू-गांधी परिवार के हाथों में रही है। राहुल गांधी इस परिवार की पाँचवी पीढ़ी के छठवें अध्यक्ष थे जिन्होंने मई में सम्पन्न हुए लोकसभा चुनाव में पार्टी की करारी हार की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद छोड़ने की घोषणा कर दी थी । उन्हे मनाने की हरचंद कोशिश की गई पर वे अपने निर्णय पर अंत तक अडिग रहे। लगभग एक माह के बाद उन्होंने अपने पत्र को सार्वजनिक भी कर दिया। लिहाजा अब कार्यसमिति के पास आधिकारिक तौर पर उनका इस्तीफ़ा मंज़ूर करने के अलावा कोई चारा नहीं है। पार्टी के संविधान के अनुसार वरिष्ठतम नेता मोतीलाल वोरा कार्यवाहक अध्यक्ष हैं तथा कार्यसमिति की बैठक में नए अध्यक्ष के सवाल पर चर्चा होनी है। राहुल गांधी की राय है कि एक चयन समिति नया अध्यक्ष तय करें।
जाहिर है, यह काम आसान नहीं है। यह इसलिए भी है क्योंकि कांग्रेस को प्राय: एक तैयारशुदा नेतृत्व मिलता रहा है। चाहे वह मोतीलाल नेहरू रहे हों, जवाहर लाल नेहरू रहे हों , कामराज नाडर हो या इंदिरा गांधी हो या नरसिंह राव व सीताराम केसरी हों अथवा सोनिया गांधी । आज़ादी के बाद कांग्रेस के 19 अध्यक्ष हुए। इनमें से 14 गांधी-नेहरू ख़ानदान से नहीं थे। यह अलग बात है कि इन्होंने बाक़ी की तुलना में लंबे समय तक पार्टी की कमान सँभाली। इतिहास गवाह है कि 50 से अधिक विभाजन देखने वाली कांग्रेस स्वाभाविक व सर्व स्वीकार्य नेतृत्व की उपलब्धता के कारण हमेशा संकटों से उबरती रही है। किंतु संगठन के स्तर पर इस बार स्थिति वैसी नहीं है। कुछ विकट है। 2014 व 2019 के लोकसभा चुनावों के नतीजों ने उसकी कमर तोड़ दी है। वह लोकसभा में विपक्ष का पद हासिल करने की स्थिति में भी नहीं रही। पार्टी का इतना बुरा हश्र इसके पूर्व कभी नहीं हुआ था। बीते सिर्फ कुछ वर्षों में ही जनता ने उसे एकदम ख़ारिज कर दिया । ऐसा क्यों हुआ इसके बहुतेरे कारण है पर यह तय है कि उसे एक तरह से अब शून्य से शुरूआत करनी है और ऐसा संगठन खड़ा करना है जो हाईटेक होने के साथ-साथ आम जनता की कोख से निकला हो यानी सही मायनों में जनता की पार्टी जिसमें सर्वोपरि कार्यकर्ता हो , नेता नहीं। लगभग जीर्ण-शीर्ण हो चुकी कांग्रेस में ऐसा करने का जज़्बा है? अगर है तो ही वह वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में उस भाजपा को टक्कर दे सकती है जिसके अगले पाँच सालों में और भी ताक़तवर बनने की संभावना है।
फिलहाल कांग्रेस के सामने सबसे जटिल प्रश्न नये अध्यक्ष को चुनने का है। राहुल गांधी का इस्तीफ़ा अतीत की घटना है हालाँकि उस पर कार्य परिषद की मोहर लगना शेष है। इस मुद्दे पर भी बहुत बात हो चुकी है कि उन्हें पद छोड़ना चाहिए था या नहीं । दरअसल पराजय की नैतिक ज़िम्मेदारी स्वीकार करना अलग बात है और इस स्थिति से पार्टी को उबारने की चुनौती स्वीकार करना अलग बात। कहा गया कि उन्होंने पार्टी को मँझधार में छोड़ दिया। लेकिन यह मानना होगा कि यह उनका विवेकपूर्ण व साहसिक निर्णय था। राजनीति में पद छोड़ना वह भी सर्वोच्च , कभी आसान नहीं होता। इसके लिए दिल व दिमाग़ को बहुत तैयारी करनी पड़ती है। राहुल गाँधी ने वैसी तैयारी की। उन्होंने उन नेताओं के सामने एक मिसाल पेश की है जो पद से चिपके रहते हैं। अब वे एक आम कार्यकर्ता की तरह ज़्यादा प्रभावी ढंग से कार्य कर सकेंगे बशर्ते ऐसा करने की ललक और धैर्य उनमें मौजूद रहे। चूँकि राजनीति ही उनका पेशा है इसलिए उम्मीद कर सकते हैं कि जिस मंशा से उन्होंने पद छोड़ा है , उस पर दृढ़ रहेंगे तथा कांग्रेस को पुन: आकार देने का यत्न करेंगे।
नया अध्यक्ष कौन बनेगा ? उसका नेतृत्व सभी दिग्गजों को स्वस्थ मन तथा स्वस्थ कर्म से स्वीकार होगा कि नहीं ,यह भविष्य का प्रश्न है क्योंकि घात-प्रतिघात की राजनीति कांग्रेस की आंतरिक समस्या रही है। एक संकट समानांतर शक्ति केन्द्रों के बनने का भी है। राहुल भले ही पद पर न रहे किंतु उनके आभा-मंडल से परे रहना किसी भी कांग्रेसी के लिए आसान नहीं है। क्या नए अध्यक्ष में इतना साहस होगा कि वह उन्हें निर्देशित कर सके अथवा किसी मुद्दे पर उनसे बहस कर सके ? दरअसल कमान जिस किसी के हाथ आएगी, उसे समझना होगा कि राहुल तथा यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी पार्टी की अनिवार्य ज़रूरत है लिहाजा कामकाज उन्हें विश्वास में लेकर तथा उनके मार्गदर्शन में करना है। यह कठिन नहीं है क्योंकि आज स्थिति यही है कि कांग्रेस यानी राहुल गांधी-सोनिया गांधी। अत: राहुल भले ही पद पर न हो लेकिन पार्टी को बनाने काम उन्हीं के हिसाब से होना है।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कर्ण सिंह ने हाल ही में एक बयान में कहा है कि पार्टी की बागडोर किसी युवा को सौंपी जानी चाहिए। कांग्रेस की युवा पंक्ति पर नज़र दौड़ाई जाए तो क्या कोई ऐसा युवा है जिसकी राष्ट्रीय पहचान हो , वह जन-जन का नेता हो और अच्छा संगठनकर्ता भी ? क्या पार्टी लोकसभा चुनाव में हारे हुए युवा को कमान सौंप देगी ? इनसे इतर कोई नज़र भी तो नहीं आता जो इस विशाल वट वृक्ष की जड़ों को मज़बूती दे सके ? इसलिए शानों-शौक़त में पले-बढ़े व ज़मीनी हक़ीक़त से दूर रहने वाले युवा को छोड़कर 50-60 के घेरे के यानी किसी अनुभवी अधेड़ नेता को जो संगठन में काफी समय तक काम कर चुका हो, नेतृत्व सौंपा जाना चाहिए। यह कौन होगा, यह भी जटिल सवाल है।
दरअसल यह अटल सत्य है कि कांग्रेस बिना नेहरू-गाँधी परिवार के चलने व ऊर्जावान होने की स्थिति में तो फिलहाल तो नहीं है।इनका प्रभाव तभी कम होगा जब किसी बहुत ऊर्जावान व्यक्ति के हाथों में पार्टी की कमान रहेगी और लंबे समय तक रहेगी। अभी सवाल बिखराव को रोकने , पार्टीजनों में आत्मविश्वास भरने और जनता के बहुत करीब जाने व उनका विश्वास जीतने का है। लिहाजा वंशवाद के आरोपों पर ध्यान न देते हुए बेहतरी तो इसी में है कि एक कार्यकाल के लिए प्रियंका गांधी वाड्रा को अध्यक्ष चुन लिया जाए। महासचिव तो वे हैं ही, प्रभावशाली हैं और उनकी राष्ट्रीय पहचान भी है। कांग्रेस कार्य समिति के किसी भी सदस्य को उनके नाम पर एतराज़ नहीं होगा। वरन राह आसान होगी। कांग्रेस-जनों को एक सूत्र में बाँधने व संघर्ष के लिए उनमें आत्मबल का संचार करने वे बहुत उपयोगी रहेंगी। और चूँकि अगले कुछ महीनों में तीन राज्यों महाराष्ट्र , हरियाणा व झारखंड में विधानसभा चुनाव होने हैं अत: पार्टी को तुरंत संजीवनी की ज़रूरत है। वह इस तरीक़े से मिल सकती है। बहुत संभव है पार्टी इस पर विचार करें व प्रियंका को मनाने की कोशिश भी।